जिस बांग्लादेश के निर्माण में भारत ने अहम भूमिका निभाई थी, अब उसी के साथ भारत के रिश्ते अभूतपूर्व तनाव के दौर से गुजर रहे हैं। वहां चार महीने पहले निर्वाचित सरकार के हुए तख्तापलट और उसके वहां की अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के भारत में शरण ले लेने के बाद दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते तो तल्ख हुए ही हैं, साथ ही बांग्लादेश में रह रहे हिंदू अल्पसंख्यकों पर हिंसक हमलों की घटनाओं से भी दोनों देशों के रिश्तों में खासी कटुता आ गई है।
खास बात यह है कि इस कटुता का दीर्घकालिक संदर्भ बनता दिख रहा है, जो भारत के लिए बेहद चिंताजनक है। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि बांग्लादेश में ऐसे लोगों की काफी बड़ी तादाद हो गई है जो अपने देश की पहचान 1971 के संदर्भ में नहीं बल्कि 1947 के संदर्भ में देखने लगे हैं।
देश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस तो संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भी कह चुके हैं, ”बांग्लादेश बना, क्योंकि लोगों का उदारवाद, बहुलवाद एवं धर्मनिरपेक्षता में गहरा यकीन था। अब दशकों नई पीढ़ी उन मूल्यों और उसूलों पर पुनर्विचार कर रही है, जैसा कि 1952 में हुआ था, जब हमारे देशवासियों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला की रक्षा का संकल्प लिया था।’’
यानी 1952 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने मजहबी आधार पर बने राष्ट्र (पाकिस्तान) को नकार कर भाषा एवं संस्कृति पर आधारित बहु-धर्मीय राष्ट्र को स्वीकार किया था। लेकिन अब लोग 1947 की तरफ देख रहे हैं, जब भारत का मजहबी आधार पर विभाजन हुआ।
अब बात चूंकि मुस्लिम पहचान पर आ गई है, तो स्वाभाविक नतीजा है कि वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के समान अधिकार की आकांक्षा पर चोट की जा रही है। इस रूप में पूरब की ओर भी पाकिस्तान की धारणा साकार हो रही है।
यह घटनाक्रम ऐसे वक्त पर उभर कर सामने आया है, जब भारत उसे वैचारिक चुनौती देने के लिए लिहाज से बेहद कमजोर स्थिति में है। चूंकि भारत में भी अब सत्ता प्रेरित मुख्य विमर्श हिंदू-मुसलमान पर केंद्रित है, लिहाजा बांग्लादेश में हमेशा से मौजूद रही और अब सिर उठा कर सामने आ चुके महजबी कट्टरपंथी ताकतों को भी तर्क और ताकत मिल रही है।
वैसे बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्ता पलट के बाद से वहां मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने सरकार ने भी पाकिस्तान से रिश्तों में गर्माहट लाने की दिशा में ऐसे कई ठोस कदम उठाए हैं, जो भारत के हित में नहीं माने जा सकते।
अभी पिछले महीने ही पाकिस्तान का एक मालवाहक पोत कराची से चल कर बांग्लादेश के दक्षिणपूर्वी तट पर स्थित चटगांव बंदरगाह पर पहुंचा। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के बाद से दोनों देशों में पहली बार सीधा समुद्री संपर्क हुआ है। इससे पहले दोनो देशों के बीच समुद्री व्यापार सिंगापुर या कोलंबो के ज़रिए होता था।
खुद बांग्लादेश ने इस घटना को पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय संबंधों में महत्त्वपूर्ण क़दम की शुरुआत बताया है। कहा है कि इस रूट पर समुद्री संपर्क बनना दोनों देशों के बीच सप्लाई चेन को आसान बनाएगा, परिवहन के समय में कमी आएगी और आपसी व्यवसाय के लिए नए अवसरों के दरवाज़े खुलेंगे।
जाहिर है कि यह सीधा समुद्री संपर्क पाकिस्तान और बांग्लादेश के राजनयिक रिश्तों में एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत है। इसके पहले खबर आई थी कि दोनों देश एक परमाणु सहयोग समझौते पर बातचीत कर रहे हैं, जिसके तहत पाकिस्तान परमाणु बिजली संयंत्र लगाने में बांग्लादेश की मदद करेगा।
यह पूरा घटनाक्रम भारत के लिए चिंता का पहलू है। आम संबंधों के साथ दोनों देशों के उग्रवादी तत्वों के बीच संपर्क बनना भी आसान हो सकता है। लेकिन इस मामले में भारत कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं दिखता।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को लेकर वहां की अंतरिम सरकार को अंतरराष्ट्रीय कठघरे में खड़ा करने की रणनीति पर काम करने के बजाय भारत सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी इस पर राजनीतिक लाभ उठाने के अभियान में जुटी हुई है।
भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी उग्र हिंदूवादी संगठनों की ओर से देश में जगह-जगह बांग्लादेश के खिलाफ और वहां रह रहे हिंदुओं के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। बांग्लादेश के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करने और उसे सबक सिखाने की बातें हो रही हैं।
कहा जा रहा है कि पूरे बांग्लादेश को निबटाने के लिए भारत के दो राफेल विमान ही काफी है। बांग्लादेश को बिजली, पानी और दूध की आपूर्ति बंद कर देने की बातें कही जा रही हैं। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार को अवैध बताया जा रहा है।
मगर भारत में यह सब करने और कहने से बांग्लादेश के हिंदुओं का भला होने के बजाय और नुकसान ही हो रहा है। यही वजह है कि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की स्टेंडिंग कमेटी के सदस्य गायेश्वर चंद्र रॉय को कहना पड़ा है कि उनके देश के मामलों में भारत दखलंदाजी करने और बांग्लादेश के राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने करने की कोशिशों से बाज आए।
भारत में बांग्लादेश विरोधी उग्र प्रदर्शनों और बयानों के अलावा एक खतरनाक और विभाजनकारी सिलसिला और जारी है जो आग में घी का ही काम कर रहा है। यह सिलसिला है- हर पुरानी मस्जिद और दरगाह के नीचे मंदिर ढूंढने का। आए दिन किसी न किसी प्राचीन मस्जिद और दरगाह के नीचे मंदिर होने का दावा किया जा रहा है।
उपासना स्थल कानून 1991 के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धार्मिक समुदाय के उपासना स्थल को किसी दूसरे धार्मिक समुदाय के उपासना स्थल में नहीं बदला जा सकता है। इस कानून की अनदेखी करते हुए निचली अदालतें भी बगैर सोचे-समझे ऐसी मस्जिदों और दरगाहों के पुरातात्विक सर्वे के आदेश धड़ल्ले से जारी कर रही हैं।
यही वजह है कि भारत सरकार बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न का मुद्दा वैश्विक मंच पर उठाने का नैतिक अधिकार खो बैठी है और इसीलिए बांग्लादेश की अंतरिम सरकार भी भारत सरकार अपील को गंभीरता से नहीं ले रही है और उसे अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत दे रही है।
सवाल है कि असंख्य ऐतिहासिक मस्जिदों, अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह या आगरा के ताजमहल या दिल्ली की कुतुब मीनार आदि को मंदिर बताने का दावा करने और उनकी खुदाई कराने वाले आखिर चाहते क्या हैं? यह नहीं भूलना चाहिए कि अजमेर दरगाह की भारत के बाहर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य मुस्लिम देशों में भी जबरदस्त मान्यता है।
इसलिए अजमेर की खबर से बांग्लादेश में रह रहे करीब सवा करोड़ हिंदुओं का जीना मुश्किल होना ही है। उन्हें या तो वहां से अपना घर-बार छोड़ कर पलायन करना होगा या फिर उत्पीड़ित जीवन जीते-जीते अंतत: धर्मांतरण करना पड़ेगा।
ऐसा होने का ‘ऐतिहासिक श्रेय’ नरेंद्र मोदी, अमित शाह और आरएसएस के नाम पर ही दर्ज होगा। बांग्लादेश के दारूल इस्लाम बनने और वहां हिंदुओं की आबादी शत-प्रतिशत खत्म होने में मोदी राज का ‘ऐतिहासिक योगदान’ होगा।
हर मस्जिद और दरगाह के नीचे शिवलिंग खोजने और मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के अभियान से जो नफरत का माहौल आज भारत में बना हुआ है, वैसा ही हिंदुओं के खिलाफ उन्मादी माहौल अब बांग्लादेश में भी है, जो कुछ महीनों पर पहले तक बिल्कुल भी नहीं था।
दोनों देशों में बने इस तरह के माहौल में फर्क इतना है कि बांग्लादेश के मुसलमान तो हिंदुओं को भागने या उन्हें धर्मांतरण के बाध्य कर सकते हैं, जबकि भारत में मुसलमानों के साथ ऐसा करना उन्मादी हिंदुओं के बूते के बाहर है।
निकट भविष्य में बांग्लादेश के मुस्लिम घरौंदे का इस्लामीकरण तय है, जबकि भारत के उन्मादी हिंदू अपने घरौंदे में सिर्फ मस्जिद में शिवलिंग ढूंढते हुए इतिहास को दोहराने की नियति लिए हुए हैं।
मोदी, योगी, शाह, हिमंत बिस्वा सरमा आदि तमाम नेता ‘बंटोगे तो कटोगे’ जैसे वीभत्स और ‘कपड़ों से पहचानने’ जैसे नफरती नारों के जरिये भले ही भीड़ को चाहे जितना संगठित कर लें और चाहे जितने चुनाव जीत जाए, लेकिन उन्हें वह हासिल नहीं होना है, जो बांग्लादेश हासिल कर सकता है और करने वाला है।
यह हकीकत है कि मथुरा, संभल, वाराणसी, आगरा, अजमेर आदि में इतिहास की खुदाई करवा कर भी मस्जिद मुक्त या मुस्लिम मुक्त भारत नहीं बनाया जा सकता।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि भारत में मुसलमानों को परेशान करने के लिए या बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न के विरोध के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे बांग्लादेश के हिंदुओं की दुश्वारियां कम होने के बजाय बढ़ ही रही हैं।
कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत सरकार, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी उग्र हिंदुवादी संगठन यह समझने मे विफल है कि बांग्लादेश से आ रही चुनौती बेहद गहरी है, जिसका मुकाबला संयम और दूरदर्शिता के साथ ही किया जा सकता है।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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