जब से भाजपा सत्ता में आई है, विरोध की अधिकतर आवाज़ को दबाकर जेल भेजना सरकारों की कार्यशैली का हिस्सा रही है। एनआईए जैसी उसकी सभी एजेन्सियां विरोध की हर आवाज को दबाने के लिए बनाई गई हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में जनता ने जेल में बंद ऐसे दो ‘आतंकवादियों’ को संसद में भेजकर अपना स्पष्ट मत व्यक्त कर दिया है, लेकिन चुनाव परिणामों के तमाम विश्लेषणों में इसकी कहीं चर्चा नहीं हुई। जबकि जनता का मत समझने का महत्वपूर्ण विषय है।
अब्दुल राशिद शेख को कश्मीर में इंजीनियर राशिद के नाम से भी जाना जाता है। इस बार के लोकसभा चुनावों में उन्होंने कश्मीर के बारामुला संसदीय क्षेत्र से जीत हासिल की है। उन्होंने यह जीत ‘नेशनल कांफ्रेंस’ के दिग्गज नेता उमर अब्दुल्ला को भारी अंतर से हरा कर हासिल की है। लेकिन इस परिचय में कुछ ख़ास नहीं है। उनका ख़ास परिचय यह है कि पिछले पांच साल से दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है, वे उसी जेल में मुख्य लाइब्रेरियन है। राशिद को 2019 में गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत “टेरर फ़ंडिंग” के आरोप में एनआईए ने गिरफ़्तार किया था। यह भारतीय संविधान की धारा 370 को हटाने के बाद तुरंत बाद किया गया था, ताकि उसके विरोध में होने वाले आंदोलनों को रोका जा सके। राशिद कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार के मज़बूत समर्थक हैं। तब से लेकर आज तक वे जेल मे बंद है।
राशिद को इससे पहले 2005 में भी गिरफ़्तार किया गया था जब वे निर्माण विभाग में एक इंजीनियर के पद पर काम कर रहे थे। उस समय राशिद को जेल में बुरी तरह यातनायें दी गयी थी। इसके बारे में बताते हुए उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में जेल में इलेक्ट्रिक शॉक देने की बात भी कही थी। उसके कुछ महीने के बाद उनको छोड़ दिया गया। उसी के बाद से उन्होंने चुनावी राजनीति में हिस्सा लेना शुरु किया और पहली बार में ही विधानसभा के सदस्य चुने गए। तब से उन्हें इंजीनियर राशिद के नाम से जाना जाता है।
राशिद को विधायक रहते हुए भी आम जनता की तरह बिना किसी सुरक्षा के पब्लिक यातायात के साधनों में घूमते हुए देखा जा सकता था, जो की आज की चुनावी राजनीति में बिल्कुल भी आम बात नहीं है। उन्होंने विधायकों को मिलने वाले विशेषाधिकार को भी लेने से मना कर दिया था। 2005 में भी उनको ‘आतंकवादियों’ का साथ देने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था और 2019 में भी यही आरोप।
सरकार और सरकारी एजेंसी ने भले ही उन्हें समाज के लिए खतरनाक घोषित कर जेल में डाल दिया हो, लेकिन जनता ने उन्हें चुनकर सरकार के खिलाफ अपना मत दिया है, यह सरकार और उसकी एजेन्सियों के लिए असमंजस की स्थिति है। क्या सरकार और उसकी मशीनरी उन्हें जिताने वाली जनता को भी आतंकवादी घोषित कर जेल में बंद कर देगी।
राशिद उस वक्त लाइम लाइट में आए जब उन्होंने भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा भारत पाकिस्तान बॉर्डर (स्व्ब्) के पास मज़दूरों से जबरन बेग़ार कराए जाने के खि़लाफ़ प्रदर्शन करना शुरू किया। विधायक बनने के बाद भी राशिद इन्जीनियर ने कभी भी सड़कों पर लड़े जाने वाले संघर्ष को नहीं छोड़ा। वे कश्मीर में हो रहे मानव अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ होने वाले आंदोलनों में लगातार शामिल होते रहे। इसके कारण उनको कई बार सुरक्षा बलों द्वारा पीटा गया और हिरासत में भी लिया गया। इसलिए राशिद की जीत के महत्वपूर्ण मायने हैं।
राशिद की जीत वास्तव में कश्मीर के लोगों का इस चुनावी राजनीति में भरोसे का सूचक नहीं है, बल्कि उन लोगों के ऊपर विश्वास की जीत है, जो वास्तव में कश्मीर और कश्मीरियों के अधिकारों की रक्षा के लिए खड़े रहते है। राशिद के चुनाव प्रचार के लिए उनसे तालमेल का काम उनके बेटे ने किया, जिन्होंने इस चुनाव प्रचार में मात्र 23,000 रूपये खर्च किये। चुनावी जीत के बाद जेल से भेजे गए एक संदेश में राशिद ने कहा है “उनकी जीत लोगों की जीत है और यह जम्मू-कश्मीर के लोगों पर हो रहे हर तरीक़े के दमन के खि़लाफ़ एक जनमतसंग्रह है।’’ कुछ इसी तरह की बात राशिद शेख़ के समर्थन में उनके समर्थकों द्वारा की गयी चुनावी रैली में बात करते वक्त एक शख्स ने कही थी कि ‘इंजीनियर राशिद उन हज़ारों कश्मीरियों का प्रतिनिधित्व करता है, जो बिना किसी अपराध के अपने घरों से बहुत दूर जेलों में बंद है।’
राशिद की चुनावी रैलियों में कहीं भी झूठे विकास के वायदों की बात नहीं थी। वहाँ एक ही बात बार-बार दोहराई जा रही थी, कि कश्मीर में राजकीय दमन बंद होना चाहिए और जिन कश्मीरी लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाकर देश की अलग-अलग जेलों में रखा गया है उनको रिहा किया जाना चाहिए।
रैलियों में सिर्फ़ “जेल के बदले वोट” के नारों की गूंज सुनायी दे रही थी। जेल में बंद किसी भी सांसद को शपथ लेने के लिए पैरोल पर या अन्तरिम जमानत पर छोड़े जाने का कानूनी प्रावधान होते हुए भी स्पेशल कोर्ट ने उनकी अन्तरिम जमानत नामंजूर कर दी। चुनावों में उनके प्रतिद्वंदी उमर अब्दुल्ला ने हार स्वीकार कर उन्हें जीत की बधाई देते हुए सही ही कहा था कि ‘‘मुझे नहीं लगता कि उनकी जीत उन्हें जेल से बाहर ला सकेगी, न ही उत्तरी कश्मीर के लोगों को उनका प्रतिनिधि मिल सकेगा, जो कि उनका भी अधिकार है।’’
अमृतपाल सिंह
अपने लोकसभा के निर्वाचित सीट से लगभग 2732 किलोमीटर दूर असम के डिब्रूगढ़ की जेल में बंद अमृतपाल सिंह की कहानी भी कुछ राशिद शेख़ की तरह है। अमृतपाल इस लोकसभा के चुनाव में पंजाब की खडूर साहिब से भारी अन्तर से जीते हैं। उन्होंने बिना किसी प्रचार के कांग्रेस के कुलबीर सिंह जीरा को हराया। अमृतपाल सिंह पिछले एक साल से राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (एनएसए), आर्म्स एक्ट और अन्य गंभीर धाराओं के तहत जेल में बंद है। अमृतपाल का गुनाह यह था, कि वे शांतिपूर्वक तरीके अपनी उत्पीड़ित राष्ट्रीयता की मांग कर रहे थे और पंजाब में ड्रग्स माफ़िया के खि़लाफ़ लड़ रहे थे, ताकि वहां के युवाओं को नशे के चंगुल से छुड़ाया जा सके।
वे बार-बार अपने साक्षात्कारों में दोहराते रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है कि आत्मनिर्णय की मांग करना कोई गैरकानूनी गतिविधि नहीं है, यहां तक खालिस्तान की बात करना भी लोगों का जनतांत्रिक अधिकार है। मुख्य रूप से उन पर अपने समर्थकों को छुड़ाने के लिए पुलिस थाने पर हमला करने का आरोप है। एक साक्षात्कार में सवाल का जवाब देते हुए अमृतपाल ने कहा था कि आम लोग कभी हिंसा नहीं करते, राज्य सबसे पहले हिंसा करता है और लोगों को मजबूर करता है कि वो उसका जवाब दे। वह ऐसा इसलिए करता है, ताकि उठ रही लोकतांत्रिक आवाज़ को आसानी से दबा सके। उसके कुछ समय बाद अमृतपाल का राज्य की इसी हिंसा से सामना हुआ जिसको वो चुनौती दे रहे थे। उन्हें दमन का सामना करना पड़ा।
पिछले साल मार्च में सरकार ने अमृतपाल सिंह की ‘विच हंटिंग’ शुरू की और पूरे पंजाब में इंटरनेट सेवाओं को बंद कर दिया गया और बहुत सारे पत्रकारों, मानव अधिकार वक़ीलों के ट्विटर अकाउंट पर रोक लगा दी और उनके घर पर छापा मारकर उन्हें हिरासत में ले लिया। ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक़ 350 से ज्यादा लोगों को मात्र शक़ के आधार पर हिरासत में लिया गया। उनके साथ ही उसके नज़दीकी साथी भी एनएसए के तहत उनके साथ जेल में बंद है।
लोकसभा चुनाव 2024 के लिए उन्होंने जेल से ही पर्चा भरा और सबको आश्चर्य में डालते हुए बिना किसी ज्यादा प्रचार के भारी अंतर से चुनाव जीत गये। यानि यहां भी जनता ने सरकार और उसकी एजेन्सियों के खिलाफ अपना मत दिया। क्या सरकार खडूर की जनता पर भी उनका साथ देने के आरोप में एनएसए लगायेगी? चुनाव जीतने के बाद सरकार ने जीते हुए जन प्रतिनिधि पर एक और साल के लिए एनएसए लगा दिया।
वैसे तो संसद में 80 प्रतिशत सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, जिसमें सबसे अधिक भाजपा के सांसद हैं। लेकिन ये दो सांसद इन 80 प्रतिशत से बाहर इसलिए माने जाने चाहिए, क्योंकि इनके ‘अपराध’ का चरित्र व्यक्तिगत किस्म का नहीं, बल्कि राजनीतिक नेचर का है। यह दो विचारों के अस्तित्व की बात है, जिसमें एक विचार को सरकारें आतंकवाद से जोड़ती है, लेकिन जनता उसे अपनाती है। इसी कारण ये दो नतीजे चौंकाने वाले भी हैं और नागरिक समाज को सोचने के लिए मजबूर करने वाले भी हैं। आतंकवाद के कानून में गिरफ्तार हर व्यक्ति आतंकवादी नहीं होते, बल्कि उनका मत सरकार के मत से अलग होता है। इसीलिए राजनीतिक बन्दियों की रिहाई महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा होना ही चाहिए।
चुनाव से ग़ायब राजनीतिक बंदियों की रिहाई की आवाज़
बीजेपी के शासनकाल में असहमति की ढेरों आवाजों को जेल में बंद किया गया, लेकिन राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए किसी भी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में जगह नहीं है। अगर किसी पार्टी ने मांग रखी भी है, तो उसने चुप रहकर उसे चुनावी मुद्दा नहीं बनाया। इंडिया गठबन्धन में वामपंथी पार्टी से लेकर दक्षिणपंथी पार्टी शामिल थी और पूरे देश का नागरिक समाज एवं प्रगतिशील तबका इस गठबन्धन को जिताने में लगा हुआ था। लेकिन यूएपीए को हटाया जाना उनका मुद्दा नहीं बन सका।
यह भी अजीब है कि राशिद शेख़ और अमृतपाल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावी पर्व के शुरु होने से पहले और जीतने के बाद भी जेल में बंद है और इसकी भी सम्भावना है कि वे लोकसभा सदस्यता का कार्यकाल जेल से ही पूरा करें। इन चुनावी नतीजों का राजनीतिक विश्लेषण करने वाले भी इस बदलाव की बात नहीं कर रहे हैं कि सत्ता की नज़र में जो देश विरोधी और देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं, वे जनता द्वारा क्यों चुने गए है। ये नतीजे एग्ज़िट पोल की भविष्यवाणी में भी नहीं आते है और न चुनावी गणित में इनकी गिनती होती है। फिर भी ये सवाल अपनी जगह पर है, जिसका जवाब दिया ही जाना चाहिए।
(दीपक कुमार ‘कैम्पेन अगेन्स्ट स्टेट रिप्रेशन’नामक संगठन के जुड़े हैं। दस्तक से साभार।)