देश की बड़ी आबादी को खाना मयस्सर नहीं और ‘नीरो’ मोर को दाना चुगा रहा है!

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देश गंभीर परिस्थितियों से गुजर रहा है। देश के हालात पर कुछ लिखना, कहना और विमर्श करना भी कठिन होता जा रहा है। एक अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति है, जो राष्ट्रीय चिंतन और राष्ट्रीय हितों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए कुछ लिखना, पढ़ना, कहना और करना चाहते हैं, उन आवाज़ों को दबाने, उन पर दमनात्मक कार्रवाइयां, गिरफ्तारियां तथा हिंसा और हत्या तक की साज़िश की जा रही है। फिर भी इस मिट्टी की खासियत ही कुछ ऐसी है कि परिस्थितियां कितनी भी विपरीत या जटिल क्यों न हों पर राष्ट्र की हिफाजत के लिए लोग जान हथेली पर लेकर निकल पड़ते हैं। देश की आज़ादी का इतिहास ही त्याग, बलिदान, कुर्बानी और शहादत का इतिहास है।

हां वे लोग जिनका आज़ादी के आंदोलन से कोई वास्ता नहीं है, जो उस समय भी अपने लिए अवसर तलाशा करते थे,  शायद उन्हें इतिहास के इस स्वर्णिम पन्नों से कोई मतलब न हो, पर इस देश की मिट्टी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि उस बर्बर गुलामी से आज़ादी के संघर्ष के दौर में भी सर पर कफ़न बांधकर लोगों ने फांसी के फंदों को हंसते-हंसते चूमा और गले लगा लिया।

उसी बर्बर दौर में सन् 1905 में मशहूर शायर मोहम्मद इकबाल ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सांझी सांस्कृतिक विरासत की मिशाल पेश करते हुए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को एकजुटता और मजबूती प्रदान करते हुए एक गीत लिखा, जो हर भारतीय की जुबान, मन मस्तिष्क और दिलो-दिमाग पर गुनगुनाने लगा और स्वतंत्रता के दीवानों का सबसे प्यारा अमर गीत बन गया,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा

यह गीत देश की आवाज बना। आज भी यह गीत पूरे जोशो खरोश, गर्व और गौरव के साथ राष्ट्रीयता का संचार करता है।

हमने देश की आज़ादी के लगभग 73 साल के सफर को तय किया हैं। स्वतंत्रता दिवस पर हमने जो संकल्प लिया था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने जो सपना देखा था, क्या हम सचमुच उसी मार्ग पर चल रहे हैं, या उस पगडंडी को छोड़कर किसी बहुत खतरनाक चौराहे पर खड़े हो गए हैं,   क्योंकि कोई रास्ता साफ दिखाई नहीं दे रहा है। चारों तरफ़ घनघोर अंधेरा है। यह अंधेरा इतना भयावह होता जा रहा है कि मानवीय सभ्यता ही खतरे में पड़ गई है।

सम्मानजनक जीवन जीने का मौलिक संवैधानिक अधिकार खतरे में है। बाज़ारीकरण, निजीकरण के कारण रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य आम गरीब जनता की पहुंच से बहुत दूर होते जा रहे हैं। कुछ भूख से मर रहे हैं। कुछ दवा चिकित्सा के अभाव में मर रहे हैं। कुछ रोजगार न मिलने के कारण आर्थिक तंगी से मर रहे हैं।

किसान लहलहाती फसल होने के बावजूद फसल का उचित दाम न मिलने के कारण कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। बच्चियों का आत्मसम्मान और युवाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं है। उस पर वर्तमान में कोविड 19 की महामारी का प्रकोप, बेहाल होती शासन व्यवस्था और सिसकती इंसानियत गहन चिंता उत्पन्न करती है।

सबसे दुखद स्थिति यह है कि संसद और सियासत मौन है। राजा याने देश का मुखिया प्रधानसेवक अभी भी बड़े-बड़े सपनों को फेंकने, जुमलेबाजी करने में व्यस्त  और मयूर को दाना खिलाने में मस्त है। ऐसे में विश्वव्यापी प्रसिद्ध वाक्यांश डर पैदा करता है, “रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था।”

एक तरफ देश का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक लोकतांत्रिक ढांचा चरमरा रहा है। देश के सभी राष्ट्रीयकृत पब्लिक सेक्टर कंपनियों को एक-एक करके बेचा जा रहा है। रिजर्व बैंक के रिजर्व को भी नहीं छोड़ा  जा रहा है। बेरोजगारी की समस्या विकराल होती जा रही है। सकल घरेलू उत्पाद ऋणात्मक 23% पर पहुंच गया है।

भुखमरी और आत्महत्या का आंकड़ा भय पैदा करता है। ऐसी परिस्थितियों में देश आत्मनिर्भर कैसे होगा? यह एक बहुत बड़ा सवाल ही नहीं है, बल्कि देश के लिए गंभीर चिंता का विषय भी है। जिसको लेकर देश के अर्थशास्त्रियों, समाज शास्त्रियों एवं जनसंगठनों ने काफी चिंता वयक्त करते हुए कड़ा विरोध दर्ज किया है और इसे राष्ट्रहित के खिलाफ बताया है।

वहीं दूसरी तरफ तथाकथित धर्म और छद्म राष्ट्रवाद की आड़ में मानवीय सभ्यता, वास्तविक धार्मिक नैतिक मूल्यों (धर्म निरपेक्षता) और सांझी सांस्कृतिक विरासत पर तीखे हमले किए जा रहे हैं। मनुष्य को मनुष्य नहीं समझकर, उसे धर्म, जाति, उपजाति, भाषा, क्षेत्र, खान-पान, रंग-रूप, वेश-भूषा आदि में बांटने की खतरनाक साजिश की जा रही है। ऐसी जटिल और खौफनाक परिस्थितियों में सियासत की  दिशा, नीति और नियत पर सवाल उठना स्वाभाविक है। यही सवाल सही समाधान की ओर ले जाएंगे। यह सवाल जितना ज्यादा जितनी ताकत से उठेगा समाधान भी उतनी जल्दी निकलेगा। यही लोकतंत्र की सुंदरता, मजबूती और खासियत है।

  • गणेश कछवाहा

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और रायगढ़ में रहते हैं।)

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