Thursday, April 25, 2024

अदालतों ने बजाई आजादी की घंटी

जब-जब हमारी उम्मीद टूटने लगी है, तब तब एक संकेत जरूर उभरा है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य की सुरक्षा कोई गुम हुआ अभियान नहीं है। जब भारत पर विदेशियों का शासन था, तब भारत में यह विचार बहुत देर से आया कि उन्हें भारत पर शासन का कोई ‘अधिकार’ नहीं है, उन्होंने एक तरह से भारतीयों का अपहरण कर रखा है। आपको याद होगा कि अमेरिका में आजादी के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर 4 जुलाई, 1776 को ही हो गए थे।

उसके करीब सौ साल बाद भारत में स्वतंत्रता-संप्रभु भारतीय राज्य- का विचार पनपा था। 1906 के कोलकाता कांग्रेस में दादाभाई नौरोजी ने स्वराज का नारा दिया था, हालांकि उसमें सीमित स्वशासन की बात कही गई थी। 1916 में बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट ने ‘होमरूल’ आंदोलन शुरू किया और ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ‘स्वतंत्र उपनिवेश’ की मांग उठाई थी। लाहौर अधिवेशन में 1929 में कांग्रेस कार्य समिति ने पहली बार पूर्ण स्वराज यानी संपूर्ण आजादी की घोषणा की थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारत ने बहुत सारे विचार फ्रांस और संयुक्त राज्य से लिए थे, खासकर फ्रांसीसी क्रांति के समय ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ की मांग के साथ उठी लड़ाई की आवाज और संयुक्त राज्य के स्वतंत्रता के घोषणापत्र से, जिसमें कहा गया था कि सभी मनुष्य समान पैदा हुए हैं और उनके विधाता ने उन्हें कुछ खास अहस्तांतरणीय अधिकारों से संपन्न बनाया है, जिसमें उनके जीवन जीने, स्वतंत्रता और अपनी खुशहाली के लिए उद्यम का अधिकार शामिल है। उसमें मुख्य शब्द था स्वतंत्रता।

आजादी पर हमला
स्वतंत्र भारत के इतिहास में इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि असहमति की आवाजों या विरोध प्रदर्शनों या अवज्ञा को दबाने के लिए राज्य की शक्तियों का इतने संगठित तरीके और बेरहमी से इस्तेमाल किया गया हो। आपातकाल (1975-77) के समय राजनीतिक विपक्ष निशाने पर था। इस वक्त असहमति की हर आवाज निशाने पर है- चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, चाहे वह कलाकारों की हो या फिर एकेडेमिक लोगों की। सिंघु और टिकरी बार्डर पर किसान कृषि कानून के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं, न कि एक राजनीति पार्टी के रूप में भाजपा का। उन्हें जांच एजेंसियां अपना निशाना बना रही हैं।

इस वक्त दलितों पर बढ़ रहे अपराधों, भेदभाव, महंगाई, सूचनाओं से इनकार, प्रदूषण फैलाने वालों, भ्रष्टाचारियों, पुलिस अत्याचारों, एकाधिकार, क्रोनी पूंजीवाद, मजदूरों को नकारने, अधिकारों के हनन और ध्वंसकारी आर्थिक नीतियों आदि के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं। असहमति की हर आवाज या आंदोलन को भाजपा सरकार के विपक्ष के रूप में देखा जा रहा है और उन सबको दबाने के प्रयास हो रहे हैं।

दिशा रवि किसानों के आंदोलन का समर्थन कर रही थीं। किसी भी रूप में वह किसी राजनीतिक दल की कार्यकर्ता नहीं हैं। उसके बावजूद उसे राष्ट्रद्रोही के रूप में पेश किया गया। उसके पहले एक पत्रकार सिद्दीक कप्पन को, जो हाथरस में बलात्कार के बाद मार डाली गई पीड़िता के बारे में खबर करने गया था, उसे स्थापित सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश रचने वाले के रूप में प्रचारित किया गया।

नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले छात्रों और महिलाओं की छवि भारत की अखंडता और संप्रभुता को खंडित करने का प्रयास करने वाले टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में बना दी गई थी। नवदीप कौर मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थीं, मगर उस पर दंगा फैलाने और हत्या के प्रयास का आरोप लगाते हुए उसे जेल भेज दिया गया।

एक चुटकुले को दिलचस्प अभिव्यक्ति मानने के बजाय उससे धार्मिक भावनाओं को आहत होने वाला माना गया और कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी को धार्मिक भानवाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में जेल भेज दिया गया। आजादी के हर पहलू पर हर तरह से हमला होता साफ नजर आ रहा है।

निश्चेष्ट प्रेक्षक
अदालतें, खासकर निचली अदालतें, निश्चेष्ट प्रेक्षक बनी रोजमर्रा की तरह गिरफ्तारियों को उचित ठहरा देतीं या फिर बिना कुछ सोचे-विचारे लोगों को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में भेज दिया करती थीं। उनमें देश के स्थापित कानूनों का पालन नहीं किया जाता था। राजस्थान राज्य बनाम बालचंद मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा कि मूल नियम जमानत का होना चाहिए न कि जेल भेजने का।

मनुभाई रतीलाल पटेल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया कि एक मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि ‘…जब भी उसके सामने पुलिस हिरासत या फिर न्यायिक हिरासत की मांग करते हुए वारंट जारी करने के पक्ष में तर्क दिए जाएं तो वह उसमें अपने दिमाग का इस्तेमाल करे। किसी भी तरह की हिरासत की कोई जरूर नहीं होती।’ मगर इन विधायी निर्देशों के बावजूद अदालतें बेखयाली में लोगों को जेल भेजती रहती हैं।

हवालात भेजने और बंदियों पर लंबे समय तक सुनवाई चलाते रहना स्वतंत्रता के विरुद्ध क्रूर हिंसा का एक आख्यान है। हर एक या दो महीने पर बंदियों को अदालत में अगली तारीख मिलती रहती है। कभी जांच अधिकारी उपस्थित नहीं होता या वादी अनुपस्थित रहता है, कभी वादी का गवाह नहीं आता या मेडिकल रिपोर्ट तैयार नहीं हुई होती, कभी जज के पास समय नहीं होता या जज छुट्टी पर होता है, अक्सर इनमें से कोई न कोई बात होती रहती है। बंदी अगली ‘तारीख’ लेकर फिर जेल लौट आता है और उसकी उम्मीद धुंधली होती जाती है।

ऊपरी अदालतों में भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं है: सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में हजारों की संख्या में जमानत की अर्जियां लटकी पड़ी हैं। ऐसा शायद ही कभी होता है कि एक सुनवाई में उनमें से किसी का निपटारा हो जाता हो। मैंने देखा कि उसकी सबसे बड़ी वजह यह होती है कि जांच एजेंसी (पुलिस, सीबीआई, ईडी, एनआईए आदि) जमानत अर्जियों का जिदपूर्वक विरोध करती हैं।

आश्वस्त करते फैसले
अर्णब गोस्वामी इसका एक बड़ा सबक है। सर्वोच्च न्यायालय (न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़) ने हमें याद दिलाया कि ‘अगर एक दिन के लिए भी आजादी का अपहरण कर लिया जाए तो वह एक दिन बहुत सारे दिनों के बराबर होता है।’ मुझे इस बात की खुशी है कि हमारे बहुत सारे जज जांच एजेंसियों के जिद्दी विरोध को बहुत लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं करते और वे स्वतंत्रता के पक्ष में सोच-विचार करते हैं।

बयासी वर्षीय कवि वरवरा राव के मामले में बॉम्बे हाइ कोर्ट ने उन्हें मेडिकल आधार पर जमानत दे दी। दिशा रवि मामले में जज राणा ने लोकतंत्र के मूल तत्त्व को रेखांकित किया- सरकार की नीतियों के प्रति निष्पक्ष रूप से विचारों की भिन्नता, असहमति, मत-पार्थक्य, प्रतिरोध या नापसंदगी जाहिर करना विधिसम्मत उपकरण हैं।

अदालतों ने आजादी को सुरक्षित बनाए रखा है, पर मुझे लगता है कि दूसरा स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो चुका है और जो लोग जेलों में निराश नजर आ रहे हैं, वे एक दिन आजादी की हवा में सांसें ले सकेंगे।

[इंडियन एक्सप्रेस में ‘अक्रॉस द आइल’ नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह ‘दूसरी नजर’ नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।]

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles