जनता का संकीर्ण दायरा और फैलती हुई इंसाफ की आवाज ताकत और टेर

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अब जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की नरेंद्र मोदी सरकार कई मुद्दों पर लगातार पांव आगे-पीछे कर रही है। उचित हो या अनुचित अपने निर्णय से राई-रत्ती भी पीछे हटना नरेंद्र मोदी के स्वभाव का हिस्सा नहीं रहा है। याद किया जा सकता है कि तब के प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी के द्वारा गुजरात जन-संहार के दौर में ‘राज धर्म’ निभाने की सलाह के साथ मुख्यमंत्री ने क्या सलूक किया था!

प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी को भले ही लगा हो कहीं से ‘राज धर्म’ निभाने में चूक हो रही है, लेकिन तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ‘वही’ उनका राज धर्म था जो हो रहा था। उन्होंने ने जरा ठहरकर कुछ भी सोच-विचार करने की जरूरत पर गौर नहीं किया था।

हालांकि प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी उसी राजनीतिक दल के नेता थे जिस दल के नरेंद्र मोदी! लेकिन अब तीसरी बार अकेले दम पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाने के कारण घटक दलों के सहयोग से प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी लगातार पांव आगे-पीछे कर रहे हैं! इस राजनीतिक परिस्थिति में वे कितने दिन ‘अपना काम’ करते रह पायेंगे कुछ भी कहना मुश्किल है।

यह याद करना प्रासंगिक है कि 2004 में स्मृति ईरानी ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी की बहुत तीखी आलोचना की थी और गुजरात दंगों के लिए मोदी के इस्तीफा की मांग तक कर डाली थी। हालांकि उन्होंने बाद में अपना बयान वापस ले लिया था। बाद में स्मृति ईरानी नरेंद्र मोदी की बहुत बड़ी ‘सशक्त प्रशंसक’ बन गईं। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में लगातार कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की कैबिनेट मंत्री भी बनी रही।

स्मृति ईरानी 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस की परंपरागत अमेठी सीट से राहुल गांधी को पराजित करते हुए चुनाव जीतकर संसद पहुंची थी। इस जीत ने उनके मिजाज को राजनीति के सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। उनका राजनीतिक विकास न सिर्फ राहुल गांधी की, बल्कि पूरे ‘गांधी परिवार’ की कटु निंदक के रूप में होती गई थी।

समझा जाता है कि अभी उन्होंने अपनी कटु-निंदक की पहचान के विपरीत राहुल गांधी पर एक सावधान और सकारात्मक टिप्पणी की है। कमाल की बात है, ऐसा हृदय परिवर्तन!

यह याद ही है कि किस तरह से राहुल गांधी की कटु निंदक की अपनी पहचान के अनुरूप, संसद में राहुल गांधी के ‘फ्लाइंग किस’ के मामले को नाटकीय मोड़ देने की भरपूर कोशिश इन्हीं स्मृति ईरानी ने की थी।

राहुल गांधी को ‘मोदी’ मान-हानि के मामले में जिस तरह से दो साल की सजा का अदालती फैसला आया और जिस ‘तत्परता’ से राहुल गांधी की संसद सदस्यता आनन-फानन में रद्द कर दी गई, संसद सदस्य के रूप में आवंटित आवास को खाली करवाकर राहुल गांधी को बेघर कर दिया गया था।

इस पूरे प्रकरण में, स्मृति ईरानी ‘मति-अमंद’ ही बनी रहीं। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की शुरुआत में ही उन्होंने अपनी गलतबयानी से भ्रम फैलाने की भरपूर कोशिश भी की थी। 2024 के आम चुनाव में राहुल गांधी के खिलाफ प्रचार के इरादे से वायनाड तक पहुंच गई थी।

यह सब करते हुए स्मृति ईरानी के सामने न कभी आत्म-साक्षात्कार का कोई मौका आया न ‘साक्षात्कार’ का।

2024 में अमेठी सीट से कांग्रेस के कार्यकर्ता किशोरी लाल शर्मा से करारी हार के बाद स्मृति ईरानी राजनीति के सातवें आसमान से जमीन पर आने लगी; कट जाने के बाद पतंग को भी जमीन पर उतरने में कुछ वक्त तो लगता ही है!

भारतीय जनता पार्टी के 240 पर सिमट जाने के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार के समर्थन से बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार में अपेक्षाकृत सम्मानजनक समायोजन न हो पाने के कारण स्मृति ईरानी का राजनीतिक आत्म-छल टूट गया।

चुनाव तो वे पहले भी हारी थीं, लेकिन इतनी उपेक्षित नहीं हुई थी। जीत-हार का मनोवैज्ञानिक असर बहुत विचित्र और विपरीत होता है। हारनेवाला सोचता है वह अगली बार जरूर जीतेगा। जीतनेवाला सोचता है, वह अब कभी नहीं हारेगा। हारने के पहले वे भी ऐसा ही सोचकर वे ‘अपनी राजनीतिक’ पहल करती रही।

स्मृति ईरानी के हारने के बाद राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर स्मृति ईरानी की खिल्ली उड़ानेवालों से ऐसा न करने की अपील की थी। हो सकता है कि राहुल गांधी की इस सदाशयतापूर्ण व्यवहार की कुछ-न-कुछ भूमिका स्मृति ईरानी के इस हतप्रभ हृदय परिवर्तन हो, क्या पता!

कहा जाता है कि राजनीति में बिना मतलब का भी बड़ा मतलब होता है। स्मृति ईरानी के बयान के भी कई मतलब होंगे। स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी की टी-शर्ट की सांकेतिकता में सक्षम संवाद की संभावनाओं को पढ़ लिया।

राहुल गांधी की राजनीति की शैली को गंभीरता से न लेनेवालों को ना-समझ बताया। किस-किस ने राहुल गांधी को ‘बालक-बुद्धि’ कहा है, और अब भी घुमा-फिराकर कह रहे हैं, यह कोई गुप्त बात नहीं है। वफादारी साबित करने के लिए लोग क्या-क्या नहीं करने लग जाते हैं!

हालांकि कल तक स्मृति ईरानी खुद भी राहुल गांधी की राजनीतिक पहलकदमी की खिल्ली उड़ाने का राजनीतिक महसूल वसूल करती रही हैं, यही उनकी राजनीति की कुल-जमा पूंजी थी। 2024 के आम चुनाव में इस राजनीतिक पूंजी का लुट जाना बहुत दर्दीला अनुभव होगा। अमेठी में हार से उत्पन्न अपने राजनीतिक खालीपन के दर्द के दरिया से तो उन्हें खुद ही गुजरना है।

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की कुर्सी-रिक्ति के कगार पर है। हो सकता है कि अपने राजनीतिक पुनर्वास की संभावनाओं को उज्ज्वल बनाने की कोशिश में आत्म-साक्षात्कार के मुहाने तक पहुंच गई हों, क्या पता! संभव तो यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी के अन्य नेताओं, खासकर गैर-संघी नेताओं के मन में भी आत्म-आंदोलन की प्रक्रिया तेज हो रही हो।

पिछले दिनों कई नेताओं की राजनीतिक आत्मा के जिस जागरण नृत्य का नजारा भारत के लोकतंत्र में दिखा, आत्माओं का वही छटपट नाच फिर दिख जाये तो क्या अचरज!

इधर राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के बाद ‘भारत डोजो यात्रा’ का साहसिक संकेत राजनीतिक मैदान में दे दिया है। राहुल गांधी की डोजो दृश्यावली से ‘शाखा में आराम दक्ष और उपविश-उत्तिष्ठ’ करनेवालों के मन में हलचल न मचा हो यह संभव नहीं लग रहा है।

कुल मिलाकर यह कि अवतारी पुरुष के प्रति मीडिया वर्णित आस्था और विश्वास का माहौल तेजी से बदलाव की ओर बढ़ रहा है।      

लोकतंत्र खतरे के निशान से नीचे चला गया था, वहां से ऊपर उठने की प्रक्रिया जारी है। पूरी दुनिया में शक्ति-संघर्ष तेज है। भयानक जन-संहार की खबरें आ रही हैं। लेकिन अभी युद्ध के माहौल के अधिक भयावह होने की शंकाओं और आशंकाओं की परिस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है।

दुनिया में कूटनीतिक प्रयासों में बहुत तेजी और तत्परता चल रही है, ऐसा विदेश मामलों के जानकार सोशल मीडिया पर कभी-कभार बताते हैं। हिंदी में तो कुछ युद्धक विमानों की दृश्यावली पेश कर मीडिया अपनी भूमिका पूरी कर लेता है। समाचार के बदले दृश्यावली यही तो है हिंदी का संसार!

दुनिया की बदलती राजनीतिक परिस्थिति में भारत की घरेलू राजनीति को मजबूत लोकतांत्रिक समर्थन की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। इस मजबूत लोकतांत्रिक समर्थन की परिस्थिति तैयार करने का मुख्य दायित्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही है।   

यह ठीक है कि गाल बजानेवाले जानकार माने जा रहे हैं। प्रवक्ताओं की दो प्रमुख कैटगरी बन गई है, एक गालीबाज की और दूसरी गैर-गालीबाज की। पहली कैटगरी को अधिक प्रखर और प्रभावी माना जाता है। दूसरी कैटगरी के प्रवक्ता थोड़ी-बहुत कोशिश करते हैं, लेकिन पहली कैटगरी के प्रवक्ता के सामने की एक नहीं चलती है।

दूसरी कैटगरी के प्रवक्ता कोशिश में आगे निकलने को होते हैं तभी एंकर की वाक-मुग्धता टूट जाती है और भाषा और संविधान की मर्यादा का ध्यान आ जाता है। मर्यादा टूट कर भी बच जाती है। साबित हो जाता है कि सार्वजनिक रूप से भाषा और संविधान की मर्यादा बचाने की एंकर की चिंता का सबूत दर्ज हो जाता है।

मुश्किल यह है कि जो कुछ भी संविधान सम्मत है वह ‘पॉलिटिकल करेक्ट’ नहीं रह गया था। हां, अब स्थिति पलटती जा रही है। जो संविधान सम्मत नहीं है, चुनावी नजरिए से उसके ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ न रह जाने की स्थिति बनती जा रही है। विडंबना यह है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के विचार-वितान से बनी भारतीय जनता पार्टी की पूरी सिद्धांतिकी शुरू से ही भारत के संविधान से भिन्न और संविधान के विपरीत रही है।

संविधान को बदलने के इरादे को ठीक से समझना हो तो यह देखना होगा कि किस तरह से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की संविधान विमुख राजनीतिक प्रक्रियाओं को सरकार की नीतियों में डालकर पिछले दरवाजे से संविधान सम्मत दिखाने के लिए छलकारी आवरण प्रदान करने की कोशिश में ‘मुखर मीडिया महा-पुरुष’ और ‘प्रखर संघ चिंतक’ लोग अभी भी रात-दिन एक किये हुए हैं!

भारत के लोकतंत्र की यह परिस्थिति कैसे बनी! इतिहास इस पर कभी लिखेगा! यदि कभी लिखे और गुनहगारों की सूची बनाये तो ‘समर्थन प्राप्त पत्रकारों’ के नाम ‘समर्थ प्रवक्ताओं’ के पहले लिखा जा सकता है। वैसे सुना है इतिहास भी उसी ‘निष्ठा’ से लिखी जाती है, जिस ‘निष्ठा’ के साथ आज ‘असल पत्रकारिता’ का ‘पवित्र कर्तव्य’ निभाया जा रहा है।

माना जा सकता है कि ऐसा सोचनेवाले हताशा में हैं और उन्हें जीवन के सार्थक पहलुओं पर गौर करना चाहिए। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि संविधान सम्मत का ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ नहीं रह जाना भारत के लोकतंत्र की बड़ी दुर्घटना है।

फिलहाल पहली नजर में राहत और बचाव की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी अकेले दम बहुमत के ‘विश्व-गुरु’ का गुरूर खो चुकी है। महत्वपूर्ण यह है कि 2024 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को नहीं ‘हिंदुत्व’ की संविधान विमुख राजनीति को नकारा है।

महत्वपूर्ण यह है कि 2024 के आम चुनाव के नतीजा ने राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की संविधान विमुख राजनीतिक प्रक्रियाओं को सरकार की नीतियों में डालकर पिछले दरवाजे से घुस-पैठ करवाकर संविधान सम्मत आवरण प्रदान करने की कोशिश को नाकाम कर दिया।

निश्चित ही इसमें इंडिया अलायंस के नेताओं खासकर राहुल गांधी और अखिलेश यादव की राजनीतिक सूझ-बूझ और समझदारी की कारगर भूमिका रही है, लेकिन इस का सारा श्रेय भारत के नागरिक समाज की सामूहिक समझदारी और सक्रियता को ही दिया जा सकता है।

यह याद रखने की जरूरत है कि आज इंडिया अलायंस की राजनीतिक और चुनावी पहल के समानांतर नागरिक आंदोलन की जरूरत पहले से कहीं अधिक आवश्यक और लगभग अनिवार्य हो गया है।

नागरिक आंदोलन और राजनीतिक आंदोलन में फर्क होता है। लोकतांत्रिक आंदोलन का लक्ष्य होता है, लोकतांत्रिक अधिकार को हासिल करना, जबकि राजनीतिक आंदोलन का लक्ष्य होता है शासन का अधिकार हासिल करना। नागरिकों का कोई हित-सामाजिक-समूह अपने मुद्दों पर आंदोलन शुरू करता है।

जैसे ही यह नागरिक आंदोलन थोड़ा जोर पकड़ता है, राजनीति में सक्रिय लोग उस के साथ हो लेते हैं। सद्भावना और सहानुभूति के साथ आंदोलन से जुड़कर राजनीतिक नेता उसे अपनी राजनीति के नियंत्रण में ले लेता है। इसके बाद सत्ता बचाने- पाने का खेल शुरू हो जाता है और आंदोलन के नागरिक मुद्दों को तिरोहित कर दिया जाता है;

अधिक रियायत के साथ कहा जाये तो भी इतना तो कहना और समझना ही होगा कि राजनीतिक आंदोलन के प्रवाह में नागरिक मुद्दे बह जाते हैं।

नागरिक आंदोलन में थोड़ी-सी असावधानी होते ही नागरिक आंदोलन राजनीतिक समीकरण के उलझाव में पड़ जाता है। इस प्रकार कच्चा नागरिक आंदोलन, राजनीतिक आंदोलन का ग्रास बन जाता है। समझ में आने लायक बात है कि क्यों समझदार आंदोलनकारी राजनीति नेताओं से जानबूझकर परहेज करते हैं।

अभी ताजा उदाहरण किसान आंदोलन के राजनीति से परहेज को याद किया जा सकता है। प्रसंगवश, ऐसा समझा जाता है कि महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों को संस्कृत में अनुदित-संरक्षित करने की मनाही कर दी थी। हालांकि विद्वानों का कहना है कि इस मनाही का उल्लेख केवल बौद्ध-साहित्य के सिंहली संस्करण में ही मिलता है।

महात्मा बुद्ध को क्या आशंका रही होगी? शायद यही आशंका रही होगी कि संस्कृत में अनुदित होते ही उस पर ‘ब्राह्मणवादी शास्त्र’ का कब्जा हो सकता है। मुद्दे की बात यह है कि स्वतंत्र, सर्वस्तरीय स्वयं-सक्षम और सचेत नागरिक समूह राजनीति के साथ कैसा व्यवहार करे! यह सुनिश्चित करना जरूरी है।

यह मुश्किल काम है, खासकर इसलिए भी मुश्किल है कि पब्लिक-स्फीयर का आकार लगातार संकुचित होता जा रहा है। संकुचित पब्लिक-स्फीयर में नागरिक समाज के लिए पांव धरने की सूई भर जगह भी मुश्किल से ही बच रही है।    

ऐसा नहीं है कि पहली बार नागरिक समाज घोर हताशा में दिखता है। एक अन्य सवाल भी है कि क्या कोई कह सकता है कि किसी भी मुद्दे पर कोई अखंड नागरिक समाज वस्तुतः होता भी है या यह महज सदाशयतापूर्ण धारणा और सदाशयतामूलक आकांक्षा भर है!

असल में ‘अखंड और पूर्ण’ पर जोर देकर इस तरह के सवाल मुद्दे से भटकाने के लिए भी खड़े किये जाते हैं। अखंड या पूर्ण नागरिक समाज की बात ही क्यों की जाये! अखंड और पूर्ण तो राजनीतिक दल भी नहीं होते हैं। पूर्णताओं और शुद्धताओं की खोज ही मानव सभ्यता में भटकाव के लिए खड़ा किया जाता रहा है।

अ-पूर्णता में ही स्वतंत्र और स्वस्थ मानव विकास की संभावनाओं का रहस्य छिपा होता है। चुनावी राजनीतिक आंदोलनों के बीच संसाधनों में हिस्सेदारी, भागीदारी और न्याय का सवाल ज्वलंत बना हुआ है।

पब्लिक-स्फीयर संकुचित हो रहा है, लेकिन इंसाफ की आवाज फैलती जा रही है। नागरिक समाज का दायित्व है, संकुचित पब्लिक-स्फीयर में फैलती हुई इंसाफ की आवाज की ताकत और टेर को जिलाए रखना!  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)     

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