Saturday, April 20, 2024

पाटलिपुत्र की जंग: आरजेडी के अहंकार की भेंट न चढ़ जाए बिहार में महा गठबंधन!

बिहार विधान सभा की दुंदुभी बज गई। चुनाव आयोग ने चुनाव की तारीखें निर्धारित कर दी लेकिन महा गठबंधन की गांठे बंद हैं। सूबे की जनता बदलाव चाहती है लेकिन बिहार में बदलाव लाने की राजनीति के नाम पर एक हुए महा गठबंधन के घटक दलों में रार जारी है। गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी राजद को गुमान है कि उसका माय समीकरण सामने वाले एनडीए को मात देने में सक्षम है। जबकि सच यही नहीं है। सच तो ये है कि एनडीए को मात देने के लिए सभी जातियों का वोट महा गठबंधन को चाहिए और हर जाति के नेताओं की सहभागिता ज़रूरी है। राजद का खेल निराला है। राजद के इस निराले खेल से आजिज होकर कई घटक दल बाहर का रास्ता भी तलाश रहे हैं।

कुशवाहा की पार्टी रालोसपा की परेशानी ज्यादा है। होनी भी चाहिए। जब सीटें ही नहीं मिलेंगी तो राजनीति किस बात की। करीब सात फीसदी वोट कुशवाहा के साथ है। कोइरी वोट हालांकि एक मुश्त कहीं नहीं है लेकिन अन्य जातियों के सहयोग से दर्जन भर से ज्यादा सीटें कुशवाहा प्रभावित करते हैं। लेकिन शायद राजद को यह सब समझ नहीं है या फिर समझते हुए भी राजद अहंकार से भर गई है। उधर वाम दलों के साथ भी कुछ यही बात है। वाम दलों को जितनी सीटें चाहिए, नहीं मिल रही हैं। मल्लाह और निषादों की राजनीति करने वाली पार्टी जो अब तक महा गठबंधन के साथ खड़ी थी अब आगे की राजनीति तलाश रही है। और अभी भी राजद-कांग्रेस ने उचित फैसला नहीं किया तो महा गठबंधन की राजनीति ध्वस्त हो जाएगी और विपरीत परिस्थितियों के बाद भी एनडीए आगे बढ़ती चली जायेगी। और ऐसा हुआ तो इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ राजद की राजनीति होगी। 

राजद के वोट बैंक पर ओवैसी का धावा 

इसमें कोई शक नहीं कि बिहार की राजनीति में तमाम बदलाव के बाद भी राजद का माय समीकरण अब तक मजबूत रहा है। लेकिन यह भी सच है कि केवल माय समीकरण से सरकार नहीं बन सकती। अब एक नया माय समीकरण भी बनता दिख रहा है। ओवैसी की पार्टी ने इस बार बिहार में नयी फील्डिंग शुरू किया है। उसके साथ देवेंद्र यादव जैसे यादव नेता खड़े हैं। कहा जा रहा है कि इस मोर्चे में पप्पू यादव भी खड़े हैं। और अब अगर उपेंद्र कुशवाहा इस मोर्चे से जुड़ गए तो महा गठबंधन की परेशानी बढ़ सकती है। मोर्चे की राजनीति से साफ़ है कि इससे एनडीए को कोई हानि नहीं है। लेकिन उससे राजद को हानि ज़रूर होगी।

यादव -मुसलमान वोटर बंट  जाएंगे और राजद की राजनीति कमजोर पड़ जाएगी। उधर कन्हैया कुमार की राजनीति भी कमजोर पड़ती दिख रही है। कन्हैया कुमार भले ही चुनाव न लड़ें लेकिन महा गठबंधन को मजबूत करने में लगे रहे। लेकिन जब वाम दलों को सीट ही नहीं मिलेगी तो कन्हैया की नीतीश और मोदी के खिलाफ की पूरी राजनीति कमजोर नहीं हो जाएगी? लगता है कि राजद और कांग्रेस के तमाम नेता इस कहानी को समझ रहे हैं लेकिन सिर्फ सीटें पाने के फेर में अन्य घटक दलों को अपमानित किया जा  रहा है और महा गठबंधन को कमजोर किया जा रहा है। महा गठबंधन में कोई भी टूट बिहार की जनता के साथ धोखा ही होगा। 

नीतीश की छवि और बीजेपी की कमजोरी 

इसमें  कोई शक नहीं कि 15 सालों में नीतीश कुमार का इकबाल घटा है और उनकी छवि भी खराब हुई है। जिस तरह से पिछले सालों में नीतीश कुमार ने सत्ता पाने के  लिए पैंतरेबाजी की है, उससे उनकी राजनीति बदनाम हुई है और उनके चेहरे पर भी दाग लगे हैं। बीजेपी भी हर हाल में नीतीश कुमार से छुटकारा चाहती है लेकिन अभी बीजेपी की मज़बूरी है। जिस दिन बीजेपी को विकल्प मिल जाएगा, नीतीश कुमार बाहर हो जाएंगे। बता दें कि हाल में ही बीजेपी का एक आतंरिक सर्वे सामने आया है जिससे पता चलता है कि जदयू की हालत के साथ ही बीजेपी की हालत भी खराब है लेकिन बीजेपी की नजरें महा गठबंधन को अब कमजोर करने पर लगी है। ऐसे में राजद-कांग्रेस के लिए ज़रूरी यही है कि वे महा गठबंधन को मजबूत बनाये रखें और अपनी असलियत को भी पहचानें। केवल ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना और हार जाना ठीक नहीं हो सकता। बेहतर तो यह होगा कि सभी घटक दलों की ताकत को एक साथ रखकर एनडीए को कैसे मात दिया जाए इस पर काम करने की ज़रूरत है। 

यादव-मुसलमानों में जदयू की पैठ बढ़ी   

राजद को पिछले चुनाव पर भी नजर डालने की ज़रूरत है। राजद को यह लगता है कि माय समीकरण उसी के पक्ष में है जबकि 2015 के चुनाव परिणाम से पता चलता है कि नीतीश कुमार ने बारीकी से राजद के वोट बैंक में घुसपैठ कर लिया है। यादव और मुसलमानों के वोट बैंक का एक हिस्सा जदयू को भी गया है और बीजेपी ने भी यादव वोट बैंक में सेंधमारी की है। ऐसे में अब राजद को माय समीकरण पर गुमान करने की ज्यादा ज़रूरत नहीं है। पहले से ही कमजोर हो चुका राजद का माय समीकरण इस बार ओवैसी और यादव नेताओं की मोर्चाबंदी से और कमजोर हो सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव, 2015 में विजेताओं के जातिवार अध्ययन से कई रोचक निष्कर्ष उभरते हैं। पिछले चुनाव के जातीय विश्लेषण से कई चौंकाने वाली जानकारी मिलती है। बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं, जिनमें से 38 अनुसूचित जाति तथा दो अुनूसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं।

बिहार की जातीय राजनीति पर ख़ास काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार बीरेंद्र यादव के विश्लेषण से कई जानकारियां सामने आती हैं। विधानसभा चुनाव, 2015 के नतीजे बताते हैं कि उस बार बहुजन वोटों का बिखराव बहुत कम हुआ। यादव, कुर्मी व कोयरी सहित मुसलमान मतदाता भी राजद, जदयू और कांग्रेस के ‘महा गठबंधन’ के पक्ष में गोलबंद रहे। इस बार बहुजन वोटरों की एकजुटता का खामियाजा सवर्ण जातियों को उठाना पड़ा है जबकि अति पिछड़ी जातियों की स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है।

15वीं विधानसभा में सवर्ण विधायकों की संख्या 79 थी, जो 16वीं विधानसभा में घटकर 51 रह गयी। इन जातियों को लगभग 28 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। लगभग इतनी ही सीटों का लाभ यादवों और मुसलमानों को हुआ। यादवों की संख्या 39 से बढ़कर 61 हो गयी थी और मुसलमानों की 9 से बढ़कर 24। वैश्य वर्ग में दर्जनों जातियां आती हैं। इनमें से कुछ पिछड़ी जातियों में आती हैं तो कुछ अति पिछड़ी में। इस कारण वैश्यों का जातिवार अध्ययन मुश्किल है। हालांकि तेली, कानू, कलवार, मारवाड़ी आदि जातियां आगे रहीं।

जहां तक पिछले चुनाव में यादव और मुसलमान वोट और जीत हासिल किये उम्मीदवारों का सवाल है, कहा जा सकता है कि अब माय समीकरण पर राजद का कब्जा नहीं रहा। कुल 61 यादव उम्मीदवार पिछले चुनाव में जीतकर विधान सभा पहुंचे थे। इनमें से 6 सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी और 11 यादव उम्मीदवार जदयू से विधान सभा पहुंचे थे। कांग्रेस से दो यादव उम्मीदवार जीते थे जबकि 42 उम्मीदवार राजद से जीत कर सदन पहुंचे थे। जाहिर है कि 61 में से मात्र 42 सीटें ही राजद के खाते में गई थीं।

इसी तरह पिछले चुनाव में 24 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीत सके थे। इनमें से 13 सीटें राजद के खाते में जबकि 5 सीटें जदयू के खाते में गई थीं। 6 मुस्लिम उम्मीदवार कांग्रेस से जीत पाए थे। यहां भी मुस्लिम वोट में जदयू की घुसपैठ लग रही है। हालांकि तर्क दिया जा सकता है कि पिछले चुनाव में राजद और जदयू एक मंच पर खड़े थे लेकिन यह भी सच है कि 2019 के चुनाव में राजद की हालत खराब हो गई। ऐसे में साफ़ है कि महा गठबंधन को अगर सत्ता के पास पहुंचना है तो सभी दलों और जातियों को एक छतरी के नीचे लाना होगा। ऐसा नहीं हुआ तो माना जाएगा कि राजद केंद्र सरकार के क़ानूनी दबाव में है।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं और बिहार की राजनीति पर गहरी पकड़ रखते हैं।) 

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