शिक्षक दिवस विशेष: सार्वजनिक शिक्षा की अनदेखी के खतरे

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हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। यह दिन देश के दूसरे राष्ट्रपति और शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के अवसर पर मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन को कई लोग एक अनुकरणीय शिक्षक मानते हैं। इसके अलावा, वे भारतीय दर्शन के महान ज्ञाता थे।

इस विषय पर उनकी किताबें आज भी स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। हालांकि, कुछ आलोचकों का कहना है कि डॉ. राधाकृष्णन ने हिंदू दर्शन पर आलोचनात्मक दृष्टि नहीं डाली और न ही अपने लेखन में दलित-बहुजन परंपराओं को पर्याप्त स्थान दिया।

हालांकि, यहां हमारा उद्देश्य किसी व्यक्ति के कार्यों का विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि देश में सार्वजनिक शिक्षा की स्थिति के बारे में कुछ बातें प्रस्तुत करना है।

यह वास्तव में एक नकारात्मक रूझान है कि जहां देश के कई हिस्सों में मॉल और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स कुकुरमुत्ते की तरह उभर रहे हैं, वहीं किताब और पत्रिकाओं की दुकानें बंद हो रही हैं। उपभोक्तावाद हर जगह हावी है। विद्वान वही माना जाता है, जिसका वेतन अधिक हो और जो बड़े पद पर बैठा हो।

समाज के प्रति उसकी चिंता क्या है और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए वह क्या कर रहा है, इन पहलुओं को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता।

देश के नीति-नियंताओं के मन में एक ही बात है कि शिक्षण संस्थानों के छात्र सोचने-समझने वाले नहीं बल्कि फैक्ट्रियों और कंपनियों में 12 से 14 घंटे काम करने वाले रोबोट निकले।

हिन्दुत्व ताकतों के समर्थक नीति-निर्माता हर दिन अखबारों में लेख लिखकर सरकार को सलाह देते हैं कि उच्च शिक्षा में अधिक बच्चों को प्रवेश दिलाने की नीति भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं है।

उनके अनुसार, सरकार को कला और मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान के स्थान पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देना चाहिए ताकि पूंजीपतियों को सस्ते मज़दूर आसानी से मिल सके।

ऐसी मुनाफाखोरी की मानसिकता न सिर्फ मजदूर-विरोधी है, बल्कि दलित, बहुजन और अल्पसंख्यकों के हितों के भी खिलाफ है। यह किसी से छिपा नहीं है कि असमानता की यह व्यवस्था भारत के कमजोर वर्गों को शिक्षा से दूर रखकर स्थापित की गई है।

ऊंची जातियों ने न केवल उन्हें संसाधनों से वंचित रखा, बल्कि उन्हें ज्ञान की रोशनी से भी दूर रखा। अंग्रेजों के आगमन से पहले, कमजोर वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थानों तक पहुंच बहुत सीमित थी।

लेकिन आधुनिक युग में, जहां उपनिवेशवाद का काला युग भी देखने को मिला, इस युग में सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था भी स्थापित की गई, जहां शिक्षा प्राप्त करने में जाति, धर्म और लिंग की कोई सीमा नहीं थी।

राष्ट्रीय आंदोलन के बाद, जब देश में लोकतांत्रिक ढांचा स्थापित हुआ, तो राज्य को सभी को शिक्षा प्रदान करने और समाज में समानता को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी दी गई। हालांकि आरक्षण लागू करने में ऊंची जातियों की लॉबी ने तमाम तरह की बाधाएं डालीं, ताकि कमज़ोर तबके शिक्षा से दूर रहें।

मगर समानता आंदोलन भी अब पीछे हटने वाला नहीं था। उसने उच्च जातियों के द्वारा खड़े किए कई बाधाओं को दूर करने में सफलता प्राप्त की। यह सच है कि आज भी शिक्षण संस्थानों पर मुट्ठी भर ऊंची जातियों के लोगों का दबदबा है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बहुजन समाज के कई लोगों ने संघर्ष किया है और शिक्षा हासिल करने में सफल रहे हैं।

बहुजन वर्ग के ये पढ़े-लिखे लोग अपने समाज का हक पाने और बाबा साहब अंबेडकर के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

यही कारण है कि देश के ऊंची जाति के नीति-निर्माता नहीं चाहते कि सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की स्थिति में सुधार हो। उन्हें डर है कि अगर इन शिक्षण संस्थानों में बेहतर सुविधाएं होंगी तो आरक्षण के सहारे कमजोर तबके के लोग यहां कब्जा कर लेंगे।

भारत के अगड़ी जाति के शासकों को यह भी डर है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रसार से समाज में जागरूकता आएगी और फिर सामाजिक सुधार का आंदोलन जन्म लेगा।

यही कारण है कि प्रतिक्रियावादी वर्ग सार्वजनिक शिक्षा को बढ़ावा देने से डरता है, और वह चाहता है कि बाजार शिक्षा पर कब्जा कर लें, ताकि केवल अमीरों के बच्चे ही पढ़-लिख सकें और आम जनता अशिक्षित रहे, ताकि मुट्ठी भर शक्तिशाली लोग ही सर्वोच्चता बनाए रख सकें।

यही कारण है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों की उपेक्षा की जाती है। स्थिति इतनी खराब हो गई है कि शिक्षकों की कमी के कारण सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में कक्षाएं छात्रों के लिए बंद की जा रही हैं। देश के भविष्य को निजी शिक्षण संस्थानों की ओर धकेला जा रहा है।

कोचिंग सेंटर बच्चों को सब्जबाग दिखाकर उनसे मोटी रकम वसूल रहे हैं। त्वरित सफलता के नाम पर कोचिंग सेंटर बच्चों को नकली और अप्रामाणिक किताबों की बैसाखी पर चलने की ट्रेनिंग दे रहे हैं।

एक तरफ जहां देश के हुक्मरान भारत को “विश्व गुरु” बनाने का सपना बेच रहे हैं, वहीं बजट बनाते समय सार्वजनिक शिक्षा से जुड़े फंड को कम करने की पूरी कोशिश करते हैं, ताकि लोग परेशान होकर निजी शिक्षण संस्थानों में जाने को मजबूर हो जाएं।

देश का शासक वर्ग चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। लेकिन उन्हें इस बात पर शर्म नहीं है कि भारत से छोटी अर्थव्यवस्थाएं शिक्षा क्षेत्र में हमसे अधिक बजट आवंटित करती हैं।

समाजवादी आंदोलन की लंबे समय से मांग रही है कि बजट का 10 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाए, लेकिन भारत में सार्वजनिक शिक्षा पर केवल 2 प्रतिशत से थोड़ा अधिक खर्च किया जाता है। यही कारण है कि हर जगह शिक्षा का बुनियादी ढांचा खस्ताहाल है।

हालात इतने खराब हो गए हैं कि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और बंगाल के कॉलेज पढ़ाई के अलावा बाकी सब कुछ करते हैं। साल का एक तिहाई हिस्सा प्रवेश लेने और परीक्षा आयोजित करने में खर्च हो जाता है। छात्र और छात्राएं कॉलेज में दाखिला लेते हैं और फीस का भुगतान करते हैं, लेकिन उन्हें अपने कॉलेजों में बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलती हैं।

स्थिति इतनी खराब हो गई है कि अधिकांश कॉलेजों में आवश्यक कक्षाएं और शिक्षक नहीं हैं। कई विभाग तो ऐसे हैं, जहां एक भी शिक्षक नहीं हैं। स्थिति इतनी खराब है कि अधिकांश कॉलेजों में शिक्षकों के बैठने और पढ़ाने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है।

अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों के पुस्तकालय कर्मचारी और धन की कमी के कारण बंद हैं। कई संस्थानों में जल एवं स्वच्छता का उचित प्रबंधन नहीं है। कॉलेज प्रशासन बुनियादी सुविधाएं तो उपलब्ध नहीं करा पा रहा है, लेकिन कॉलेज के भीतर अनुशासन के नाम पर छात्रों, कर्मचारियों और शिक्षकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने में सबसे आगे है।

संक्षेप में कहें तो शिक्षण संस्थानों का माहौल जेल जैसा बन रहा है, जहां आलोचनात्मक सोच का दम घुट रहा है।

(अभय कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास में पीएचडी की है)

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