Thursday, March 28, 2024

शताब्दी वर्ष पर विशेष: इतिहास की कब्र से उठ खड़े हुए चौरी चौरा विद्रोह के नायक

(चौरी चौरा विद्रोह स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की कुछ सबसे ज्यादा चर्चित घटनाओं में से एक है। इस घटना ने न केवल आजादी की लड़ाई का रुख बदल दिया बल्कि उसके भविष्य का रास्ता भी तैयार करने का काम किया। लेकिन इस घटना को लेकर जो नई जानकारियां सामने आ रही हैं वह बेहद चौंकाने वाली हैं। इतिहासकारों ने या तो उस पर काम नहीं किया। या फिर जानबूझ कर उसकी अनदेखी की गयी। लेकिन कुछ इतिहासकारों ने अब इस पर पहल की है। उन्हीं में से एक हैं सुभाष चंद्र कुशवाहा। जिन्होंने गहरे शोध और अध्ययन के बाद इस पर “चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन” शीर्षक से एक किताब लिखी है। पेंगुइन बुक्स से प्रकाशित यह किताब बेहद चर्चित हुई है। यही वजह है कि न केवल हिंदी में बल्कि पंजाबी और अंग्रेजी में भी यह प्रकाशित हो चुकी है। और आज जब चौरी-चौरा का शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है तो इस किताब का एक अंश देना बेहद प्रासंगिक होगा। पेश है इसी किताब के अध्याय-6 का कुछ हिस्सा-संपादक)

चौरी चौरा विद्रोह के मुख्य नायकों के बारे में भी कई तरह की भ्रांतियां रही हैं । यह बात सही है कि इस विद्रोह के एक से अधिक अगुए रहे लेकिन शुरू में इस विद्रोह को उभारने वालों में नजर अली और लाल मुहम्मद का नाम मुख्य है । डुमरी खुर्द सभा के साथ लाल मुहम्मद, नजर अली, भगवान अहीर, अब्दुल्ला, इन्द्रजीत कोइरी, एक चिमटे वाला सन्यासी और श्यामसुन्दर भी नेतृत्वकारी भूमिका में थे। शुरू में कुछ हद तक शिकारी ने भी सक्रिय भूमिका निभाई थी लेकिन उसके सरकारी गवाह बन जाने के कारण मूल्यांकन की पूरी स्थिति बदल गई ।     

चौरा गांव के लाल मुहम्मद, पुत्र हाकिम शाह, उम्र 40 वर्ष, डुमरी खुर्द गांव के नजर अली, पुत्र जीयन चुड़िहार, उम्र 30 वर्ष, भगवान अहीर पुत्र रामनाथ अहीर, उम्र 24 वर्ष और राजधानी गांव के चुड़िहार टोले का अब्दुल्ला साईं डर्फ सुखई पुत्र गोबर, उम्र 40 वर्ष चौरी चौरा विद्रोह को आजादी की लड़ाई का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने वाले रणबांकुरे थे। शिकारी पुत्र मीर कुर्बान सैयद, उम्र 24 वर्ष का स्थान भेदिए के रूप में स्थापित हो जाने से वह जनमानस में घृणा का पात्र बना। 1 चौरी चौरा विद्रोह के तीनों रणबांकुरों ने परदेश की आबोहवा में सांस लिया था और औपनिवेशिक सत्ता के प्रति हर कहीं उबल रहे गुस्से को करीब से देखा था।

वे तीनों पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन देश-परदेश घूम आने के कारण, उनमें अनुभवजन्य समझदारी पैदा हो गई थी । लाल मुहम्मद के बारे में उनके परपोते का कहना है कि वे उर्दू पढ़-लिख लेते थे लेकिन इस संबंध में कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । अब्दुल्ला के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में अपनी सेवायें देने के बारे में जानकारी दी जा चुकी है । वहां अब्दुल्ला बोल्शेविक क्रांति से परिचित होने के बाद जब गांव आया और कांग्रेसी स्वयंसेवक के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया तब भी उसके दिलो-दिमाग में एम.एन.रॉय का पर्चा और किसान-मजदूर राज का सपना घूमता रहा ।

भगवान अहीर मूलतः कहीं और का रहने वाला था लेकिन चौरा गांव में किसी रिश्तेदार के यहां रहता था। वह 18 वर्ष की उम्र में ही ब्रिटिश सेना की कुली या मजदूर टुकड़ी में रह चुका था तथा प्रथम विश्वयु़द्ध को उसने करीब से देखा था । वह मेसोपोटामिया यु़द्ध में बसरा मोर्चे पर तैनात रहा था । उसने मात्र दो वर्ष की सेवा की थी । 1918 में विश्वयुद्ध समाप्त होते ही अन्य हजारों सैनिकों की तरह उसकी भी सेवा समाप्त कर, पेंशन दे, छुट्टी कर दी गई । युद्ध के र्मोचे पर जर्मनी में रह रहे भारतीय वामपंथियों ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ उकसाने का प्रयास किया था ।

जब ये सैनिक अपने-अपने घर वापस गए तो उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आंदोलन को तेज किया । जब कांग्रेस ने स्वयंसेवकों की भर्ती प्रक्रिया शुरु की तो उनके कवायद के लिए प्रशिक्षण देने का काम सेवानिवृत्त सैनिकों से लिया गया । भगवान अहीर भी मेसोपोटामिया यु़द्ध में भाग लिया सेवानिवृत्त सैनिक था । रुपए 5 मासिक पेंशन भोक्ता होने के बावजूद उसने स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देने, कवायद कराने का काम बखूबी किया । कोर्ट ने अपने फैसले में उसे ड्रिल इन्स्ट्रक्टर कहा है । चौरी चौरा क्षेत्र के अन्य लोग भी प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुए थे जैसे कि फांसी की सजा पाये रुदली केवट अपने दो भाइयों के साथ बसरा युद्ध में शामिल था ।

नजर अली, अब्दुल्ला की तरह चुड़िहार था और शिकारी के कथनानुसार दोनों आपस में रिश्तेदार भी थे । जवानी के दिनों में क्षेत्र के नामी पहलवानों में उसका भी नाम था । उसकी पत्नी कोइला खातून की लगभग पच्चीस वर्ष की उम्र में मृत्यु हो जाने के बाद, नजर अली को चूड़ी बेच कर गुजर-बसर करने में मुश्किल हुई तो वह रंगून चला गया । इस क्षेत्र के तमाम लोग रोजी-रोटी की तलाश में बंगाल, असम, कलकत्ता, हाबड़ा और रंगून तक जाया करते थे। नजर अली, अब्दुल्ला की ही तरह चौरा का जहूर नामक व्यक्ति, कलकत्ता कमाने गया था । डुमरी खुर्द के बिहारी के दो लड़के, परताप और रघुनाथ, विद्रोह के समय रंगून में मजदूरी करने गए थे ।  सामान्य वर्षों में लगभग 10,000 और मूल्यों के बढ़ने या खेती की तबाही के दिनों में लगभग 30,000 लोग रोजी-रोटी की तलाश में बाहर चले जाते थे। नजर अली ने रंगून में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध जन आंदोलनों के उभार को देखा था । वहां से लौटकर, डुमरी खुर्द में बसने के बाद, उसके मन में भी विद्रोह की ज्वाला धधक उठी थी ।

लाल मुहम्मद का कारोबार, गाढ़ा कपड़ा बेचने का था । उसके पास खेती नहीं थी । उसका परिवार उसके व्यापार पर निर्भर था । वह भोपा बाजार में जानवरों की खाल तथा असक्त और बिगड़ैल घोड़ों को खरीदने और बेचने का भी काम करता था । वह बीमार और कमजोर घोड़ों को खरीदता, उनकी देख-रेख करता और तंदुरुस्त होने पर बेच देता । लाल मुहम्मद भी जाने-माने पहलवानों में था और जवानी के दिनों में अखाड़े में लड़ने जाता। देखा जाए तो उम्र और अनुभव के हिसाब से अब्दुल्ला और लाल मुहम्मद के बाद नजर अली का स्थान आता था लेकिन नेतृत्वकारी शक्ति उसके पास ज्यादा थी । हाटा सभा और डुमरी खुर्द सभा में उसी ने मुख्य भाषण दिया था । डुमरी खुर्द सभा के मुख्य नेतृत्वकर्ता के रूप में नजर अली का ही नाम आता है । नजर अली की तुलना में भगवान अहीर और शिकारी मात्र 24 वर्ष के युवा थे । ये दोनों भी पहलवान थे और दंगलों में हाथ आजमाया करते थे।

शिकारी को सरदार हरचरन सिंह का आदमी कहा जाता । सरदार परिवार ने शिकारी को कुश्ती में इनाम स्वरूप जमीनें भी दी थीं जो आज भी उसके परिजनों के पास है । शिकारी पर हरचरन सिंह का प्रभाव था तभी वह आसानी से सरकारी गवाह बनने को तैयार हुआ । परिपक्वता और सांगठनिक प्रतिबद्धता की कमी के कारण ही बाद में शिकारी ने सरकारी गवाह बन, तमाम उल्टे-सीधे आरोपों को अपने ही साथियों पर लगाया । यहां तक कि सेशन कोर्ट को भी मानना पड़ा था कि यह व्यक्ति अपने जीवनदान के लिए बढ़-चढ़ कर और पुरानी दुश्मनीवश, अपने साथियों के विरुद्ध गवाही दे रहा था। यही कारण है कि आज डुमरी खुर्द और आस-पास के गांवों में उसे गद्दार कह कर पुकारा जाता है ।

अस्पृश्यों और निम्नवर्गीय किसानों की अगुवाई 

हिन्दू धर्म में जाति एक कड़वी सच्चाई है जिसने मुनष्य को ऊंच और नीच वर्ग में विभाजित किया है । इतिहास के पन्नों में चौरी चौरा विद्रोह जैसे साहसिक कृत्य में दलितों का शौर्य है । उनकी निम्न सामाजिक स्थिति, उच्च बलिदान को गौरवान्वित करती दिखती है । संभव है कि उनके गौरवमय इतिहास को ओझल करने के कुचक्र में ही चौरी चौरा विद्रोह को ‘गुंडों का कृत्य’ कहा गया हो । यहां के प्रभावशाली जमींदार, जो चौरी चौरा विद्रोह के नायकों को चुन-चुन कर गिरफ्तार कराने, अपने एवं अपने कारिंदों से झूठी गवाही दिला कर उन्हें सजा दिलाने की भूमिका में थे, अस्पृश्यों के बलिदान को ‘अपराधियों का कृत्य’ कह प्रचारित किये । मगर सच्चाई तो यह है कि डुमरी खुर्द और आसपास के किसानों के इस कृत्य ने केवल ब्रिटिश सत्ता को चुनौती ही नहीं दी थी, बल्कि आसपास के बीसियों जमींदारों के नेतृत्व को नकारते हुए, उन्हें भी चुनौती दी थी ।

अनपढ़ों द्वारा देश के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने वाला यह साहसिक कृत्य, इतिहास के पन्ने में अद्वितीय है । इस कृत्य को अंजाम देने वालों ने गांधीवादी विचारधारा और गांधी के चमत्कारों का सहारा लेते हुए हाशिये के समाज की गोलबंदी तो की ही,  उन्होंने विश्व में प्रचंड ताकत का झंडा फहराने वाले ब्रिटिश सम्राज्य को भी नतमस्तक किया, साथ ही साथ गांधीवाद और उसके छद्म स्वराज का पर्दाफाश भी किया । उन्होंने यह भी दिखाया कि जब गरीबों के पीठ कोड़ों से छिल चुके हों, उस पर नमक और लाल मिर्च रगड़ कर दंभी प्रशासन द्वारा आनंद प्राप्त किया जा रहा हो तब अस्पृश्य समझा जाने वाला समाज, जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़, क्रांति की पताका अपने हाथों में ले लेता है । तब उसे किसी पढ़े-लिखे, चालाक या धूर्त नेतृत्व की जरूरत नहीं होती ।

चौरी चौरा किसान विद्रोह में मुख्य हिस्सा लेने वाली जातियां, डुमरी खुर्द और चौरा गांव की थीं । चाहे वे दलित जातियां हों या मुसलमान, पूर्वांचल में दोनों को सामंती समाज में अस्पृश्य ही समझा जाता था । मुसलमानों को कुएं से पानी भरने के पूर्व, हिन्दुओं की बाल्टियों को जगत से दूर रखवाना पड़ता । हिन्दुओं के यहां दावत में उन्हें या तो अपने बर्तन साथ ले जाने होते या केले के पत्तों या दूसरे पत्तलों पर खाना होता । इनमें से किसी को भी सामंतों के सामने अपनी चारपाई पर बैठने की इजाजत न थी और न पैरों में खड़ाऊं पहनने की । सामंतों (बाबुओं) के दरवाजे पर वे या तो जमीन पर बैठते या पुआल पर । जीवनयापन के लिए इन्हें जानवरों की खालों, हड्डियों और उनके मांसों का सहारा लेना पड़ता ।

इसलिए भी चौरा चौरा विद्रोह का मूल्यांकन करते समय ब्रिटिश जुल्मों, उनके पिट्ठू जमींदारों के शोषण, बेगार,  लगान वसूलने के बर्बर तौर-तरीकों पर नजर डाल लेनी चाहिए और इस तथ्य पर जरूर विचार करना चाहिए कि जिन्हें जीवन में समानता का कोई अधिकार हासिल न था, वे थाना फूंकने जैसे नतीजे पर कैसे पहुंचे थे । अस्पृश्यों के साथ गिनती के जो थोड़े से सवर्ण जातियों ने भाग लिया था, उनमें से अधिकांश सचेतन रूप से उस संघर्ष में नहीं थे । इसलिए जिस समाज ने चौरा चौरा विद्रोह का नेतृत्व किया, वह मूलतः अस्पृश्य समाज ही था । ब्रिटिश अभिलेखों में भी वे निम्न जाति के रूप में दर्ज किए गए। उच्च न्यायालय ने अब्दुल्ला एवं अन्य बनाम सम्राट के अपने फैसले के पैरा 24 में लिखा-अधिकांश समाज के निचले तबके से वास्ता रखने वाले थे । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने रघुबीर सुनार को बाकी अभियुक्तों की तुलना में उच्च जाति के कारण ‘अच्छी सामाजिक स्थिति’ वाला बताया । इससे स्पष्ट होता है कि ज्यादातर चौरा चौरा किसान विद्रोहियों का दलित वर्ग का होना, सभी की नजरों में उपेक्षित किए जाने का मुख्य कारण रहा ।

यहां एक और प्रसंग पर विचार कर लेना जरूरी होगा कि जिस काल में पंजाब, बंगाल और यहां तक कि अवध क्षेत्र क्रांतिकारी पहलकदमियां ले रहा था, गोरखपुर के आसपास के सैकड़ों जमींदार, राष्ट्रीय आंदोलन को हिन्दू आंदोलन में बदलने की पूरी कोशिश में लगे थे । वे हिन्दू-मुसलमानों को बांटने में लगे थे । 1890 के आसपास गौ-रक्षिणी सभाओं तथा नागरी आंदोलनों का उत्तरोत्तर विकास, 1910 में हिन्दी पत्रकारिता एवं हिन्दू सामाजिक सुधार, 1919-20 तक गोरखपुर के राजनीतिक इतिहास के महत्वपूर्ण बिन्दु हैं । 1913 में नागरी प्रचारिणी सभा ने न्यायिक प्रपत्रों को हिन्दी में छापने के लिए आंदोलन किया ।

1914 में हिन्दी तथा हिन्दू धर्म प्रचार को समर्पित पत्रिका ‘ज्ञानशक्ति’, पड़रौना, तमकुही व मझौली के राजाओं के वित्तीय सहयोग और सरकार समर्थित संस्कृत विद्वान के सहयोग से प्रकाशित की गई लेकिन यह पत्रिका 1917 के अंत के पहले ही बंद हो गई । 1915 में गोरखपुर से गौरी शंकर मिश्र ने ‘प्रभाकर’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जिसका उद्देश्य ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ था  लेकिन यह पत्रिका एक साल में ही बंद हो गई । 1919 में दो महत्वपूर्ण पत्रिकाएं, ‘स्वदेश’ तथा ‘मासिक कवि’ प्रकाश में आईं । स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी मुख्यतः गांधीवादी थे और अपने साप्ताहिक अखबार के सहारे गांधीवादी विचारों को फैलाने जैसा महत्वपूर्ण कार्य करते थे । 1919 में एम.एम. मालवीय की अध्यक्षता वाली ‘भारतीय सेवा समिति’ की एक शाखा देवरिया में खुली । 1919-20 के दौरान ‘सुधारक’ एवं ‘ग्राम हितकारिणी’  सभाओं एवं सेवा समितियों की शाखाएं छोटे नगरों और बड़े गांवों में खुलीं ।

ऐसे समय और काल में जब गांधी हिन्दू-मुसलिम एकता को स्थापित करते हुए, कांग्रेस और खिलाफत आंदोलन को एक कर ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक’ की अवधारणा स्थापित करने में सफल हुए तब आंदोलन में किसानों की पहलकदमी एकाएक तेज हो गई ।

गांधी ने दलितों को मुख्यधारा में लाने का जो विचार दिया, उससे दलितों का स्वाभिमान जगा । वे उठे और आजादी की लड़ाई में अपनी भागीदारी देने में कोताही न की । डुमरी खुर्द सभा में जुटी किसानों की भीड़, जिनमें अधिकांश हिन्दू दलित थे, को देखकर कहा जा सकता था कि एक समान पीड़ा भोग रही गरीब जनता के लिए, हिन्दू धर्म या उसके निमित्त चलाये जा रहे धार्मिक सुधार कार्यक्रमों से कुछ लेना-देना नहीं था,  तभी वे मुसलिम स्वयंसेवकों के नेतृत्व में दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ी और जमींदारों के समझाने-बुझाने के बावजूद, जाति और धर्म से ऊपर उठकर, पंजाब और अवध क्षेत्र के किसान आंदोलनों से भी आगे बढ़कर, क्रांतिकारी पहलकदमी लेने को बाध्य हुई ।

यहां यह भी विचारणीय है कि जब पूर्वांचल की सभी निम्न जातियां, जिनमें मुख्यतः दलित और मुसलमान थीं, मांस खाती थीं, सिवाय कोइरी (भगत) बिरादरी के, तब इस निम्नवर्गीय समाज के स्वयंसेवकों द्वारा धरने के समय मांस-मछली की बिक्री का बहिष्कार क्यों किया जाता था ? इस प्रश्न का उत्तर तीन बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित कर दिया जा सकता है । पहला यह कि गांजा, शराब या मांस-मछली का व्यापार कुछ चुने हुए लोग ही करते थे और उससे व्यापक गरीब किसान, मजदूर प्रभावित नहीं होने वाला था । दूसरा यह कि चौरी चौरा के आसपास के बाजारों में जो धरने दिए गए थे, उनमें मांस-मछली के दाम कम करने की मांग की गई थी, न कि पूरी तरह से बिक्री रोक देने की और तीसरा यह कि पूर्वांचल में जो गौ-रक्षा के नाम पर संस्कृत विद्यालयों की स्थापना तथा यज्ञों की शुरुआत हुई थी, उसने मांस न खाने का एक माहौल भी तैयार किया था । इन्हीं कारणों से स्वयंसेवकों द्वारा मांस-मछली की दुकानों पर धरना देकर जनमानस की सहानुभूति बटोरने की कोशिश की गई थी ।

चौरी चौरा विद्रोह के मूल्यांकन पर अस्पृश्यता का पाप दशकों तक चढ़ा रहा । कांग्रेस इस कांड के मूल्यांकन में इस नतीजे पर भी पहुंची थी कि गोरखपुर के आसपास स्वयंसेवकों की भर्ती के समय उनके सामाजिक स्तर का ख्याल नहीं किए जाने से वैसा कृत्य हुआ। चौरी चौरा विद्रोह की सुनवाई करने वाले निचली अदालत के मजिस्ट्रेट पंडित महेश बाल दीक्षित को अस्पृश्यों के बयान लेने में बड़ी दिक्कत महसूस हुई थी ।

सेशन कोर्ट में जिन 225 लोगों के विरुद्ध मुकदमा चला, अगर उनका वर्गीय विश्लेषण किया जाए तो जो सवर्ण हिन्दू और शेख, पठान, शाह, सैयद वर्ग के मुसलमान थे, वे भी गरीब परिवारों के ही थे । 225 अभियुक्तों की जातिवार स्थिति देखें तो सवर्णों की संख्या मात्र 10 है जिनमें 8 ब्राहमण, 1 सुनार और 1 भूमिहार हैं। एकमात्र अभियुक्त दिवाकर गुसांई, जिसने स्वयं को ब्राह्मण कहा है, वह मूलतः सवर्ण नहीं है । गुसांई या गिरी जो कर्म से शिवपूजक रहे, पिछड़ी जाति में आते हैं । इसी प्रकार 6 कलवार (बनिया) भी पिछड़े वर्ग में शामिल हैं । 26 मुसलमानों में 2 चुड़िहार, 4 हज्जाम, 5 जुलाहे, 1 धुनिया, 5 शेख, 6 पठान, 1 सैन, 1 सैयद, 1 मिरजा शामिल हैं । इनमें से शेख, पठान, शाह और सैयद को छोड़कर बाकी मुसलमान दलित वर्ग के ही हैं । सवर्णों और मुसलमानों के अलावा शेष 189 व्यक्ति शूद्र वर्ग के थे जिनमें से अछूतों की संख्या सर्वाधिक थी । अगर 189 का अलग-अलग जातिवार वर्गीकरण करें तो 21 चमार, 29 केवट, 24 भर, 21 पासी, 18 अहीर, 17 कहार, 16 कुर्मी, 6 सैंथवार, 6 कलवार, 4-4 तेली, बरई, बिन्द, लोहार,  2-2 लुनिया, मल्लाह, धोबी, कंडू, 1-1 कमकर, कोइरी, भुज, खर, पटहेरा, राजभर और गुसांई शामिल थे ।

यहां दलितों को अकारण महिमामंडित करने का उद्देश्य नहीं है । दलितों के कई गलत दावों को दुरुस्त भी किया जा रहा है । ‘स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान’-लेखक डी.सी. डीन्कर की पुस्तक में चौरी चौरा विद्रोह के बारे में कई भ्रामक और असत्य जानकारियां दी गई हैं । एक दूसरी पुस्तक है – ‘दलित दस्तावेज’-लेखक एम.आर. विद्रोही । इस पुस्तक में भी तमाम ऐतिहासिक गलतियां हैं । यह सत्य होते हुए भी कि चौरी चौरा विद्रोह में मुख्यतः शूद्रों और मुसलमानों की भागीदारी रही, ‘दलित दस्तावेज’ के अनुसार चौरी चौरा विद्रोह का नेतृत्व रामपति पुत्र जिउत (चमार) नामक व्यक्ति द्वारा किए जाने की बात गलत और काल्पनिक है । संभवतः सम्पत पुत्र जिउत (चमार) की जगह, रामपति का उल्लेख कर दिया गया है । फिर भी विद्रोह के नेतृत्वकारी भूमिका में नजर अली, लाल मुहम्मद, भगवान अहीर और अब्दुल्ला ही आते हैं न कि सम्पत । ऐसी ही त्रुटि ‘स्वतंत्रता संग्राम में गोरखपुर-देवरिया का योगदान’-उत्तर प्रदेश सूचना विभाग द्वारा 1972 में प्रकाशित पुस्तक में भी है । जिन 19 व्यक्तियों को फांसी हुई थी, उनका उल्लेख परिशिष्ट-7 में किया गया है इनमें से 4 अहीर, 3 मुसलमान, 3 कहार, 2 केवट, 2 ब्राह्मण और एक-एक सुनार, भर, लोहार, बरई और चमार जाति के स्वयंसेवक थे ।

उच्च न्यायालय के फैसले में भी ऊंच-नीच की मानसिकता दिखाई देती है । कोर्ट ने पैरा 29 पर रघुबीर पुत्र जद्दू सोनार को दूसरे अभियुक्तों की तुलना में सामाजिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में इसलिए माना है क्योंकि बाकी की सामाजिक स्थिति उसकी नजरों में निम्न कोटि की थी । 

 चौरी चौरा विद्रोह में मूलतः युवा वर्ग का योगदान था । इस विद्रोह के 225 अभियुक्तों की उम्र का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि प्रौढ़ों की उपस्थिति बहुत कम थी या स्वयंसेवक होने मात्र के कारण उन्हें पकड़ लिया गया था । इस कांड में सर्वाधिक 21-25 वर्ष के 51 युवकों को अभियुक्त बनाया गया था । दूसरे वर्ग में 26 से 30 वर्ष के 48 युवा थे जबकि 16 से 20 वर्ष के 33 युवक शामिल हैं । 31 से 35 वर्ष के 31, 36 से 40 वर्ष के 28, 41 से 45 वर्ष के 10,  46 से 50 वर्ष के 12, 51 से 55 वर्ष के 6 और 56 से 60 वर्ष के 3, 61 से 65 वर्ष के 2 और 66 वर्ष से अधिक के 1 व्यक्ति इस विद्रोह में अभियुक्त बने । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि विद्रोह में शामिल 84 प्रतिशत स्वयंसेवक 40 या उससे कम उम्र के थे ।

चौरी चौरा विद्रोह में एक दूसरा तथ्य भी दिखाई देता है, स्थानीय अखाड़ों का योगदान । डुमरी खुर्द गांव के जिन 30 (निचली अदालत ने डुमरी खुर्द के 31 लोगों को अभियुक्त बनाया था लेकिन एक की मृत्यु इसी दौरान हो गई ) लोगों पर सेशन कोर्ट में मुकदमा चला था उनमें से अधिकांश स्थानीय अखाड़ों में कुश्ती लड़ते थे । नजर अली, विक्रम अहीर और शिकारी तो नामी पहलवान थे ही । डुमरी खुर्द का अखाड़ा, नजर अली चलाते थे । डुमरी खुर्द के 30 लोगों में से सर्वाधिक, 8 पासी जाति के थेे जबकि चमारों और मुसलमानों की संख्या 5-5 थी । चौरा  गांव के जिन 26 लोगों पर मुकदमा चला उनमें से लाल मुहम्मद सहित अधिकांश मशहूर पहलवान थे ।

चौरा के 26 लोगों में से सर्वाधिक भर और मुसलमान समाज के 7-7 व्यक्ति थे । मुण्डेरा बाजार के कुल 6 लोगों पर मुकदमा चला था जिनमें से 5 कलवार जाति के थे । बाले गांव के 11 लोगों पर मुकदमा चला था जिनमें सर्वाधिक 5 कहार थे । चौरी चौरा विद्रोह में वैसे तो 60 गांवों के लोग शामिल थे जिनमें से कुछ तो 30-35 किलोमीटर परिधि के भी थे पर सर्वाधिक आसपास के गांवों के ही लोग थे।

कोमल पहलवान

 गोरखपुर क्षेत्र का मशहूर कोमल पहलवान सहुआकोल, भइसहंवा का रहने वाला था । जब चौरी चौरा थाना जलाया गया, तब वह वहां उपस्थित था । चमरऊ नाच या इन्द्रासनी नाच वाले गाते हैं- ‘सहुआकोल में कोमल तपले, फूंकले चौरा  थाना । ठीक दुपहरिया चौरा जर गइल, कोई मरम नहीं जाना, भइया कोई मरम नहीं जाना ……भइया जीय हो जीय ।’

पहले शारीरिक व्यायाम के लिए गांव-गांव में अखाड़े होते थे और लोग लंगोट बांधकर कुश्ती लड़ा करते । मेलों में कुश्ती के दंगल अनिवार्य रूप से होते, जिसे देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ा करता । पहलवानों में आपसी रिश्ते प्रगाढ़ होते थे और सब एक दूजे के कहे का सम्मान भी करते थे । 4 फरवरी को डुमरी खुर्द में सभा बुलाने की सूचना, पहलवानों के माध्यम से भी दूर-दूर तक फैलाई गई थी । चौरी चौरा विद्रोह के अधिकांश अगुवा अपने समय के नामी पहलवान थे, चाहे नजर अली, लाल मुहम्मद, भगवान अहीर या अब्दुल्ला हों या बिकरम अहीर । पहलवान कोमल यादव, जिसे सरकारी रिकार्ड में डकैत कहा जाता था, का क्षेत्र में दबदबा था । डुमरी खुर्द के पहलवानों से कोमल अहीर का घनिष्ठ संबंध था ।

चौरी चौरा विद्रोह के समय कोमल चौरा थाने पर मौजूद था । बाद में कोमल की भी गिरफ्तारी हुई और जिला कारागार, गोरखपुर में बंद किया गया । इस कांड के युवा पहलवान और अभियुक्त नेऊर अहीर (डुमरी खुर्द) को गोरखपुर जिला कारागार से कोमल ने 18 जुलाई, 1922 को अपने साथ भगाने का असफल प्रयास किया था लेकिन नेऊर भागने की हिम्मत न जुटा सके । कारागार से भागा हुआ कोमल पहलवान, चौरी चौरा घटना के 18 माह बाद एक बार फिर पुलिस की गिरफ्त में आ सका और 1924 के गर्मी के महीने में उसे फांसी दे दी गई थी । कोमल और नेऊर के प्रगाढ़ संबंधों से यह सिद्ध होता है कि डुमरी खुर्द के पहलवानों के संबंध दूर-दूर तक थे ।

लोक साहित्य में कोमल की वीरता का जिक्र बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है जो उसके जनप्रिय होने का प्रमाण है । कोमल की गिरफ्तारी में अपने ही गद्दार साथियों का हाथ था । लोकगीतों पर भरोसा करें तो कोमल को कुसम्ही जंगल से गिरफ्तार किया गया था-

साथी गद्दार हो गइले, गोरा दिहले रुपइया हो,

कुसम्ही जंगल में पकड़इले कोमल भइया हो,

कोमल की फांसी को लोक गायक इस प्रकार गाते हैं-

देश में केतना गोरा अइहें, केतना कोमल झुलिहें फंसिया,

माई रहबू ना गुलाम, ना बहइबू अंसुवा ।

मनले ना गोरा, दिहले फंसिया झुलाई

सुन के नगरिया शोकवा में डूबी जाई

रोवे नर-नारी जब मिलल बाड़ी लशिया

माई रहबू ना गुलाम, ना बहइबू अंसुवा ।

संदर्भः

1-Judgment of session Court, page 1-7.

2-Evidence for prosecution, page 78 by Haihar Prasad .

3-Home Department, Judicial Section,File no 362-23/1923 National Archives of India.

4-Allahabad Judgment of High Court: Abdullah and others Vs. Emperor  on 30 April, 1923.

5-Gorakhpur, Gazetteers volume XXXII. Page 53. Evidence of Prosecution, page 98, 544.

6&Evidence for prosecution, page 861 by Lal Muhammad 

7&Home Department,Judicial section, File No.362-23, page 4. N.A.I.

8-Judgment of High Court, Para 28.

9-Gandhi as Mahatma-Shahid Amin, page 294-297.

10-Ibid, page 300.

11-Mahatma Gandhi Vol. III part II, Collected from Maharastra state and Govt. of India records, page  456.

12-Judgment of Session Court, page1-7.

13&nfyr nLrkost&,e0vkj0fonzksgh] i`”B 207 A

14-Judgment of Session Court, page1-7.       

15-Event, Metaphor, Memory Chauri Chaura 1922-1992-Shahid Amin, page140-141.

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