भारत की अर्थव्यवस्था जिस हालात में पहुंच चुकी है, उसे अब कई सारे नाम दिये जा रहे हैं। लेकिन, इस बात से अर्थव्यवस्था की राजनीति पर कोई फर्क पड़ता दिख नहीं रहा है। इसे आप याराना पूंजीवाद कहिए या पतित साम्राज्यवाद, इससे विश्लेषण का वह नजरिया मिलना मुश्किल है जिससे आप ठीक-ठीक कह सकें कि यह है मूल संकट और यह है इसका असल विकल्प। यह ठीक उसी तरह की बात है जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में बजट पेश किया तब बहुत सारे अर्थशास्त्रियों ने सवाल उठाया कि यह वास्तविक संदर्भों में बजट है ही नहीं। लेकिन, यह संसद में बजट बनकर पास हुआ। यह सिर्फ बहुसंख्या का मसला नहीं था जो संसद में बहुमत, ध्वनिमत की तरह गिन लिया जाता है। भारतीय संसद में कई ऐसे बजट पेश हुए जिन्होंने अर्थव्यवस्था की नींव उखाड़कर एक नये अर्थव्यवस्था का आगाज कर दिया। उस समय बहुंसख्या न होने के बावजूद यह बहुमत, ध्वनिमत की पीठ पर सवार होकर पास हो गया। इसलिए इन बातों का भी कोई अर्थ नहीं रह गया है कि बजट की परिभाषा क्या है।
आप कह सकते हैं कि इस सरकार का अर्थशास्त्र कमजोर है। लेकिन, इनकी राजनीति तो पक्की है। ऐसे में दोनों को अलग-अलग कैसे किया जा सकता है। सच तो यह है कि शुद्ध अर्थों में अर्थशास्त्र नाम की कोई चीज होती भी नहीं है। यह शुद्धतः बीसवीं सदी में विश्वविद्यालयों में ही पैदा हुआ। अन्यथा बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी इसे राजनीतिक-अर्थशास्त्र के नाम से ही जानता, पढ़ता और पढ़ाता था। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि आदिम से आदिम राज्य में भी कराधान की व्यवस्था उत्पादक या खरीददार के द्वारा नहीं की जाती थी, बल्कि इसका अधिकार राज्य के पास था।
आधुनिक राज्य बनने तक सिर्फ कर का ही निर्धारण ही नहीं बल्कि इस पूरी संरचना की कार्यवाहियों का निर्णय भी राज्य करने लगा। ऐसे में अर्थव्यवस्था का निर्णय राज्य के हाथों में ही निहित होता है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अर्थव्यवस्था के मालिक राज्य के अंग होते हैं और राज्य इस अर्थव्यवस्था की रगों में घुसा रहता है। इस संदर्भ में बाजार और पूंजी की राजनीतिक दखलंदाजी से आजादी के बारे में चाहे जितने दावे कर लिये जायें, इन दावों के पीछे राज्य के छुपे हुए हित ही मुख्य होते हैं। आज के हालात भी इसी तरह के हैं। इसीलिए, अर्थव्यवस्था के हालात के बारे में बात करने के लिए जरूरी है राज्य की नीतियों की पड़ताल की जाये।
एक ऐसी ही महत्वपूर्ण पड़ताल द वायर के लिए करन थापर ने 17 फरवरी, 2022 को भारतीय रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर रघुराम राजन के साथ बातचीत में की है। इस साक्षात्कार में रघुराम राजन भारत की भविष्य की अर्थव्यवस्था के बारे में बात करते हुए जोर देते हैं कि हमें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि हमारी नीतियां इसके अनुकूल नहीं हैं। उनके अनुसार हमारे भीतर जो लोकतांत्रिक जीन है उसमें चलना मुश्किल है। क्योंकि इसके लिए श्रमिकों को दबाना पड़ेगा, कम वेतन देना पड़ेगा, परिवारों की बचत पर कम पैसे देना पड़ेगा, जो हम सबसे नहीं हो सकेगा।
ऐसा सर्वशक्तिशाली देश कर पा रहे हैं। इस रास्ते से हमारे चलने का अर्थ होगा धीमे और लंबे समय तक चलना। इसी तरह वे भूमि अधिग्रहण की समस्याओं के बारे में बात करते हैं। इन समस्याओं को वह सेवा क्षेत्र पर जोर देकर हल करना चाहते हैं। इसके साथ ही वे मैन्युफैक्चरिंग की बात करते हैं लेकिन परम्पराओं पर आधारित उत्पादन, इसे आप क्राफ्ट भी कह सकते हैं, पर जोर देते हैं।
रघुराम राजन ने जिन समस्याओं के बारे में बात की है, उसे और अधिक विस्तार से देखना हो तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सबसे करीबी रहे अर्थशास्त्री और मंत्री मोंटेक सिंह अहलूवालिया की पुस्तक ‘बैकस्टेज’ में देख सकते हैं। 1990 के दौर की आर्थिक नीतियों को बनाने और धीमे और लंबे रास्ते पर चलते हुए यह 2004 से 2014 के बीच भी पूरा नहीं हो सका। आहलूवालिया भारतीय अर्थव्यवस्था के आगे बढ़ने के लिए जिन समस्याओं को गिनाने में लग जाते हैं वे मूलतः श्रम, भूमि अधिग्रहण, वित्तीय संस्थानों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने करन थापर के साथ इसी पुस्तक पर बात करते हुए व्यापक जनता के हितों के संदर्भ में ट्रिकल डाउन थियरी को विकास के लाभांश वितरण के सिद्धांत के रूप में उत्साहित होकर बताते हैं।
कांग्रेस सरकार के समय में यह लाभांश अर्थव्यवस्था की ‘स्वाभाविक’ गति का परिणाम थी तो आज की मोदी सरकार इसे सीधे लाभार्थी में बदल देने पर तुली हुई है जिससे साफ हो जाता है कि यह स्वाभाविक नहीं यह बल्कि सरकार की नीतियों का परिणाम है। बहरहाल, अर्थव्यवस्था की नीति पर दोनों अर्थशास्त्रियों की भाषा, उदाहरण, कहानियां एक जैसी हैं। जैसे नेहरू युग का दौर, इंदिरा गांधी के समय की नौकरशाही का अर्थव्यवस्था पर कब्जा आदि। लेकिन इसमें एक मजेदार कहानी एम्बेसडर कार और एचएमटी घड़ी की आती है। इसमें से एक मसला लोगों की गतिशीलता से जुड़ा हुआ है और दूसरा समय की पांबदियों का। आज इन दोनों का निजीकरण हो चुका है। कोरोना काल में लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही गतिशीलता और समय दोनों ही ठहर गया था।
मजदूरों और आम मेहनतकश लोगों के लिए न तो इस गति का कोई अर्थ रह गया और न ही समय का बोध। इनके लिए आज भी फैक्टरी गेट तक पहुंचने तक का ही महत्व होता है। इन उदाहरणों को लेकर की गई व्याख्या में मध्यवर्ग और उसके ऊपर का समाज विद्यमान होता है। विकल्प सुझाव भी इसी से जुड़कर आता है। मोंटेक सिंह अपनी पुस्तक में आज के आर्थिक संकट पर एक तुलनात्मक पक्ष ही पेश करते हैं। लेकिन रघुराम राजन साफ शब्दों में विकल्प चुनकर आगे बढ़ने के लिए कह रहे हैं।
यहां समस्या यही है कि क्या भारत में, यदि हम 1990 के बाद के दौर को लें तब राज्य क्या कम सर्वशक्तिशाली था? क्रिस्टोफर जैफरलो की पुस्तक मोदी ईयर्स को देखें, तब यही लगता है कि पूरा भारत एक पार्टी और उसके संगठनों की एक ऐसी गिरफ्त में है कि यदि यह गिरफ्त भी छूटे तो उसके गहरे दाग बने रह जायेंगे। आकार पटेल की पुस्तक ‘प्राइस ऑफ द मोदी ईयर्स’ में आज भारतीय सभ्यता के सारे आधुनिक सूचकांक घोर पतन की अवस्था में है। और, यदि आप नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार को याद करें जिसमें मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे, तब के आंकड़ों बहुत बदतरीन नहीं थे। लेकिन, इन आंकड़ों को खुद सरकार के नुमाइंदों ने इस तरह व्याख्यायित किया था कि यदि सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो देश तबाही के गर्त में गिर जायेगा।
और, जब गड्ढे से देश को निकालने के लिए जो कुछ किया गया, उन प्रयासों में संसद और संविधान के बीच का रिश्ता टूटने लग गया है और यह भी कि अर्थव्यवस्था पर बस चंद लोगों का अधिकार हो गया है। राजनीति में उन्माद की जो भूमिका बनी उससे जनता को हर तरह के दंगों में झोंक दिया गया। जनता की लामबंदियों के नाम पर अर्थव्यवस्था की नीतियां जितनी सुचारू रूप से चली हैं, वह भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज रहेगा। भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्र को पढ़ाते समय मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी परम्परागत उत्पादन पद्धतियां न सिर्फ नीतियों के स्तर पर बर्बाद कर दी गईं, बल्कि उसे दंगों की भेंट चढ़ा दिया गया। खेत पर दावेदारी की राजनीति का अंत करने के लिए सिर्फ नीतियां ही नहीं बनी बल्कि उनकी हताशा को पूरा करने के लिए धर्म का एक नया झुनझुना पकड़ाया गया।
जनता के लिए नया राजनीति अर्थशास्त्र लाया गया। आज भले ही दावा किया जा रहा है कि 2004 से 2014 के बीच की स्थिति बहुत बेहतर थी, ऐसा कहना तुलनतात्मक रूप से सही लग सकता है, लेकिन सच्चाई कहीं अधिक बदतर थी। खासकर, अर्थव्यवस्था की नीतियों को लागू कराने में जिस तरह से सैन्य सेवाएं ली गई और समूचे मध्य भारत को एक युद्धक्षेत्र में तब्दील कर दिया गया, उसे क्या हम सर्वशक्तिशाली की श्रेणी में नहीं रखेंगे? ये सैन्य अभियान एक भीषण शुरूआत थे, जो आज भी जारी हैं। ये विशुद्ध रूप से अर्थव्यवस्था की सेवा के लिए ही लगाये गये। और, इनके साथ राज्य की सुरक्षा के अधिनियम, कानून जोड़े गये, जिससे राज्य के निर्णय की स्वायत्तता कानून के घेरे में आ जाये। न्यायपालिका की भूमिका यहीं से शुरू होती है। कानून की डोर से बंधी दो स्वायत्त संस्थाएं कभी भी एक दूसरे को नकार देने के लिए तैयार दिखती हैं, लेकिन सच्चाई यही रही है संसद इन मामलों में सर्वोपरि रहा है। आज भी है। जो लोकतंत्र की हिमायत करते हैं, वे संसद के सर्वोपरि होने को कैसे नकार सकते हैं?
आप इसे बहुसंख्यावादी लोकतंत्र नाम देना चाहते हैं, तो दे सकते हैं। लेकिन, यह संरचना ऐसी ही है। 1990 के दौर में अल्पसंख्यक सरकार होने के बावजूद भी ऐसे निर्णय लिए गये जो निश्चय ही संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ थे। और, यह सबकुछ अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए किया जा रहा था। खासकर, अर्थव्यवस्था में बाजार और पूंजी की आजादी के लिए राज्य एक सर्वशक्तिशाली सत्ता की तरह संसद में अल्पसंख्या होने के बावजूद निर्णय ले रहा था और न्यायपालिका में न्याय की अवधारणा में जो अपराध था, नये अधिनियमों और कानूनों में अब सम्मानजनक शब्द बना दिया गया था। खासकर, श्रम कानून और मुद्रा संबंधी व्यापार प्रावधान। उस समय गांधीवादियों तक ने इसे पुर्नउपनिवेशीकरण का नाम दिया और आंदोलन चलाया।
इसी दौरान 1970 के दशक में जनता के जनवादी राज्य की अवधारणा पर खड़ा हुआ नक्सलवाद 2000 तक जनता के जनतान्त्रिक सरकार के दावों में बदल गया। भारतीय राज्य की राजनीति अर्थशास्त्र के बरक्स एक ऐसी बहस उठ खड़ी हुई, जिसकी अनुगूंज संसद तक में सुनाई देने लगी। खुद सरकारी रिपोर्टों में जनता की अर्थव्यवस्था और राजनीति में भागीदारी की समस्या पर बातें की गईं। नक्सलवाद एक राजनीतिक ताकत की तरह सरकार के साथ वार्ता में उतरा। मुख्य समस्या हिंसा की रही। जाहिर सी बात है राज्य इसका नियंत्रण सिर्फ अपने हाथ में रखना चाह रहा था। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि आज जो हिंसा राज्य के बाहर की ताकतों द्वारा हो रही है, क्या उसमें राज्य की भूमिका है? क्या यह सब उसकी सहमति से हो रही है? इसका विश्लेषण जरूर होना चाहिए। यह इतना भी गुजरा समय नहीं है, कि उसकी यादें मिट जायें और निरन्तरता के पक्ष को हम न देखें।
मोदी नेतृत्व की सरकार का दूसरे दौर में राज्य और अर्थव्यवस्था के बीच के रिश्तों में अतीत की निरन्तरता भी है और वह संकट भी है जो मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे दौर के अंतिम समय में आ खड़ा हुआ था। निश्चित ही यह एक ऐसा गंभीर संकट है जिसका हल निकालने के लिए जिस तरह के निर्णय क्षमता की जरूरत है वह इसमें दिख नहीं रहा है। इन दोनों सरकारों की यदि हम तुलना करें तो मनमोहन सिंह नेतृत्व राज्य की भूमिका को लेकर ज्यादा सतर्क था। 2004 में सरकार में आने के शुरूआती दिनों में ही मनमोहन सिंह ने देश की आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़ा खतरा का मसला उठा दिया था। यह ठीक मोदी काल के देशद्रोह जैसा नहीं था। इसमें आज जैसा उन्माद नहीं था।
यह गरीब, मध्य और उच्च मध्यवर्ग को सैन्य अभियानों के प्रति नरमी और रूचि का भाव पैदा करने और संपत्ति हासिल करने के लिए कड़ा निर्णय लेने और लोकतंत्र में भविष्य को नत्थी कर देने वाला जुमलों से भर देने की संभावनाओं को खोलता था। ऐसा नहीं था कि मनमोहन सिहं की सरकार और कांग्रेस पार्टी को भाजपा के नेतृत्व में मोदी और उनके सहयोगियों की बढ़ती भूमिका उन्हें दिखाई नहीं दे रही थी। ऐसा भी नहीं था कि वे आरएसएस के फैलते प्रभावों और उनके कारनामों से अनभिज्ञ थे। ऐसा नहीं था कि वे इस संकट से परिचित नहीं थे। यह स्पष्ट था कि कांग्रेस के न रहने पर भाजपा का आना तय था और भाजपा अपने नये ऐजेंडों के साथ, नये नेतृत्व के साथ संसद और राज्य पर काबिज होने वाली थी। लेकिन, आंतरिक सुरक्षा के खतरे की व्याख्या आज जो की जा रही है क्या उसमें से नक्सलवादी दूसरे नम्बर पर आ गये हैं? हमें ऐसी बात अभी तक सुनाई नहीं दे रही है। मोदी सरकार कांग्रेस मुक्त भारत की बात तो करती है लेकिन क्या उसके लिए आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा का मसला बदल गया है? सैन्य अभियानों के नजरिये से देखा जाय तो ऐसा दिखता नहीं है।
यदि हम अर्थशास्त्रीयों की नजर से देखें, तब आंतरिक सुरक्षा के मसलों में नक्सलवाद बहस के केंद्र में नहीं है। दरअसल, इस मसले पर जब भी बहस होगी एक नये तरह के वैकल्पिक राजनीति अर्थशास्त्र की बात होगी। यहां तक कि जब एक गांधीवादी या अंबेडकरवादी भी बात करेगा तो वर्तमान भारत की अर्थव्यवस्था में उन तब्दिलियों के बारे में बात करेगा जिसमें जन की भूमिका सिर्फ श्रमिक की तरह नहीं एक राजनीतिक हैसियत की तरह भी हो। ऐसे में इस लोकतंत्र में चलते हुए उत्पादन की उस व्यवस्था में श्रमिकों, किसानों, आदिवासियों की भूमिका को परिभाषित करने का दबाव आएगा। यह न तो मोदी सरकार के लिए स्वीकार्य रह गया है और न ही मनमोहन सिंह को स्वीकार्य था।
हद से हद इस बात पर सहमति बन सकती है कि इन समुदायों पर कम दबाव बने और पूंजी और मुनाफे का वाल्यूम भी बढ़ता रहे। जैसा कि रघुराम राजन अपने साक्षात्कार में सुझाते हैं। इन अर्थशास्त्रियों में एक अपवाद के तौर पर अनिंद्यो चक्रवर्ती और प्रो. अरूण कुमार हैं। अनिंद्यों भारत की अर्थव्यवस्था में आये संकट का हल ‘‘एक और नेहरू की जरूरत’’ में देखते हैं जो भारत समाजवाद 2.0 की अवधारणा पर काम कर सके। प्रो. अरूण कुमार डेवलेपमेंटल इकॉनमी के सिद्धांत में जनता के पक्ष में अधिक खर्च पर जोर देते हैं। आप उनमें कीन्स को देख सकते हैं लेकिन उनका जोर गांधीवादी मानवतावाद के अधिक करीब है।
इन विकल्पों में एक बात निहित है कि अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप इस तरह हो जिससे आय का वितरण अधिकतम हाथों में जाये। जिस तरह कर वसूलने का अधिकार राज्य के पास है, आय का वितरण भी राज्य के पास है। यदि राज्य दोनों ही मामलों में जितना ही भेदभाव पूर्ण रवैया अख्तियार करेगा, उसके ऊपर राजनीतिक आरोप भी उतना ही मजबूत होता जाएगा। आज इस तरह के आरोपों की धमा- चौकड़ी में राजनीति और लोकतंत्र चाहे जितना मजबूत या कमजोर बना हो अर्थव्यवस्था के निर्णयों के दायरों से जन उतना ही बाहर होता गया है। जन राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही मोर्चों पर बेहद कमजोर स्थिति में गया है।
आज जब रघुराम राजन लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए इसी जन के श्रम, जमीन, संगठन, परिवार और बचत पर और दबाव न बनाने और मुनाफे के लिए सेवा क्षेत्र में काम करने की जब सलाह दे रहे हैं, तब आप सोच सकते हैं इस लोकतंत्र में कितना लोक और जन रह गया है। जी हां, वह जन को और अधिक तबाह न करने की सलाह दे रहे हैं। और, जनता का निम्न और मध्यवर्ग अपनी तबाही के फायदे गिना रही है। जिसे आज लोकप्रिय भाषा में भक्त नाम दिया गया है। इसीलिए यह जानना भी जरूरी है कि भारतीय राज्य पर काबिज सरकारें कत्तई नीरो नहीं हैं। नीरो की आत्मा कहीं और ही आ बसी है। ऐसे में यदि विकल्प में एक ऐसी अर्थव्यवस्था पेश की जाये जिसका निर्णय एक ऐसे राज्य में निहित हो जिसके केंद्र में जन या लोक हो, वह कर और आय के बारे में निर्णय करे, …तब क्या यह नये तरह का राज्य होगा। एक राज्य का विकल्प एक दूसरा राज्य।
निश्चय ही आधुनिक राष्ट्र राज्य की अवधारणा में राज्य की संप्रभुता सर्वोपरि है। उसके अंदर एक और राज्य की संभावना जीवन मरण का सवाल बन जाता है। ऐसा लगता है कि आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे की जो अवधारणा थी, उसमें यह संदर्भ निहित था। ठीक वैसे ही जिस तरह मध्य-भारत का कच्चे माल का दोहन भी इसमें निहित था। आंतरिक सुरक्षा में ये दोनों सवाल अंतर्निहित थे। यही इसका राजनीतिक अर्थशास्त्र था। आज इसका दायरा फैलता जा रहा है। अब सैन्य अभियान दंगों के नियंत्रण के नाम पर शहरों, यहां तक कि राजधानी में कराये जा रहे हैं। संकट को राष्ट्र, देश, धर्म, क्षेत्र, संस्कृति, पहनावा, पहचान आदि के साथ उलझा दिया गया है।
निश्चय ही जब अर्थव्यवस्था का संकट राजनीति हल करने में नाकामयाब होने लगे और उसे राजनीतिक धरातल पर उलझाने लगे तब राजनीति अर्थव्यवस्था से थोड़ी आजादी लेती है, और हल करने के दावे एक नये तरह के राजनीतिक अर्थशास्त्र में बदल जाते हैं। राजनीति और अर्थशास्त्र के चिंतक निश्चित ही इन समस्याओं से जूझ रहे हैं। विकल्प का दायरा भी इन्हीं चिंतनों के साथ जुड़ा हुआ है। इन दायरों में जन की भागीदारी होनी ही चाहिए। आप कब तक इसे राजनीतिक अर्थशास्त्र से बाहर रखेंगे। जबकि सबकुछ उसी के नाम पर हो रहा है और उसके बिना आप आधुनिक नहीं कहे जा सकते।
– जयंत कुमार (जयंत आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)
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