मुफ्त का झांसा: क्या हम सच में मुफ्त पा रहे हैं?

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आपका जन्म हुआ, आपकी आंखें खुलीं, और आपको सिखाया गया कि हर चीज सरकार की कृपा से मिलती है। पानी, बिजली, खाना-ये सब आपके मौलिक अधिकार थे, लेकिन उन्हें सरकार की दया बता दिया गया। पहले जो आपका हक था, आज वही चीज़ आपको एहसान की तरह दी जा रही है। यह सिर्फ राजनीतिक खेल नहीं, बल्कि सुनियोजित रणनीति है-पहले छीनो, फिर टुकड़ों में बांटो, और फिर जनता को एहसास दिलाओ कि वे ‘मुफ्तखोरी’ पर पल रहे हैं।

संविधान ने कहा था कि हर नागरिक को जीवन जीने के लिए जरूरी संसाधन मिलेंगे-लेकिन आज यह परिपाटी बदल दी गई है। जो पहले सरकार की जिम्मेदारी थी, उसे अब ‘मुफ्त योजना’ कहा जा रहा है। एक नेता कहता है कि वह मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी दे रहा है, जबकि यह सब पहले से ही आपके मौलिक अधिकारों में था।

दूसरी ओर, एक और पार्टी कहती है कि वह गरीबों को मुफ्त अनाज दे रही है, जबकि यह खाद्य सुरक्षा थी, कोई खैरात नहीं। यह शब्दों का खेल है, जहां आपके अधिकारों को ही आप पर की जाने वाली दया बना दिया गया है।

असल में, यह सिर्फ आर्थिक नीति नहीं, बल्कि मानसिक युद्ध है। पहले लोगों को यह महसूस कराया गया कि वे अपने अधिकारों के लिए योग्य नहीं हैं। फिर जब वही अधिकार एक ‘उपहार’ की तरह दिया जाने लगा, तो जनता को इस एहसान के तले दबा दिया गया। यह नई तरह की आधुनिक दासता है-जहां जनता को अधिकारों की भाषा से हटाकर कृपा और दान की भाषा में ढाल दिया जाता है।

सोचिए, अगर किसी इंसान से हर दिन एक रोटी छीनी जाए और फिर अचानक एक दिन उसे वही रोटी लौटा दी जाए, तो क्या उसे कृतज्ञता महसूस करना चाहिए? यही जनता के साथ हो रहा है। पहले संसाधनों का निजीकरण किया गया, फिर जब थोड़ी-सी राहत दी गई, तो उसे राजनीतिक प्रचार बना दिया गया।

असल में, यह मुफ्तखोरी की संस्कृति का मामला नहीं है, बल्कि शक्ति की राजनीति का खेल है। जनता को उसके हक से हटा दिया गया है, और जब कभी वह अपने अधिकारों की बात करती है, तो उसे ‘मुफ्तखोरी’ का नाम दे दिया जाता है। यह सबसे बड़ा धोखा है। जहां सरकारें पहले लूटती हैं, फिर टुकड़ों में लौटाती हैं, और जनता को यह सिखाया जाता है कि वह एहसान के बोझ तले झुकी रहे!

दावा किया जाता है कि मोदी सरकार गरीबों को मुफ्त अनाज दे रही है! क्या शानदार काम है! क्या अद्भुत योजना है! लेकिन ज़रा ठहरिए, इस योजना का असली जन्मदाता कौन है? क्या यह सच में मोदी सरकार की कोई मौलिक योजना है, या फिर कांग्रेस सरकार के बनाए ढांचे को ही नए नाम के साथ बेचा जा रहा है?

2013 में जब मनमोहन सिंह की सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) लागू किया, तब इस देश के गरीबों को पहली बार यह कानूनी अधिकार मिला कि सरकार उन्हें अनाज देगी। ₹3 प्रति किलो चावल, ₹2 प्रति किलो गेहूं और ₹1 प्रति किलो मोटा अनाज।

क्या इससे पहले किसी सरकार ने इतनी साहसिक योजना चलाई थी? नहीं! यह कांग्रेस सरकार की योजना थी, जिसने देश के दो-तिहाई लोगों को खाद्य सुरक्षा की गारंटी दी। और इन सबके पीछे भी उन्हीं वामपंथियों की सोच थी जिन्हें आज गाली दे दे कर भारतीय मीडिया से बेदखल कर दिया गया है, जबकि सबसे बड़े पूंजीवादी देश अमेरिका की मीडिया में भी ऐसा कोई दिन नहीं होता जब वामपंथियों की चर्चा न होती हो। 

सुप्रीम कोर्ट ने गरीबों को सस्ता और मुफ्त अनाज देने को लेकर कई बार सरकार को निर्देश दिए थे। खासतौर पर 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने यूपीए सरकार (कांग्रेस नेतृत्व) को आदेश दिया था कि गोदामों में सड़ रहे अनाज को गरीबों में मुफ्त बांटा जाए।

2010 के राइट टू फूड केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कहा कि गोदामों में अनाज सड़ने देने से बेहतर है कि उसे गरीबों में मुफ्त बांटा जाए। जस्टिस डी. के. जैन और जस्टिस पी. सदाशिवम की बेंच ने कहा था कि भूख से मरते लोगों को देखते हुए यह अमानवीय है कि अनाज गोदामों में सड़ता रहे। 2010 वाले केस में याचिकाकर्ता PUCL (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़) था।

PUCL ने राइट टू फूड (भोजन के अधिकार) को लेकर जनहित याचिका (PIL) 2001 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। इस याचिका में सरकार की पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (PDS) की खामियों, भूख से हो रही मौतों, और गोदामों में सड़ते अनाज को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे।

जस्टिस डी. के. जैन और जस्टिस पी. सदाशिवम की बेंच ने यूपीए सरकार को फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा था कि अगर सरकार के पास गरीबों को खिलाने के लिए पर्याप्त अनाज है, तो उसे सड़ने देने के बजाय मुफ्त में बांट देना चाहिए।

बहरहाल, फिर 2014 में मोदी सरकार आ गई और कोविड-19 महामारी के दौरान उसने NFSA के तहत मिलने वाले सस्ते अनाज को “फ्री” कर दिया। वाह! प्रचार तंत्र ने इसे ऐसे पेश किया मानो यह कोई नई योजना हो! नाम दिया गया प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY), लेकिन असली योजना तो पहले से ही थी।

मोदी सरकार ने तो बस कांग्रेस के बनाए ढांचे का इस्तेमाल कर अपनी छवि चमका ली। यह वैसा ही है जैसे कोई दूसरा किसान के लगाए पेड़ से फल तोड़कर कहे, देखो, मैंने यह पेड़ उगाया!

मोदी सरकार अगर वाकई गरीबों की इतनी ही हितैषी होती, तो कोविड-19 के दौरान लाखों लोग भूखे-प्यासे हजारों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर न होते। जब देशभर में लॉकडाउन लगाया गया, तब गरीब मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया।

कोई बस नहीं, कोई ट्रेन नहीं, कोई ठिकाना नहीं, सिर्फ भूख और बेबसी! सड़कों पर नंगे पैर चलते मजदूर, भूख से मरते बच्चे, रास्तों में दम तोड़ते इंसान, ये किसी विदेशी आक्रमण के दृश्य नहीं थे, बल्कि ऐसी सरकार की बेरहमी का नतीजा थे, जो सिर्फ प्रचार में माहिर थी।

अगर कांग्रेस का बनाया राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (NFSA) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) न होता, तो न जाने कितने और गरीब भूख से मर जाते। लेकिन मोदी सरकार ने पहले उन्हें असहाय छोड़ा, और फिर बाद में उन्हीं के अधिकार को “मुफ्त अनाज” कहकर अपने नाम से प्रचारित करने लगी।

क्या यह सिर्फ संयोग है कि मोदी सरकार ने कभी नहीं बताया कि NFSA कांग्रेस की योजना थी? क्या यह सिर्फ संयोग है कि प्रचार तंत्र ने कभी यह नहीं बताया कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) दशकों से कांग्रेस सरकारों की देन थी? अगर 2013 में कांग्रेस सरकार NFSA लागू नहीं करती, तो क्या मोदी सरकार मुफ्त अनाज बांट भी पाती? नहीं! लेकिन जनता को यह हकीकत कौन बताएगा? इतिहास में सच्चाई को तोड़ा-मरोड़ा जाता रहा है, लेकिन हर झूठ के पैर छोटे होते हैं। एक दिन जनता यह सवाल ज़रूर पूछेगी, जब बीज कांग्रेस ने बोया, तो फल का श्रेय मोदी सरकार कैसे ले सकती है?

सरकारों की लूट का एक उदाहरण देखिए-आपने एक साल की कठिन मेहनत से ₹18 लाख कमाए। लेकिन सरकार कहती है, “हम भी भागीदार हैं,” और झट से ₹3,24,000 उठा ले जाती है। आप इसे स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि राष्ट्रनिर्माण के लिए टैक्स देना ज़रूरी है। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती।

आपने सोचा, चलो एक कार खरीदते हैं, आखिर आपकी गाढ़ी कमाई का आनंद उठाने का हक़ तो आपको है, लेकिन सरकार कहती है, “रुको ज़रा! अब हम तुम्हें फिर से लूटेंगे।” ₹12 लाख की कार पर ₹2,16,000 का टैक्स! यानी आपने जो टैक्स देकर बचाया था, उसका बड़ा हिस्सा सरकार फिर से छीन लेती है।

अब नतीजा देखिए-कमाया आपने ₹18 लाख, लेकिन आपके हाथ में बचे ₹14,76,000। और सरकार? ₹5,40,000 उड़ाकर आराम से बैठी है। लेकिन ठहरिए, यह कहानी अभी पूरी नहीं हुई! अब ज़रा महीने भर की ग्रोसरी का हिसाब लगाते हैं। मान लीजिए, आप ₹10,000 का राशन खरीदते हैं-आटा, दाल, चावल, तेल, मसाले, सब्ज़ियां।

लेकिन सरकार यहां भी आपके पीछे लगी है। 5% से 18% तक का जीएसटी अलग-अलग चीज़ों पर लागू है। यानी आपके ₹10,000 के राशन पर कम से कम ₹1,000 सरकार ले जा रही है। और हां, अगर आपने कोई पैक्ड फूड लिया-बिस्किट, नमकीन, सॉस या डेयरी प्रोडक्ट्स-तो यह टैक्स और बढ़ जाता है।

तो अब देखिए, आपने ₹18 लाख कमाए, लेकिन टैक्स और खर्चों के बाद आपके पास जो बचता है, वह आपकी असली आमदनी नहीं, बल्कि सरकार की दी हुई ‘राशनिंग’ है। मेहनत आपकी, पर मलाई सरकार की! आप सड़क पर गड्ढों से बचते हुए ड्राइव करेंगे, पेट्रोल पर फिर टैक्स देंगे, टोल प्लाजा पर हर कुछ किलोमीटर पर फिर जेब कटाएंगे, और जब कार पुरानी हो जाएगी, तब भी सरकार आपको रोड टैक्स और एनवायरनमेंट सेस के नाम पर चूसती रहेगी।

इसे सरकार कहते हैं? नहीं, यह तो आधुनिक कर-गुलामी का प्रमाण पत्र है। लोकतंत्र का असली मतलब यही है कि आप अपने ही पैसे पर बार-बार टैक्स चुकाते रहें और सरकार आपकी मेहनत की कमाई पर ऐश करती रहे। यह ऐसा दस्तावेज़ है जो बताता है कि आप स्वतंत्र नहीं, बल्कि करदाताओं की फ़ौज के सैनिक मात्र हैं, जिसे सरकार जब चाहे, जैसे चाहे, लूट सकती है।

(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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