शहंशाह को बागों से
बहुत शिकायत है
उसने अपनी डायरी में लिख लिया
बाग के माने बगावत हैं
@सोनी पांडेय
आज (26 जनवरी, 2020) जब राजधानी के राजपथ पर सैन्य बल के प्रदर्शन से देश के 70वें गणतंत्र का उत्सव मानाया जा रहा था तो दक्षिण पूर्व दिल्ली की कल तक एक अनजानी कॉलोनी, शाहीन बाग में तिरंगे झंडों के सैलाब में संविधान की प्रस्तावना पढ़कर, उसकी रक्षा की शपथ के साथ गणतंत्र दिवस मनाया गया। आज के इस उत्सव की मुख्य अतिथि, गोर्की के उपन्यास, मां की याद दिलाती दो मांएं थीं, रोहित वेमुला की मां और नजीब की मां।
गौरतलब है कि रोहित वेमुला ने जनवरी 2016 में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रशासनिक प्रताड़ना से आजिज आकर आत्महत्या कर ली थी, जिसे सांस्थानिक हत्या कहा जा रहा है। जेएनयू के छात्र नजीब पर अक्टूबर 2016 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने हिंसक हमला किया था और जान से मारने की धमकी दी थी। तब से नजीब गायब है। सीबीआई ने अदालत में मामला बंद करने का हलफनामा दाखिल कर दिया, लेकिन नजीब की मां फातिमा ने नजीब की तलाश बंद नहीं की है। उसी तरह जैसे रोहित की मां रोहित की लड़ाई को जारी रखे हैं।
इन दोनों मांओं ने भारत के 40 फिट ऊंचे नक्शे की प्रतिमा के सामने 35 फीट लंबा तिरंगा फहरा कर गणतंत्र दिवस मनाया। सांप्रदायिक भेदभाव पर आधारित, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), 2019 के विरुद्ध 15 दिसंबर से जारी शाहीनबाग की स्त्रियों के दिन-रात धरने के चलते, शाहीन बाग एक जगह के नाम की जाति वाचक संज्ञा से एक विचार की भाववाचक संज्ञा बन गया है। विचार कभी मरता नहीं, फैलता है और इतिहास रचता है।
शाहीन बाग का विचार शहर शहर फैल रहा है। इलाहाबाद का रोशन बाग शाहीन बाग बन गया है। लखनऊ का घंटाघर और बनारस का बिनिया बाग। शाहीन बाग का विचार देश-विदेश में फैल रहा है। कई शहरों की महिलाएं शाहीन बाग की महिलाओं के पद चिन्हों पर चलकर, आजादी के तरानों के साथ दिन-रात के विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रही हैं। उनके पीछे पुरुष भी आ रहे हैं।
देश के हर शहर, हर कस्बे में सैकड़ों हजारों लाखों का जन सैलाब उमड़ रहा है जिसकी व्यापकता, जेपी आंदोलन के नाम से जाने जाने वाले, इंदिरा गांधी की सत्ता की चूलें हिला देने वाले, 1974 के छात्र आंदोलन से बहुत अधिक है। इन प्रदर्शनों की आहटें विदेशों- यूरोप, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया के भी कई शहरों में सुनाई दे रही है। आज बच्चे-बुड्ढे समेत कलकत्ता के नागरिकों ने 11 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनाई तो केरल के नागरिकों ने, मुख्यमंत्री विजयन के नेतृत्व में 620 किलोमीटर की। पुलिस का दमन सालों के संचित आक्रोश को अभिव्यक्ति देते जन सैलाब को रोक पाने में असमर्थ है। यह जन सैलाब हर शहर, हर कस्बे में तथा तमाम गांवों में भी उमड़ रहा है।
13 दिसंबर 2019 को सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनयम, 2019 के विरुद्ध दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय से शुरू हुए राष्ट्र-व्यापी आंदोलन को शाहीन बाग की औरतों ने एक नया आयाम दिया। जैसा कि सुविदित है, युवा उमंगों के उफान को कुचलने के मकसद से 15 दिसंबर को पुलिस ने जामिया मिलिया के कैंपस में घुसकर छात्रों पर हमला कर दिया। लाइब्रेरी में तोड़फोड़ कर हिंसक तांडव मचाया। इसने शाहीन बाग की महिलाओं का दिल दहला दिया और वे, बच्चे, बूढ़े, जवान सभी, हिंदुत्व ब्रिगेड के सालों से मन में पैठे भय को त्याग कर आंदोलित हो गईं।
शाहीन, जिन्होंने बाग के माने बदल कर बगावत कर दिया, जिससे शहंशाह डरने लगा। गृह मंत्री अमित शाह ने विधान सभा चुनाव प्रचार में शाहीन बाग से दिल्ली की मुक्ति के लिए भाजपा को वोट देने की अपील की, लेकिन शाहीन बाग तो विचार बन गया है, जिसे दिल्ली ने आत्मसात कर लिया है। झारखंड की चुनाव सभाओं में मोदी ने आंदोलन को कांग्रेस द्वारा भड़काया बताया तथा पहनावे से आंदोलनकारियों को पहचानने का सांप्रदायिक शिगूफा छोड़ा। झारखंड की जनता ने शिगूफे को नकारते हुए, चुनावों में भाजपा को मुंह की खिला दी।
यह आंदोलन नवजागरण का आगाज है। इसकी वाहक महिलाएं हैं। यह महिलाओं की आजादी की टंकार से निकला मानव मुक्ति का नवजागरण है। 16वीं शताब्दी के यूरोपीय नवजागरण की अगली कतार में पुरुष थे। 21वीं शताब्दी के इस नवजागरण की अगली कतार में महिलाएं हैं। आजादी के नारों तथा क्रांतिकारी तरानों के साथ झूमती युवतियों के वायरल हो रहे वीडियो मंत्र-मुग्ध करने वाले हैं।
15 दिसंबर, 2019 को संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर आघात करने वाले नए नागरिकता कानून के विरुद्ध प्रदर्शन को कुचलने के मकसद से जामिया के छात्रों पर पुलिसिया हमलों के प्रतिरोध में शुरू शाहीन बाग की महिलाओं के धरने का चिलचिलाती ठंड को धता बताते हुए आज इकतालिसवां दिन है।
ये महिलाएं किसी मोलवी का प्रवचन सुनने के लिए नहीं, संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र तथा उसकी जनतांत्रिक भावना की रक्षा के लिए निकली हैं। ये हिजाब और घूंघट के मिथकों को तोड़कर, भजन-कीर्तन नहीं कर रही हैं। आजादी के तराने गा रही हैं। नमाज की आयतें नहीं, संविधान की प्रस्तावना पढ़ रही हैं। संविधान की प्रस्तावना पढ़ना इस आंदोलन की विशिष्टता बन गया है।
अंतर्राष्ट्रीय इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम के अनुसार, संविधान के प्रति निष्ठा ही राष्ट्रभक्ति है, इस अर्थ में यह नवजागरण आंदोलन देश भक्ति की दावेदारी का आंदोलन भी है। यह एक अलग किस्म का नव जागरण है। 1857-58 के बाद दो प्रमुख धार्मिक समुदायों की एकता की एक अनोखी मिसाल का परिचायक। 1857-58 की क्रांतिकारी एकता से आतंकित अंग्रेज शासकों ने धार्मिक आधार पर ‘बांटो-राज करो’ की नीति अपनाई।
यह आंदोलन, सांप्रदायिक राजनीतिक ध्रुवीकरण के मकसद से देशी शासकों की, धार्मिक आधार पर, ‘बांटने-राज करने’ उसी तरह की चाल का पर्दाफाश कर, नाकाम कर रहा है। हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के भजन की शाह-मोदी की चालें नाकाम हो रही हैं। आंदोलन का एक नारा है, “हिंदू-मुस्लिम राजी तो क्या करेगा नाजी?” पूरा देश असम बनने से बचना चाहता है। राजनीतिक पार्टियों और मजहबी ठेकेदारों की अनुपस्थिति एक सकारात्मक बात है। सभी स्वतः स्फूर्त आंदोलनों की ही तरह केंद्रीय नेतृत्व और नियोजन का अभाव इस आंदोलन की कमी भी है मजबूती भी। आंदोलन के परिणाम भविष्य के गर्भ में हैं।
सौभाग्य से यह आंदोलन अभी तक राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से बचा हुआ है। यह आंदोलन सामाजिक संस्कृति तोड़ने वालों के भी खिलाफ है। अकबरुद्दीन ओवैसी की कोई नहीं सुन रहा है। न ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों के प्रायोजित भड़काऊ बयान को कोई तवज्जो दे रहा है। मोदी-शाह-योगी इसे अपने एकमात्र हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के सांप्रदायिक एजेंडे में ढालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन लोग इनके तोड़ने की कोशिश नाकाम कर रहे हैं। शाह ने लखनऊ में कहा कि कुछ लोग खास समुदाय में भ्रम फैला रहे हैं लोग उनके शिगूफे का जवाब कौमी एकता से दे रहे हैं।
शाहीन बाग की औरतों ने बाग के मायने बदलकर बगावत कर दिया। हर जगह शाहीन बाग का विचार पहुंच रहा है। लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, बंगलोर, मुंबई, पटना। जैसा ऊपर कहा गया है, यह कौमी एकता अंग्रेज 1857-58 की क्रांति की याद दिलाती है। वीडियो में लखनऊ के घंटाघर में नारे लगाती लड़कियों के जज्बे देख कर भावुक हो गया। यह डर के विरुद्ध संचित आक्रोश है। चरम पर पहुंच कर डर खत्म हो जाता है। इस आंदोलन का कोई नेता नहीं, सब नेता हैं। ये नए जमाने की लड़कियां हैं। इन्हें भाई-बाप की सुरक्षा नहीं चाहिए। आजादी चाहिए। भाई-बाप को सुरक्षा देने की आजादी।
नागरिकता संशोधन विधेयक लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। सत्तापक्ष की बहस में संविधान की प्रस्तावना और उसकी मूल भावना बेमानी लग रही थी। गृह मंत्री जब जवाब दे रहे थे तो इस विधेयक के लाने के लिए वे इतिहास को जवाबदेह ठहरा रहे थे। वे कह रहे थे कि कांग्रेस अगर धर्म के आधार पर मुल्क का बंटवारा क़ुबूल नहीं करती तो आज इस कानून की जरूरत नहीं होती। धर्म के आधार पर देश के निर्माण के बारे में उनका यह वक्तव्य निहायत ही अर्ध सत्य और तथ्यों की मनगढ़ंत व्याख्या पर आधारित है।
पहली बात तो मुल्क का बंटवारा ब्रिटिश सरकार का राजनीतिक फ़ैसला था। उस ब्रिटिश सत्ता का सम्राज्यवादी राजनीतिक फ़ैसला था, जिस सत्ता का भाजपा के पूर्ववर्तियों या आरएसएस ने कभी विरोध नहीं किया था। दूसरे, यह राजनीतिक फ़ैसला भी धर्म की बुनियाद पर नहीं था बल्कि सांप्रदायिकता के हथियार से देश के टुकड़े किए गए, जिसके एक हत्थे पर मुस्लिम सांप्रदायिक शक्तियां बैठीं थीं और दूसरे हत्थे पर पर हिंदु सांप्रदायिक शक्तियां मुट्ठी बांधे खड़ी थीं।
गौरतलब है कि धर्म और सांप्रदायिकता में फर्क़ होता है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, धर्मोन्माद के सहारे लामबंदी की राजनीतिक विचारधारा है। यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि उस समय के अधिकांश मुस्लिम धार्मिक समूहों ने मुल्क के बंटवारे का विरोध किया था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के मुस्लिम सदस्यों, मौलाना आज़ाद और खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान आदि ने बटवारे के विरोध में वोट किया था। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के मुख्यमंत्री डॉ. खान बंटवारे के विरुद्ध मुहिम चला रहे थे, लेकिन सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में दक्षिणपंथी कांग्रेसियों का मज़बूत धड़ा राजनीतिक तौर पर, सांप्रदायिक तौर पर नहीं, बंटवारे के पक्ष में हो गया था, जिनका वर्किंग कमेटी में बहुमत था।
कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते नेहरू बहुमत के साथ जाने को बाध्य थे। दोनों ही तरफ की सांप्रदायिक तोकतों ने दंगों और हिंसा के जरिए सांप्रदायिक विद्वेष तथा नफरत फैलाकर आग में घी डालने का काम किया। औपनिवेशिक ताकतें मुल्क को बांटने के मंसूबे में कामयाब रहीं। देश के बंटवारे की चर्चा के विस्तार में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है। वह अलग चर्चा का विषय है। भाजपा सरकार झूठ के सहारे कांग्रेस की गलती सुधार के नाम पर, प्रस्तावना में वर्णित, धर्मनिरपेक्षता की संविधान की मूल भावना के विरुद्ध धार्मिक आधार पर नागरिकता का यह अधिनियम ले आई।
यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या इसकी संसदीय शाखा भाजपा के वैचारिक श्रोतों या प्रतिबद्धताओं के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध पहले राष्ट्रव्यापी, जनांदोलन, महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद, 1925 में, हिंदू पुरुषों को संगठित कर ‘हिंदू राष्ट्र’ के निर्माण के उद्देश्य से हुई।
जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है कि औपनिवेशिक अंग्रेज शासक 1857 के भारतीय ‘स्वतंत्रता संग्राम’ की भारतीयों की एकता से विचलित हो ‘बांटो-राज करो’ की नीति के तहत हिंदुस्तानियों को धार्मिक नस्ल के रूप में परिभाषित करना शुरू किया तथा उन्हें दोनों ही प्रमुख धार्मिक समुदायों में सहयोगी मिल गए। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन से निकले भारतीय राष्ट्रवाद के समानांतर धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर अवाम की एकता तोड़ना शुरू कर दिया।
हिंदू महासभा के काम को जुझारू आयाम प्रदान करने के लिए सैन्यकरण के सिद्धांत पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। मनु स्मृति को दुनिया और इतिहास की सर्वश्रेष्ठ न्यायिक आचार संहिता मानने वाले इसके प्रमुख विचारक, संघ सर्किल में गुरु जी नाम से विख्यात. माधवराव सदाशिव गोल्वल्कर आजादी की लड़ाई की सशस्त्र एवं शांतिपूर्ण दोनों धाराओं को अधोगामी मानते थे तथा संघ का उद्देश्य देश की किसी अपरिभाषित गौरव के शार्ष पर ले जाना। हिंदुओं से उनकी अपील अंग्रेजों से लड़ने में ऊर्जा न नष्ट कर उसे मुसलमानों और कम्युनिस्टों के लिए संरक्षित रखने की थी।
यहां संघ और इसकी संसदीय शाखा की विचारधारा के इतिहास में जाने की गुंजाइश नहीं है। बस यह इंगित करना है कि किसी अंतरदृष्टि के अभाव में मुस्लिम विरोध तथा धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ही इनकी राजनीतिक लामबंदी का एकमात्र औजार रहा है।
1984 के पहले सामाजिक स्वीकार्यता के लिए, 1980 में जनता पार्टी से अलग हो कर संघ की संसदीय शाखा जनसंघ ने खुद को अपरिभाषित गांधीवादी समाजवाद के सिद्धांत पर भारतीय जनता पार्टी के रूप में पुनर्गठित किया तथा रक्षात्मक सांप्रदायिक नीति अपनाया। 1984 के सिख नरसंहार और उसके बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व संसदीय विजय ने इनकी आंखे खोल दीं और राम मंदिर को मुद्दा बनाकर आक्रमक सांप्रदायिक एजेंडा अपनाया। तब से बाबरी विध्वंस के रास्ते 2019 तक की इनकी संसदीय कामयाबी इतिहास बन चुका है।
किसी सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम या अंतरदृष्टि के अभाव में प्रकारांतर से हिंदू-मुसलिम या पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद के नरेटिव के मुद्दों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही इनकी एकमात्र राजनीतिक रणनीति है। असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के माध्यम से बंगलादेशी घुसपैठियों के बहाने उसने हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से सांप्रदायिक ध्रुवीरण की निरंतरता की योजना बनाई। सैकड़ों करोड़ के सरकारी खर्च और लोगों की भीषण परेशानियों के उपरांत बने नागरिकता रजिस्टर ने इनका समीकरण गड़बड़ा दिया।
19 लाख तथाकथित गैरनागरिकों में 13 लाख ही बंगाली हैं तथा उसमें छह लाख ही मुसलमान है। 13 लाख तथाकथित अवैध हिंदू बंगालियों को बंगलादेशी घुसपैठिए करार देने से हिंदू-मुस्लिम नरेटिव गड़बड़ा जाता। नरेटिव को दुरुस्त करने के लिए पाकिस्तान, बांगलादेश तथा अफगानिस्तान के गैर मुस्लिम धार्मिक प्रताड़ितों को नागरिकता प्रदान करने का विधेयक लाया गया।
इस सरकार तथा संघ परिवार को इतने व्यापक विरोध की उम्मीद नहीं थी। मोदी-शाह-योगी प्रशासन चुन-चुन कर मुस्लिमों को निशाना बनाकर विरोध को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश में है, लेकिन देश भर में उभरते जनसैलाब की निरंतरता इनके मंसूबों को नाकाम कर रही है। यह संचित आक्रोश का विस्फोट है।
2019 मुल्क के इतिहास का अंधेरी सुरंग का दौर था। खत्म होते होते सुरंग खत्म होती दिखी, देश की जवानी आंदोलित हो उठी, युवा उमंगों की लहर देख बुढ़ापा भी लहराने लगा और इतिहास को एक रोशन रास्ता दिख रहा है। उम्मीद है 2020 के दशक की शुरुआत इतिहास में नया सुर्ख रंग भरेगा। दुर्भाग्य से पिछले दो दशकों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण मुल्क की राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा कर रहा है।
असम में ‘घुसपैठियों’ को खदेड़ने के अटल बिहारी बाजपेयी के आह्वान पर 1983 में नेल्ली नरसंहार के ध्रुवीकरण की विरासत को भुनाने के लिए उसी नारे के साथ मोदी-शाह जोड़ी ने सैकड़ों करोड़ के खर्च से वहां नागरिकता रजिस्टर अभियान शुरू किया। घोषित 19 लाख अवैध नागरिकों में 13 लाख गैर-मुसलिम निकले, जिसने संघ परिवार की ध्रुवीकरण का समीकरण गड़बड़ा दिया।
13 लाख गैर मुस्लिम नागरिकों को शरणार्थी बनाकर भविष्य में नागरिकता का लालीपॉप देकर नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के जरिए नफरत की सियासत को अंजाम देने के मंसूबे के विरुद्ध असम की अवाम के पद चिन्हों पर जामिया के छात्रों ने जंगे-आजादी का एलान कर दिया तथा पुलिस के बर्बर दमन का बहादुरी से सामना किया। जामिया के छात्रों पर बर्बरता के खिलाफ पूरा मुल्क आंदोलित हो उठा। मुसलमानों को निशाना बनाकर उप्र सरकार इसे सांप्रदायिक रंग में रंगने की कोशिश कर रही है, लेकिन उनकी चाल अवाम समझ गई है। अब दमन कितना भी बर्बर हो, लेकिन जनसैलाब का जो दरिया झूम के उट्ठा है वह अब पुलिसिया दमन के तिनकों से न रोका जाएगा।
आजाद भारत में इतनी व्यापक भागीदारी का यह पहला आंदोलन है। जैसा ऊपर कहा गया है, इस आंदोलन की खास बात यह है कि इसकी अगली कतारों में महिलाएं हैं। ओखला के शाहीन बाग में कड़कती ठंड में दिन-रात महिलाएं धरना दे रही हैं। कर्नाटक में पुरुषों पर पुलिसिया दमन से मोर्चा लेने महिलाएं उनके गिर्द घेरा बनाकर प्रदर्शन कर रही हैं। पुलिस की बर्बरता दो दर्जन जानें ले चुकी है, लेकिन अवाम फैज की पंक्तियां, सर भी बहुत बाजू भी बहुत, कटते भी रहो बढ़ते भी रहो… दुहराते हुए बढ़ता ही जा रहा है।
ईश मिश्र