टूटते सामाजिक ताने बाने के बीच मेल-मोहब्बत की इफ़्तार पार्टी

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हमारा देश बहुलतावादी संस्कृति व सर्वधर्मसमभाव के मूल मंत्र के साथ दुनिया के मानचित्र पर अपनी विशिष्ट पहचान दर्ज़ कराता रहा है। इतिहास में धर्म व जाति के नाम पर बहुत बार तनावपूर्ण स्थिति पैदा हुई। लेकिन, उत्सवधर्मिता का वह देश जहाँ किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु पर भी लोग निर्गुण का गायन-वादन करते हुए उन्हें अंतिम विदाई देते हैं; वहाँ एक धर्म को मानने वाले लोगों के पाक महीने रमज़ान के दौरान देश के किसी कोने से सिसकियां सुनाई पड़ें, कोई अजान पर तंज कसे, तो बहुत अच्छा दृश्य उपस्थित नहीं होता।

संविधान में हर एक नागरिक को धर्म व उपासना की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। और, धर्मनिरपेक्षता के मानी हमारे यहाँ यह कतई नहीं कि हम मंदिरों को जला दें, मस्जिदों को गिरा दें, गुरुद्वारों को ढा दें, गिरजाघरों को तोड़ दें, बौद्ध विहारों को उजाड़ दें, बल्कि हर मतावलम्बी को उसकी उपासना पद्धति के मुताबिक़ पूजा-अर्चना का अख़्तियार है। गंगा-जमुनी तहज़ीब एक सगुण अवधारणा है, और वह हमारे आचरण से प्रदर्शित होनी चाहिए।

फिजूल के कोलाहल के बीच पिछले दिनों पटना में पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के आवास पर बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आयोजित दावते-इफ़्तार को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मोहब्बत, रवादारी व भाईचारा के संदेश के प्रसार के रूप में देखा जाना चाहिए। इस पार्टी में मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा, पूर्व केंद्रीय मंत्री सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन (बीजेपी), सीपीआई के राज्य सचिव रामनरेश पांडेय, लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग़ पासवान, वरिष्ठ समाजवादी नेता शरद यादव के प्रतिनिधि के रूप में उनके पुत्र शांतनु बुंदेला, सीपीआई (एम), सीपीआई (एमएल) समेत लगभग हर दल के नेताओं ने शिरकत की। यह एक सामान्य परिपाटी रही है। लेकिन आज के सियासी माहौल में मीडिया ने इसे भी एक स्पैक्टेकल के रूप में दिखाया।

दरअस्ल, रैनन ठीक कहते थे, “जहाँ लोगों को साझा सुख, साझा दुख व साझा स्वप्न की अनुभूति हो, वहीं पर राष्ट्र की अवधारणा पनप सकती है”। तक़सीम व बिलगाव के भाव के साथ हम शांति, समता व सम्पन्नता की कल्पना नहीं कर सकते, जिस ओर गाँधी से लेकर डॉ. लोहिया तक की बड़ी पैनी नज़र रहती थी। गाँधी ने तो इस देश की जनता को सर्वधर्मसमभाव व आपस में बिरादराना राब्ता के साथ जीने का सलीक़ा सिखाने की तादम-ए-ज़िंदगी कोशिश की। वे जश्ने-आज़ादी से दूर नोआखली में जान की परवाह किये बगैर दंगे को शांत करने के काम में लगे थे।

बिहार में भी जब सीतामढ़ी में दंगे भड़के थे, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने मुख्यमंत्री आवास से मॉनिटरिंग करने के बजाय ख़ुद उस शहर में सप्ताह भर कैम्प किया, सड़कों पर निकलते थे, माइक हाथ में लेकर लोगों से अपील करते थे। यह एक लोकतांत्रिक गणराज्य में हर नागरिक के सम्बद्धता-बोध को ज़िंदा रखने के लिए न्यूनतम अपेक्षित जेस्चर है। उन्होंने दोनों मजहबों के लोगों को कौल दिया कि ईद में आप मुसलमान भाइयों के घर दूध पहुंचाएंगे, और मुसलमान भाइयों, आप इन्हें सेवई खाने के लिए बुलाना। और, लोगों के बीच उनकी भावनात्मक अपील का असर हुआ।

राष्ट्रपिता कहते थे कि लोकतंत्र वह शासन पद्धति है जिसमें हर वर्ग को आगे बढ़ने का समान अवसर मिले। वे भारत को ऐसा देखना चाहते थे जिसमें हर किसी को लगे कि यह उसी का देश है। लेकिन जो मजहब आपस में बैर रखने की सीख नहीं देता, उसी को ढाल बना कर कुछ लोग सत्ता में बैठ कर, सत्ता के संरक्षण से नफ़रत के बीज समाज में बोया करते हैं। स्टेट और रिलीजन के बीच घालमेल नहीं होना चाहिए। मगर, दुर्भाग्य से ऐसी अप्रिय स्थिति अनेकानेक बार पैदा हुई है।

गांधी ने इस देश में मास को पब्लिक बनाने का जतन किया जो सब कुछ जानती हो, अधिकारों और कर्तब्यों के प्रति सजग व सचेत हो। पंडित नेहरू ने नागरिकों को साइंटिफिक टेम्पर से लैस करने का प्रयास किया। लालू प्रसाद की पब्लिक मीटिंग की शायद ही कोई तक़रीर हो जिसमें वो लोगों को सेक्युलरिज़म के बारे में बता कर फ़िरकापरस्त ताक़तों से सावधान रहने के लिए आगाह न करते हों। यह काम राजनेताओं को लगातार करना होगा।

नहीं तो, जनता के दिमाग़ को ऑकुपाय करने का काम बड़ी महीनी से चल रहा है। निरंतर अफ़वाह व मनगढंत क़िस्सों के ज़रिये इतिहास को विद्रूप ढंग से परोसा जा रहा है। लालू प्रसाद को कभी इस बात का भय नहीं व्यापा कि अकलियत समाज की परेशानी की तर्जुमानी करने पर अकसरियत समाज उनसे बिदक सकता है। बल्कि सोशल जस्टिस व सेक्युलरिज़म के मॉडल को एक नज़ीर की तरह उन्होंने दुनिया के सामने पेश किया और धज के साथ बिहार जैसे सामंती हनक वाले सूबे को न्याय-बोध के साथ चलाया।

आज़ादी के बाद जिन अंगुलियों पर कभी नीला निशान नहीं लगता था, उन अंगुलियों ने बैलट पेपर पर मुहर लगाना शुरू किया। आडवाणी के रथ को रोक कर उन्होंने बिहार व देश को सांप्रदायिक आग में झुलसने से बचा लिया। गांधी मैदान में उन्होंने कहा, “इंसान ही नहीं रहेगा, तो मंदिर में घंटी कौन बजाने जाएगा या इंसान ही नहीं रहेगा, तो मस्जिद में इबादत देने कौन जाएगा। मतलब हम अपने राज में दंगा-फसाद फैलने नहीं देंगे। जहाँ फैलाने का नाम लिया तो फिर चाहे राज रहे कि चला जाए, हम इस पर कोई समझौता करने वाले नहीं हैं”। शरद यादव ने 8 अक्टूबर 1990 को पटना की रैली में कहा था, “जनता दल ने अपने वायदे के मुताबिक़ हज़ारों सालों के शोषित-पिछड़ों को आरक्षण देकर न केवल अवसरों में भागीदारी की है, बल्कि हमने उनकी सुषुप्त चेतना और स्वाभिमान को भी जगाने का काम किया है। जो हाथ अकलियतों के ख़िलाफ़ उठे, उन्हें थाम लो। तुम्हारे इस आंदोलन में अकलियतों का साथ कारगर साबित होगा”। इसलिए, आज और भी प्रतिबद्धता के साथ बंधुत्व की भावना को मज़बूत किये जाने की ज़रूरत है।

मिला है तख़्त जो जम्हूरियत में बंदर को

तो उन से क्या सभी जंगल के शेर डर जाएं।

(अह्या भोजपुरी)

पर, क्या कीजै कि इस बीच 20 अप्रैल को जम्मू में सेना के जनसंपर्क अधिकारी लेफ़्टिनेंट कर्नल देवेंद्र आनंद ने डोडा ज़िले में इफ़्तार की तस्वीरों वाला एक ट्वीट किया, “#धर्मनिरपेक्षता की परंपराओं को जीवित रखते हुए, एक इफ़्तार #IndianArmy द्वारा #डोडा ज़िले के अरनोरा में आयोजित किया गया था। # रमजान”। और, एक उन्मादी चैनल सुदर्शन न्यूज़ के संपादक ने उस पर ट्रोल करना शुरू किया, “अब यह बीमारी भारतीय सेना में भी घुस गई है? दुखी”। और, अफ़सोस कि भारतीय सेना की सत्यनिष्ठा पर सवाल उठाने वाले व्यक्ति पर कार्रवाई करने के बजाय सेना के उस ट्वीट को डिलीट कर दिया गया। हम किस ओर जा रहे हैं? ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ। संसदीय लोकतंत्र की सेहत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।

सब हिफ़ाज़त कर रहे हैं मुस्तक़िल दीवार की

जबकि हमला हो रहा है मुस्तक़िल बुनियाद पर।

(अह्या भोजपुरी)

मीडिया का एक बड़ा हिस्सा युद्धोन्माद व धार्मिक उन्माद को हवा देने में मशगूल है। उसने गेटकीपिंग के अपने रोल को लगभग बिसरा दिया है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक बार कहा था, “आज के समाचारपत्र साइकिल दुर्घटना व सभ्यता के विघटन में विभेद कर पाने में लगभग विफल हो रहे हैं”। भारत के संदर्भ में यह बात मास हिस्टीरिया पैदा करने वाली बिजली पत्रकारिता कर रहे चैनलों व हिन्दी के अधिकतर समाचारपत्रों पर लागू होती है। प्रो. राकेश बटबयाल कहते हैं, “जब अन्य धर्म को मानने वाले प्रगतिशील लोगों को टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे फूहड़ व क्रूर दृश्यों को देख कर बुरा लगता है, क्षोभ होता है, तो जिन पर वह उपहास व ज़्यादती की जा रही है, उनके परिवार के लोगों को कैसा लगता होगा!”

हमें भारत के सामाजिक ताने-बाने को महफ़ूज़ रखने के लिए उसी सियासी शऊर की ज़रूरत है जिसे तेजस्वी यादव ने बीते दिनों पटना में दिखाया है। वे विधानसभा में मुखर रहते हैं, और यहाँ तक कहा कि किसी माई के लाल में दम नहीं है कि मुसलमान भाइयों के मताधिकार को छीनने की हिमाकत कर सके। जब संविधान की शपथ लेकर सत्ता में बैठे लोगों को लगातार संवैधानिक दायरे से बाहर छलकते हुए बयानात देते देखते हैं, तो आजिज़ आकर उन्हें इतना स्ट्रॉंग स्टेटमेंट देना पड़ता है।

इसलिए, यह इफ़्तार पार्टी महज इफ़्तार पार्टी नहीं है, बल्कि इस देश की एक बहुत बड़ी आबादी जिसने अपनी मर्ज़ी से इस मुल्क को अपना मादर-ए-वतन चुना; उसके जज़्बात की क़द्र व आईनी हक़-ओ-हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त का कौल भी है। हुक़्मरानों को अपना उत्तरदायित्व नहीं भूलना चाहिए कि वे रहें न रहें, यह देश रहेगा, इसकी मुश्तरका तहज़ीब रहेगी। डॉ. सईदा कितनी सुंदर बात कहती हैं, “जो अपनी आईनी ज़िम्मेदारी न निभा सकता हो, वो अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी क्यों कर निभाएगा!”

आइए, हम आदमी से इंसान बनने के सफ़र पर आगे बढ़ें ताकि समाज की बदसूरती कम कर आने वाली पीढ़ी के लिए इसे जीने लायक़ जगह बना कर जा सकें।

मजहब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे

तहज़ीब सलीक़े की, इंसान करीने के। (फ़िराक़)

(जयन्त जिज्ञासु जेएनयू के शोधार्थी हैं और राष्ट्रीय जनता दल के कार्यकारिणी सदस्य हैं।)

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