Thursday, September 21, 2023

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का रुख कड़ा

राजनीति के अपराधीकरण पर लंबे समय से बहस चल रही है। भारत निर्वाचन आयोग भी इस दिशा में कुछ न कुछ करता रहता है। अब चुनाव के हलफनामे में प्रत्याशी को अपने खिलाफ दर्ज मुकदमों का विवरण देना अनिवार्य कर दिया गया है। पर अपराधीकरण के इस गम्भीर मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल, चर्चा तो करते हैं, चिंता भी व्यक्त करते हैं, पर जब चुनाव में प्रत्याशियों को टिकट देने की बात आती है तो यह मुद्दा ‘युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है’ के मंत्र से तय हो जाता है।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक शुचिता को ध्यान में रखते हुए, कुछ बेहद अहम फैसले किये हैं, यदि उन पर गंभीरता से अमल कर लिया गया तो, कैंसर की तरह बढ़ती इस बीमारी पर अंकुश लग सकता है। सुप्रीम कोर्ट में इन दिनों इस विषय पर एक लंबी सुनवाई चल रही है। यह सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट के एक एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर की जा रही है। यह याचिका, संसद और विधानमंडलों में दागी यानी आपराधिक इतिहास और मुकदमों में संलिप्त जनप्रतिनिधियों को न आने देने के संबंध में है। सुप्रीम कोर्ट में इस जनहित याचिका पर क्या हुआ है, या हो रहा है पर चर्चा करने के पहले एडीआर एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के कुछ आंकड़ों पर नज़र डालते हैं।

एडीआर, एक एनजीओ है जो राजनीति में अपराधीकरण के संबंध में सर्वेक्षण करके आंकड़े जुटाता है और इन पर अध्ययन करता रहता है। यह संस्था 1999 में गठित की गयी है। नीचे दिए आंकड़े, एडीआर की वेबसाइट से लिये गए हैं। 

लोकसभा चुनाव 2019 में देश की जनता ने 542 सांसदों को चुनकर दिल्ली भेजा है। जिनमें से 353 सांसद एनडीए के हैं। इनमें से भाजपा के 303 लोकसभा सदस्य हैं। लेकिन यह एक दुःखद तथ्य है कि इनमें बड़े पैमाने पर, वे सांसद हैं, जिन पर आपराधिक धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं। हम अक्सर यह चर्चा करते हैं कि, राजनीति का अपराधीकरण न हो, और देश की संसद और विधानमंडलों में, साफ सुथरे पृष्ठभूमि के लोग चुने जाएं। पर हर आम चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधि, न केवल, चुन के आ रहे हैं, बल्कि चुनाव दर चुनाव उनकी संख्या भी बढ़ती जा रही है। 

राजनीति में शुचिता की बात करने वाले राजनीतिक दलों ने भी जब चुनाव में, टिकट देने की बारी आयी तो, उन्होंने भी उन्हें ही प्राथमिकता दी, जिनपर या तो आपराधिक धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं या उनके खिलाफ आर्थिक घोटाले के आरोप लगे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में, चुनकर आए सांसदों में से 233 पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। इनमें से सबसे अधिक सांसद भाजपा के टिकट पर चुनकर संसद पहुंचे हैं। भाजपा के चुनकर आए, कुल 116 सांसदों पर, आईपीसी की विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं और कांग्रेस के 29 सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। बंगाल में टीएमसी ने 22 लोकसभा की सीटें जीती थीं, इनमें से 9 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बसपा के 10 में से 5 सांसदों पर भी आपराधिक मामले चल रहे हैं। सपा के भी पांच सांसदों में से दो पर केस दर्ज हैं। जदयू ने इस बार बिहार में 16 सीटें जीती हैं और उसके 13 सांसदों पर केस दर्ज हैं। बाकी पार्टियों में भी दागी नेताओं की कमी नहीं है। साल दर साल इनकी संख्या बढ़ती ही गई है।

अब एक आंकड़ा देखिए। 

● 2009 के लोकसभा चुनाव में, 543 सांसदों में से 162 सांसद आपराधिक मुकदमे वाले यानी दागी सांसद हैं। यह प्रतिशत के हिसाब से, 30% होता है। 162 में 76 एमपी हैं, जिन पर गम्भीर धाराओं के केस दर्ज हैं। 

● 2014 में कुल 185 सांसद यानि 34% एमपी आपराधिक मुकदमों में मुल्जिम थे, जिसमें से 112 पर तो, गम्भीर धाराएं लगी हैं।

● 2019 के लोकसभा चुनाव में दागी सांसदों की संख्या बढ़ी है। वर्तमान लोकसभा में, 233 दागी सांसद हैं, जिनका प्रतिशत 43% है और इनमें से 159 एमपी गम्भीर धाराओं में मुल्जिम हैं। 

अब एक नज़र उन जनप्रतिनिधियों के आपराधिक इतिहास पर जो मंत्री के पद पर जलवा अफरोज हैं। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार के नए मंत्रिमंडल में अधिकांश मंत्री दागी हैं। कईयों पर हत्या और हत्या के प्रयास जैसे गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। एडीआर ने, यह रिपोर्ट मंत्रियों के चुनावी हलफनामे के आधार पर तैयार की है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय मंत्रिमंडल के 78 मंत्रियों में से 42% पर आपराधिक केस दर्ज हैं। इनमें हत्या जैसे गंभीर अपराध भी शामिल हैं। 24 मंत्रियों, यानि 31% मंत्रियों पर गंभीर आपराधिक केस दर्ज हैं। देश के सबसे कम उम्र के नए गृह राज्यमंत्री निशीथ प्रमाणिक तो हत्या के अपराध, (302 आईपीसी) के आज भी मुल्जिम हैं। तीन अन्य मंत्री जिनमें, अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री जॉन बारला, वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी और विदेश व संसदीय कार्य राज्यमंत्री वी मुरलीधरन पर धारा 307 आईपीसी, हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज है। यहीं यह सवाल उठता है कि दागी सांसदों को मंत्री बनाने की क्या मजबूरी थी ? मंत्रिमंडल गठन, प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है, पर दागी ही क्यों मंत्री बनाये गए, यह एक लोकतांत्रिक सवाल है, जिसे सरकार से पूछा जाना चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर, जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए, 25 अगस्त को, एमिकस क्यूरी ने बताया कि,

” उत्तर प्रदेश सरकार ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित 77 आपराधिक मामलों को, बिना किसी कारण का उल्लेख किये, वापस ले लिया है।  इनमें से कुछ मामले तो, आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों से संबंधित हैं।”

यह जानकारी, कानून बनाने वाले जनप्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज क्रिमिनल मामलों के त्वरित निपटान से संबंधित याचिका की सुनवाई के दौरान दी गयी। यह सूचना, एमिकस क्यूरी वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने एक रिपोर्ट दाखिल कर के जरिये बताया है। उनकी रिपोर्ट में, कहा गया है कि, 

” 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के संबंध में 510 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे। इनमें से 175 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया गया, 165 मामलों में अंतिम रिपोर्ट पेश की गई, 170 मामलों को खारिज कर दिया गया।”

रिपोर्ट में आगे कहा गया है,” इसके बाद राज्य सरकार द्वारा सीआरपीसी की धारा 321 के तहत 77 मामले वापस ले लिए गए। सरकारी आदेश (जीओ) में, सीआरपीसी की धारा 321 के तहत मामले को वापस लेने का कोई कारण अंकित नहीं है।”

जाहिर है, जीओ केवल यह कहता है कि प्रशासन ने पूरी तरह से विचार करने के बाद विशेष मामले को वापस लेने का निर्णय लिया है। शासन द्वारा बहुधा प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द, ‘विचारोपरांत’ अक्सर गूढ़ और जटिल अर्थ समेटे रहता है, जो मुश्किल से ही डिकोड हो पाता है। 

“ऐसे कई मामले धारा 397 आईपीसी यानी डकैती के अपराधों से संबंधित हैं जिनमें आजीवन कारावास तक की सज़ा का प्रावधान है।” 

उन्होंने सुझाव दिया कि उत्तर प्रदेश के उक्त 77 मामलों को, जिन्हें अब वापस ले लिया गया है, उच्च न्यायालय द्वारा सीआरपीसी की धारा 401 के तहत “पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार” का प्रयोग करके, दोबारा ट्रायल किया जा सकता है। केरल राज्य बनाम के अजित, मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी एक रूलिंग के आधार पर यह कानूनी उपचार विद्यमान है, जिसके आलोक में यह कार्यवाही की जा सकती है।”

उल्लेखनीय है कि, सुप्रीम कोर्ट ने 10 अगस्त 2021 को निर्देश दिया था कि, संबंधित राज्य के, उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना,  सांसदों और विधायकों के खिलाफ कोई मुकदमा वापस नहीं लिया जाएगा। हाल ही में केरल विधानसभा हंगामें के मामले (केरल राज्य बनाम के अजीत और  अन्य) में, बेंच ने एमिकस क्यूरी और वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया के इस अनुरोध के अनुसार निर्देश जारी किया था कि, ” धारा 321 सीआरपीसी के तहत किसी भी अभियोजन को वापस लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।  उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना किसी संसद सदस्य या विधान सभा/परिषद के सदस्य (बैठे और पूर्व) के विरुद्ध कोई भी मुकदमा, सरकारें वापस नहीं ले सकती हैं।” 

सुप्रीम कोर्ट को ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि सरकारें अपनी राजनीतिक प्रतिबध्दता और एजेंडे के अंतर्गत, अपने लोगों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले, बिना यह सोचे कि, उनके मुकदमा वापसी के कदम का क्या असर, पुलिस और अन्य लॉ इंफोर्समेंट एजेंसियों पर पड़ेगा, मुकदमे वापस लेने लगी हैं। धारा 321 एक अपवाद के रूप में सरकार को मुकदमा वापस लेने की शक्ति देता है, पर सरकारों ने इसे एक नियम बना लिया है। इसके व्यापक दुरुपयोग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को यह अंकुश लगाना पड़ा कि, बिना संबंधित हाईकोर्ट की अनुमति के सरकारें, दर्ज और विचाराधीन मुकदमों को वापस नहीं ले सकती हैं। यह समस्या केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि अन्य प्रदेशों में भी है। एडवोकेट हंसारिया की रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि,

“उक्त प्रावधान के तहत तमिलनाडु में 4, तेलंगाना में 14 और केरल में 36 और कर्नाटक सरकार ने भी बिना कोई कारण बताए 62 मामले वापस ले लिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि धारा 321 सीआरपीसी के तहत अभियोजन वापसी, जनहित में अनुमेय है और इस प्रावधान का प्रयोग, “राजनीतिक विचारों” के लिए नहीं किया जा सकता है।”

सरकार ने 25 अगस्त को इस विषय में अपनी कुछ कठिनाइयों का उल्लेख किया और सुप्रीम कोर्ट से पुनर्विचार के लिये आग्रह किया। सरकार चाहती थी कि ‘दुर्भावनापूर्ण अभियोजन’ के मामलों में उसे सुप्रीम कोर्ट यह अनुमति दे दे कि, सरकार दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के मामलों में, वह मुकदमा वापस ले सकती है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने 25 अगस्त को राज्य सरकारों को मौजूदा और पूर्व सांसदों/विधायकों के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के आधार पर आपराधिक मामले वापस लेने की अनुमति देने के प्रस्ताव से असहमति जताई है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के आधार पर मामलों को वापस लेने के लिए भी उच्च न्यायालय की मंजूरी की आवश्यकता अनिवार्य है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ” यदि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन है तो, हम मामले वापस लेने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन अदालतों द्वारा इसकी जांच की जानी चाहिए। हम मामलों को वापस लेने का विरोध नहीं कर रहे हैं, लेकिन साथ ही, न्यायिक अधिकारियों द्वारा और उच्च न्यायालयों द्वारा इसकी जांच की जानी चाहिए। न्यायालय और यदि उच्च न्यायालय संतुष्ट हैं तो वे सरकार को वे तदनुसार अनुमति दे देंगे।”

यह कहना है, भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना का।

सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा, उसे पढ़ें, ” वह केवल “दुर्भावनापूर्ण अभियोजन” के आधार पर मामलों को वापस लेने की अनुमति नहीं दे सकता है क्योंकि राज्य सरकारें बिना किसी झिझक के ऐसा कर सकती हैं यदि वे मामलों को वापस लेना चाहती हैं तो। सरकारें जिन मुकदमों को वापस लेना चाहेंगी, उनके शासनादेश में वे बस यह जोड़ देंगी कि, यह मामला, दुर्भावनापूर्ण अभियोजन का है।” 

बेंच ने तब एमिकस क्यूरी से कहा, “आपने खुद कहा था कि सैकड़ों और हजारों मामले हैं जिन्हें वे वापस ले रहे हैं। आप चाहते हैं कि हम ‘दुर्भावनापूर्ण अभियोजन’ शब्द जोड़ने की अनुमति दे दें और यह उचित होगा? यह तो, सरकार द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के किया जा सकता है यदि वे मामलों को वापस लेना चाहें तो वे, बस यह शब्द जोड़ दें कि, अमुक मामला दुर्भावनापूर्ण अभियोजन का है। ऐसा नहीं हो सकता, हम ऐसे वाक्यों की अनुमति नहीं दे सकते, जिनकी आड़ में, सीआरपीसी की धारा 321 की शक्ति का दुरुपयोग होने लगे। हम इस आधार पर भी, उन्हें मामले वापस लेने की अनुमति नहीं दे सकते हैं।”

एडवोकेट विजय हंसारिया ने कहा कि, ” जनहित में धारा 321 सीआरपीसी में, अभियोजन वापसी की अनुमति का प्रावधान है, लेकिन इसका आधार राजनीतिक नहीं हो सकता है। राजनीतिक और अन्य स्वार्थपूर्ण बाहरी कारणों से अभियोजन वापस लेने में राज्य द्वारा, इस प्रावधान के अंतर्गत प्रदत्त शक्ति के बार-बार दुरुपयोग की आशंका रहती है और जैसी की स्टेटस रिपोर्ट बता रही है, यह आशंका सत्य भी साबित हो रही है। 

धारा 321 सीआरपीसी के तहत शक्ति के प्रयोग के संबंध में निम्नलिखित सुझाव भी एमिकस क्यूरी द्वारा दिए गए, जो निम्नानुसार हैं, 

● उपयुक्त सरकार लोक अभियोजक को निर्देश तभी जारी कर सकती है, जब किसी मामले में सरकार इस निर्णय पर पहुंच जाय कि, अभियोजन दुर्भावना से प्रेरित होकर शुरू किया गया था और आरोपी पर मुकदमा चलाने का कोई आधार नहीं है।

● ऐसा आदेश संबंधित राज्य के गृह सचिव द्वारा प्रत्येक मामले के लिए, व्यक्तिगत रूप से, कारणों सहित, दर्ज किया जा सकता है।

● किसी भी श्रेणी के व्यक्तियों या किसी विशेष अवधि के दौरान किए गए अपराधों के अभियोजन को वापस लेने के लिए कोई सामान्य आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।

इस पर बेंच ने कहा, कि, “हमने उस सुझाव को देखा है, हम अभी सहमत होने की स्थिति में नहीं हैं।”  

अब उन मामलों की स्थिति देखें, जो लंबे समय से लंबित हैं। अधिवक्ता और एक अन्य एमिकस क्यूरी, स्नेहा कलिता के माध्यम से दायर की गई एक अन्य रिपोर्ट में विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र में सांसदों / विधायकों के खिलाफ मामलों की लंबित स्थिति के बारे में दर्ज की गई, स्टेटस रिपोर्ट भी शामिल है। विभिन्न राज्यों द्वारा प्रस्तुत स्टेटस रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए एमिकस क्यूरी ने अपनी रिपोर्ट में मुकदमे में तेजी लाने और मामलों के त्वरित निपटान के संबंध में सुझाव दिए हैं।

एमिकस क्यूरी और वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने, 24 अगस्त को, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। यह रिपोर्ट भारत सरकार की 9 अगस्त 2021 की एक स्टेटस रिपोर्ट पर आधारित है। इस स्टेटस रिपोर्ट पर,  भरोसा करते हुए, विजय हंसारिया ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि, “कुल 51 सांसद और 71 विधायक/एमएलसी मनी लॉन्ड्रिंग निवारण अधिनियम, 2002 के तहत विभिन्न अपराधों के उत्पन्न मामलों में आरोपी हैं। इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि “सांसदों के खिलाफ 19 मामले और विधायकों / एमएलसी के खिलाफ 24 मामले हैं, जिनकी सुनवाई में अत्यधिक देरी की जा रही है। इसके अलावा, विशेष अदालतों, सीबीआई के समक्ष लंबित 121 मामलों में से 58 मामले आजीवन कारावास के दंडनीय अपराधों के हैं। इनमे से 45 मामलों में आरोप तक तय नहीं किए गए हैं, हालांकि आरोप पत्र कई साल पहले सम्बंधित अदालतों में दाखिल कर दिए गए हैं।” 

इसी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने त्वरित सुनवाई करने का आदेश जारी किया। 

एमिकस क्यूरी ने ईडी और सीबीआई द्वारा जांचे गए मामलों के निपटारे के लिए सुझाव भी दिए हैं, जो इस प्रकार हैं,

1. जिन न्यायालयों के समक्ष विचारण लंबित हैं, उन्हें सीआरपीसी की धारा 309 के अनुसार सभी लंबित मामलों की दैनिक आधार पर सुनवाई में तेजी लाने का निर्देश दिया जा सकता है।

2. उच्च न्यायालयों को इस आशय का प्रशासनिक निर्देश जारी करने का निर्देश दिया जा सकता है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांच किए गए मामलों से निपटने वाले संबंधित न्यायालय प्राथमिकता के आधार पर सांसदों/विधायकों के समक्ष लंबित मामलों को निपटाएंगे और अन्य मामलों को सुनवाई के बाद ही निपटाया जाएगा इन मामलों में खत्म हो गया है।

3. उच्च न्यायालयों से उन मामलों की सुनवाई करने का अनुरोध किया जा सकता है जहां अंतरिम आदेश एक समय सीमा के भीतर पारित किए गए हैं।

4. ऐसे मामले जहां प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई के समक्ष जांच लंबित है, जांच में देरी के कारणों का मूल्यांकन करने के लिए एक निगरानी समिति का गठन किया जा सकता है और जांच को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए संबंधित जांच अधिकारी को उचित निर्देश जारी किया जा सकता है।

अब अगर सुप्रीम कोर्ट में, इस जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान, सरकार के तर्क और बहस के बिंदु को देखें तो यह साफ झलक रहा है कि, सरकार सुप्रीम कोर्ट की इस बिंदु पर की जा रही सक्रियता से, असहज है। धारा 321 सीआरपीसी के अंतर्गत मुकदमों की वापसी पर वह कोई अंकुश सहन करने के लिये तैयार नहीं है। देश का हर कानून व्यापक जनहित के दृष्टिकोण और लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के प्रति प्रतिबद्ध है। यह धारा भी जनहित में मुकदमों की वापसी का अधिकार सरकार को देती है। पर जनहित के बजाय दलहित जब वरीयता पाने लगता है तो, ऐसी याचिकाएं दायर होती हैं और सुप्रीम कोर्ट को न्याय की मंशा के अनुरूप सक्रिय होना पड़ता है। सरकार दुर्भावनापूर्ण अभियोजन की आड़ में पतली गली के रूप में एक वैधानिक राह तलाश रही थी, पर सुप्रीम कोर्ट ने इस चालाकी को भांप लिया और उसने यह शब्द जोड़ने से इनकार कर दिया। 

यहीं यह सवाल भी उठता है कि कौन तय करेगा कि यह अभियोजन दुर्भावनापूर्ण है ? यदि अभियोजन दुर्भावनापूर्ण है, तो पुलिस की तफ्तीश और चार्जशीट दोनों ही दुर्भावनापूर्ण हुए। फिर सवाल उठता है कि, पुलिस के विवेचक के विरुद्ध, दुर्भावनापूर्ण तफ्तीश और चार्जशीट लगाने के लिये क्या कोई कार्यवाही की गयी है या की जाएगी ? कुल मिलाकर इससे स्थिति और भी जटिल होती जाएगी। सरकार को यह याद रखना होगा कि वह तो खुद ही अभियोजन और एक पक्ष है, और सारे आपराधिक मुक़दमे राज्य बनाम ही चलते हैं। फिर राज्य अपने पक्ष को ही दुर्भावनापूर्ण कैसे कह सकता है ? यदि उसके पास अभियोजन को दुर्भावनापूर्ण कहने के आधार हैं तो वह सम्बंधित हाईकोर्ट में इसे रखे और उनकी अनुमति से धारा 321 सीआरपीसी के अंतर्गत कार्यवाही करे। अब सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से, राजनीति के अपराधीकरण पर कितना अंकुश लगेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा। 

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं। )

  

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