Friday, March 29, 2024

दो सावरकर नहीं हैं ‘1857’ और ‘हिन्दुत्व’ के लेखक

(सावरकर को लेकर यह भ्रम प्रगतिशील समझे जाने वाले बुद्धिजीवियों में भी आम रहा है कि `हिन्दुत्व का सिद्धांतकार` अपने शुरुआती दौर में धर्मनिरपेक्ष था। यह भ्रम 1909 में आई सावरकर की पुस्तक ‘वार ऑफ इंडिपेंडेंस, 1857’  की बुनियाद पर खड़ा किया गया है। वास्तविकता यह है कि `भविष्य के सावरकर` को इस किताब में ही साफ़ तौर पर देखा जा सकता है जैसा कि इतिहासकार नलिनी तनेजा ने अपने इस महत्वपूर्ण लेख में यह देख पाने की नज़र मुहैया कराई है। 1857 पर लिखी गई सावरकर की इस किताब में ही स्पष्ट है कि उनके लिए `राजनीति का आधार धर्म ही था और धर्म ही उनके लिए संस्कृति की रीढ़ भी था।` नलिनी तनेजा इस किताब पर इस दृष्टि से काम करने वाली संभवत: पहली इतिहासकार हैं। यह लेख मई 2007 में `नया पथ` में प्रकाशित हो चुका है– संपादक)

झूठा भेद

इतिहास लेखन में अब इसे एक स्वयंसिद्ध सत्य ही माना जाने लगा है कि सावरकर के दो अलग-अलग व्यक्तित्व हैं। ‘पहले’ दौर के सावरकर और ‘बाद’ के दौर के सावरकर। 

इसमें ‘पहले’ सावरकर एक धर्मनिरपेक्ष, मानववादी और राष्ट्रवादी क्रांतिकारी हैं और ‘बाद’ के सावरकर ही हैं जो हिंदुत्व के सिद्धांतकार के रूप में सामने आते हैं। ‘पहले’ सावरकर की राष्ट्रवादी, धर्मनिरपेक्ष छवि यूरोप में उनकी गतिविधियों और भारत लाये जाते हुए बीच समुद्र में उनके हिरासत से छूटकर भागने और अब उस सबसे भी ज़्यादा प्रमुखता से उनकी पुस्तक ‘वार ऑफ इंडिपेंडेंस, 1857’ पर आधारित है। यह पुस्तक सावरकर ने 1907 में लिखी थी और 1909 में इसे प्रकाशित किया गया था। 

बहरहाल, जहाँ तक सावरकर की धर्मनिरपेक्ष साख का और यहाँ तक कि उनके आधुनिक राष्ट्रवाद के पैरोकार होने का भी सवाल है, ‘पहले’ अैर ‘बाद’ के सावरकर का यह भेद स्पष्ट रूप से अनुपयुक्त है। वास्तव में ‘पहले’ सावरकर की धर्मनिरपेक्षता के साक्ष्य के रूप में उनकी जिस पुस्तक को अक्सर उद्धृत किया जाता है, उस पर थोड़ा ध्यान से नज़र डालने भर से उनके सांप्रदायिक, संकीर्णतावादी तथा अभिजात रुख की निरंतरताएँ दिखायी देने लगती हैं। इसके बाद यह समझ पाना मुश्किल नहीं रह जाता है कि इस किताब के लेखक सावरकर और हिन्दू महासभा का नेता बनने के बाद, 1924 में लिखी गयी किताब ‘हिन्दुत्व’ के लेखक सावरकर के बीच खास अंतर नहीं है। वास्तव में 1907 में भी एक स्वतंत्र भरत की सावरकर की कल्पना, उनके अनेक समकालीनों के मुकाबले कम अग्रमुखी थी। यही बात भारत के अतीत के बारे में सावरकर की दृष्टि के बारे में भी सच है। 

वास्तव में एक मिली-जुली तथा पारस्परिक रहन-सहन की जिस स्वतःस्फूर्त एकता के आधार पर 1857 की लड़ाई लड़ी गयी थी, उसकी परंपरा तब टूटी, जब उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सांप्रदायिकतावादी प्रवृत्तियों को पुख़्ता किया गया। यहाँ से आगे साझा परंपरा के लिए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादियों को सचेत रूप से अभियान चलाना पड़ रहा था। सच्चाई यह है कि सावरकर इस सांप्रदायिक सुदृढ़ीकरण और पुनरुत्थानवाद पर उसकी निर्भरता की ही संतान थे। 1857 की उनकी दृष्टि भी इसी से रँगी हुई है, हालाँकि वह इस विद्रोह की हिमायत करते हैं और अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं तथा मुसलमानों की एकता को रेखांकित करते हैं। 

बेशक, इस सिलसिले में इसकी भी पड़ताल करनी होगी कि 1857 पर अपनी पुस्तक लिखे जाने के आगे-पीछे सावरकर और क्या कर रहे थे और उस दौर में वह और क्या लिख रहे थे। लेकिन, उससे भी पहले हमें इसकी व्याख्या करनी होगी कि पहले की कम उम्र की अपनी मुस्लिम-शत्रुता से, धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में उनका विचारांतरण कैसे हुआ था? सावरकर के जीवनीकार धनंजय कौर ने उक्त जीवनी में एक घटना का विवरण दिया है कि किस तरह बारह वर्ष की उम्र में सावरकर ने अपने स्कूली साथियों के एक मार्च का नेतृत्व कर, गाँव की मस्जिद पर पथराव कराया था। 

वास्तव में ख़ुद सावरकर ने आगे चलकर बिना किसी तरह के आलोचनात्मक भाव के बल्कि गर्व के साथ उक्त घटना को याद करते हुए लिखा था – ‘‘हमने जी भरकर मस्जिद में तोड़-फोड़ की और उस पर अपनी बहादुरी का झंडा फहरा दिया। हमने पूरी तरह से शिवाजी की युद्ध रणनीति का अनुसरण किया और अपना काम पूरा करने के बाद मौके से भाग आये।’’ (वी.डी. सावरकर, सावरकर समग्र, खंड-1, प्रभात प्रकाशन) वह इसे मुसलमानों के खिलाफ अपने धर्मयुद्ध में हिन्दुओं की जीत की तरह देखते हैं। उक्त घटना किस समय हुई थी, इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने कभी एक बार भी इस घटना पर खेद या पछतावा नहीं जताया था। कम से कम 1857 की अपनी किताब की लेखकीय प्रस्तावना में तो हर्गिज नहीं। 

बहरहाल, सावरकर के दूसरे भी अनेक वक्तव्य हैं जो बहुत कुछ प्रकट कर देते हैं। वास्तव में ‘पहले’ सावरकर की हिन्दू-मुस्लिम एकता की पैरोकारी का भी नागरिकों के समान अधिकारों पर विश्वास से या साझा रहन-सहन अथवा साझा संस्कृति की पक्षधरता से शायद ही कुछ लेना-देना होगा। उनके शब्द हैं – ‘‘1857 में हिंदुओं और मुसलमानों ने, ईसाइयों से लड़ने के लिए, अपने सदियों से चले आते धार्मिक युद्ध को परे खिसका दिया था।’’ दूसरे शब्दों में अपने कथित धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रवादी दौर में सावरकर को इसमें कोई शंका नहीं थी कि हिन्दू और मुसलमान परस्पर ‘युद्धरत राष्ट्र’ थे।

वे इस बात को तो पहचान रहे थे कि अगर अंग्रेज़ों को कारगर ढंग से चुनौती देनी थी, तो 1857 में हिन्दुओं और मुसलमानों का एकजुट होना ज़रूरी था और इसके साथ ही ईसाइयों के विरुद्ध एकजुटता की आवश्यक बतायी गयी थी। लेकिन, ऐसा लगता है कि वह जब 1857 पर अपनी किताब लिख रहे थे, उनके हिसाब से उस दौर पर वह ज़रूरत लागू नहीं होती थी। इसलिए वह कहीं भी वर्तमान के लिए या भविष्य के लिए, ऐसे एकजुट संघर्ष की अनिवार्यता की बात नहीं करते हैं। 1857 का मामला अलग ही था, जिसका वह तथ्यतः वर्णन कर रहे थे, न कि भविष्य के लिए सबक हासिल करने के लिए उससे कुछ सीख रहे थे। 

यह गौरतलब है कि 1909 तक सांप्रदायिक इतिहास लेखन अपना वर्चस्व कायम नहीं कर पाया था। 1857 को गुज़रे अभी बहुत अरसा नहीं हुआ था – बस 50 वर्ष हुए थे। तब तक तो 1857 में हिस्सा लेने वालों की पीढ़ी के बहुत से लोग जिंदा भी रहे होंगे। उस ज़माने में 1857 के विद्रोह की ऐसी प्रस्तुति किस तरह संभव थी, जो इन विद्रोहों में मुसलमानों की भूमिका को सिर्फ़ इसलिए पहचानने में ही इंकार कर पाती, ताकि उन्हें बदनाम किया जा सके या इन विद्रोहों में उनकी भूमिका को नकारा जा सके। सावरकर अगर दूसरे बहुत से लोगों की तरह 1857 पर चुप्पी साधने या उसका विरोध करने का रुख अपना लेते तो बात दूसरी थी, लेकिन एक बार जब उन्होंने फैसला कर लिया तो वह इसे बहुत भिन्न रूप देकर इन विद्रोहों की प्रस्तुति कैसे कर सकते थे? 

सबसे तीव्र विद्रोह के केन्द्रों जैसे दिल्ली, मेरठ, बरेली, लखनऊ, कानपुर, ग्वालियर, झाँसी, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत आदि में उल्लेखनीय मुस्लिम आबादी थी और हिन्दुओं तथा मुसलमानों, दोनों की हिस्सेदारी के बिना 1857 का संघर्ष नागरिक विद्रोहों का रूप ले ही नहीं सकता था। उस ज़माने में बिना किसी अपवाद के सभी सेनाएँ वास्तव में मिली-जुली सेनाएँ थीं और इनमें झाँसी की रानी की सेना, नाना साहेब की सेना आदि भी शामिल थीं। वास्तव में 1909 के दौर तक भी ब्रिटिश सेना और रियासतों की सेनाओं, सभी में यही स्थिति थी। इसलिए, देश की आबादी के सभी समुदायों की हिस्सेदारी के बिना तो महज सिपाही विद्रोह की भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। इस विद्रोह की लपटों के असर में आये इलाकों में हरेक परिवार से दादा-नाना, पिता-चाचा, कोई न कोई 1857 के विद्रोहों में किसी न किसी पक्ष से जुड़ा रहा था। 

दूसरे शब्दों में 1909 के दौर में 1857 लोगों के लिए एक जिंदा अनुभव था, न कि कोई बहुत दूर की याद। यहाँ तक कि मुसलमानों के खिलाफ अंग्रेज़ों की बदले की नीति, दुश्मनों के रूप में मुसलमानों को निशाने पर रखने और प्रशासन से उनकी सफाई करने की उनकी नीति भी, बीसवीं सदी के पहले दशक में ‘समसामयिक मामलों’ में ही आती थी। देश भर में ऐसे अनगिनत लोकगीत चलन में थे, जो सिर्फ अलग-अलग धर्मों से ही नहीं बल्कि अलग-अलग जातियों तथा इलाकों से आये विद्रोह के अपने नायकों की याद को जिंदा बनाये हुए थे।

जिस तरह आज भी कट्टर से कट्टर आरएसएस वाला यह कहने का दुस्साहस नहीं कर सकता कि 1857 में हिंदू और मुसलमान दोनों का ख़ून बराबर और साथ साथ नहीं बहा था। भले ही वे विभाजन के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमानों को ही जिम्मेदार ठहरायेंगे। उसी तरह 1909 के साल में 1857 के विद्रोह की वैसी विकृत और मनमानी प्रस्तुति नहीं की जा सकती थी जैसी आज के शिशु मंदिरों की पाठ्यपुस्तकों तथा आरएसएस की शाखाओं में इतिहास की प्रस्तुति की जाती है, जो कि ब्रिटिश उपनिवेवशवाद के खिलाफ संघर्ष में मुसलमानों की किसी भी तरह की भूमिका को ही नकारना चाहती है। बेशक, उस जमाने में आज का जैसा मीडिया भी नहीं था जो संचार के क्षेत्र में अपनी प्रभुत्ववादी हैसियत का सहारा लेकर, समकालीन घटनाओं तक का मिथ्याकरण कर देता।

सांप्रदायिक विश्व दृष्टि 

इसलिए, हमें इसकी भी पड़ताल करनी चाहिए कि 1857 पर अपनी किताब में सावरकर ने और क्या लिखा है, जो इस पुस्तक के लेख तथा प्रकाशन के समय (1909) की उनकी विश्व दृष्टि पर निकट से रोशनी डाल सकता है। 1857 पर सावरकर का लेखन, प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘सावरकर समग्र’ के खंड-5 में संकलित है और हम यहाँ उसी से उद्धृत करेंगे। 

यह बात याद रखने की है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का दौर, जब सावरकर ने 1857 पर अपनी किताब लिखी थी, धर्मनिरपेक्ष जागरण और सांप्रदायिक सुदृढ़ीकरण, दोनों का ही दौर था। यह वह ज़माना था, जब ‘क्रांतिकारी’ माने जाने वाले, अपने दृष्टिकोण में पुनरुत्थानवादी हो सकते थे और दूसरी ओर राजनीतिक रूप से ‘नरमपंथी’ (ब्रिटिश राज से अपनी माँगों के पहलू से या इस पहलू से कि संघर्ष के लिए किन तरीकों के अपनाये जाने की वकालत करते थे) कहलाने वाले, समाज के प्रति अपने दृष्टिकोण में कहीं मूलगामी व जनतांत्रिक हो सकते थे। बीसवीं सदी के आरंभ में चल रहा मनोमंथन जातिविरोधी आंदोलनों से, बंगाल नवजागरण व ‘नरमपंथियों’ द्वारा उत्प्रेरित समाज-सुधार के जोश से, आर्य समाज तथा सनातन धर्म के प्रतिघात से, जन-लामबंदी के सांस्कृतिक व धार्मिक रूपों पर तिलक के जोर से, दादाभाई नौरोजी की ‘पै धन विदेश चलि जात’ पर आधारित आलोचनाओं से, अंग्रेज़ों द्वारा करवायी गयी जनगणना तथा `फूट डालो और राज करो` की राजनीति से, रूसी साम्राज्य में 1905 की क्रांति की हलचलों से तथा 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उभरे स्वदेशी आंदोलन से, मुक्तिदायी रंग के तथा कट्टरपंथी विस्तारवादी रंग, दोनों ही रंग के राष्ट्रवाद और अन्य प्रकार के भ्रांत-निभ्रान्त रुझानों से उत्प्रेरित था। सवाल यह है कि सावरकर ने अपनी मनोरचना के लिए प्रभावों के इस विशाल इंद्रधनुष में से क्या-क्या चुना था और क्या छोड़ा था?

भविष्य की सांप्रदायिक दृष्टि 

हालाँकि, इस दौर के सावरकर के लेखन में इसका जिक्र बार-बार आता है कि ‘भविष्य’ बनाने के लिए ‘इतिहास से सीखना’ ज़रूरी है। सावरकर की 1857 पर किताब में या इसी दौर के उनके अन्य लेखन में भी, धर्मनिरपेक्ष एकता या एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र पर कोई ज़ोर दिखायी नहीं देता है। इसकी जगह पर जैसा कि 1857 पर उनकी किताब से स्पष्ट है, उनकी प्रेरणा के स्रोतों में शिवाजी व मराठा आंदोलन, गुरु गोविंद सिंह, ‘मुस्लिम निरंकुशता’ के खिलाफ हिंदुओं का सदियों पुराना संघर्ष’ तथा तिलक का राष्ट्रवाद ही है, न कि ज्योतिराव फुले प्रेरित ब्राह्मणविरोधी आंदोलन व संगठन। लंदन में रहते हुए उन्होंने मैजिनी की जीवनी का अनुवाद किया था और उसमें उन्होंने मैजिनी के संबंध में इसी पर ज़ोर दिया था कि अपनी ‘सभ्यता’ की ‘जड़ों’ तक पहुँचे बिना कोई राष्ट्र खड़ा नहीं हो सकता है।

इसलिए, उन्होंने भले ही 1857 के सिलसिले में हिंदुओं और मुसलमानों का जिक्र ‘रक्त-संबंध जैसे भाइयों’ के रूप में किया हो, जो मातृभूमि को समान रूप से प्यार करते थे, फिर भी 1857 पर उनकी किताब से स्पष्ट है कि उनके लिए, भारत की सभ्यता की जड़ें हिन्दुत्व में ही थीं। उनके लिए हिन्दू तथा हिन्दुत्व ही भारत की रीढ़ थे और उस समय भी भारत के भविष्य की उनकी कल्पना एक हिन्दू भारत की ही थी। उनके लिए असली प्रेरणास्रोत 1857 की हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता नहीं थी, हालाँकि वह इसे सच मानते थे। उनके लिए प्रेरणा आती थी, `महान हिंदू अतीत` से और मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के संघर्ष की कपोल कल्पनाओं से। 

1909 में भी उनके मन में दो विरोधी वर्ग बैठे हुए थे और एकता एक व्यावहारिक आवश्यकता थी। मैजिनी ने अपनी पुस्तक ‘ऑन नेशनलिटी’ में लिखा था ‘‘जो भी जनगण अपनी शक्ति और अपनी भौगोलिक स्थिति के बल पर हमें आघात पहुँचा सकता हो, हमारा स्वाभाविक शत्रु है; जो भी हमें आघात नहीं पहुँचा सकता बल्कि अपनी शक्ति तथा भौगोलिक स्थिति के बल पर हमारे शत्रु को आघात पहुँचा सकता हो, हमारा स्वाभाविक मित्र है।’’ 

सावरकर, जिन्होंने मैजिनी से बहुत प्रेरणा ली थी और जिन्होंने मैजिनी पर लिखा भी था, इस मामले में उससे सहमत थे। अंग्रेजों ने वे सारे पाप किये थे, जो मुसलमानों के खिलाफ गिनाये जा सकते थे। चूँकि 1857 में अंग्रेज़ ही निशाने पर थे, न कि मुसलमान क्योंकि वे ही सत्ता में थे, न कि मुसलमान अतः  यह स्वर पूरी पुस्तक में सुनाई पड़ता है। 

स्वतंत्रता-पूर्व भारत में मुस्लिम आबादी के अनुपात और देश भर में उसके फैलाव को देखते हुए, सांप्रदायिकतावादियों तक के लिए 1909 में और वास्तव में उसके बाद से आज तक कभी भी, इसकी कल्पना करना ही संभव नहीं था कि मुसलमानों के योगदान के बिना अंग्रेज़ी राज से स्वतंत्रता हासिल की जा सकती थी। इसलिए, बीसवीं सदी के आरंभ में जबकि सावरकर ने उक्त किताब लिखी थी, धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण के होने, न होने की कसौटी यह नहीं हो सकती कि वह अतीत में हिन्दू-मुस्लिम एकता का व्यवहार देख रहे थे या नहीं देख रहे थे बल्कि उसकी कसौटी तो यही हो सकती है कि क्या वह 1857 की इस हिन्दू-मुस्लिम एकता में धार्मिक पूर्वाग्रहों तथा धार्मिक असमानताओं से मुक्त एक राष्ट्र के बीज देख रहे थे या नहीं देख रहे थे। 

1857 में हिन्दू-मुस्लिम एकता का आधार कुछ भी रहा हो और 1857 के विद्रोह में देखने में आयी एकता का वर्णन करने में सावरकर ने चाहे कितने पन्ने क्यों न खर्च किये हों, 1909 में सावरकर के लिए यह कोई ऐसी चीज़ नहीं थी, जो भविष्य के लिए धर्मनिरपेक्ष एकता के एक विरसे के तौर पर उभारे जाने की ज़रूरत का अटूट हिस्सा या बुनियाद हो।

संचालक भूमिका में धर्म

सच तो यह है कि 1909 में भी उनके लिए राजनीति का आधार धर्म ही था और धर्म ही उनके लिए संस्कृति की रीढ़ भी था। 1857 पर अपनी पुस्तक में भी सावरकर धर्म के संदर्भों को राजनीतिक रूप दे देते हैं और राजनीतिक नुक्ते दर्ज कराने के लिए धार्मिक रूपक ले आते हैं। 1857 पर उनकी पुस्तक का पुरोवाक् स्वामी रामदास से लिया गया है –

‘‘धर्मसाठी भरावे, मरोनि अवध्यांसी मारावे।

मारिता मारिता ध्यावे, राज्य आपुलें।।’’

(धर्म हेतु मरें, मरते हुए सारों को मारें, 

मारते-मारते जीतें, राज्य अपना)

(सावरकर समग्र, खंड-5, पृ. 19) 

सावरकर बताते हैं कि स्वधर्म स्वराज्य अविभाज्य रूप से परस्पर जुड़े हुए हैं और यही उनकी किताब के पहले अध्याय का शीर्षक है – ‘स्वधर्म और स्वराज्य’। 1857 की क्रांति, उसकी दैवीय शक्ति के मुख्य कारण, स्वधर्म और स्वराज्य ही हैं। (सां.स. खं-5, पृ. 25) लेकिन इससे किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि धर्म से सावरकर का आशय ‘जीवन-पद्धति’ जैसी किसी गोल-मोल चीज़ से हो सकता है। इसलिए वह विस्तार से बताते हैं कि, ‘‘अपने प्राणप्रिय धर्म पर भयंकर, विघातक एवं कपटपूर्ण हमला हुआ है, यह यथार्थ दिखते ही स्वधर्म रक्षणार्थ जो ‘दीन-दीन’ की गर्जना शुरू हुई, उस गर्जना में तथा अपनी प्रकृतिदत्त स्वतंत्रता के कपटपूर्वक छीने जाने पर और और अपने पैरों में पड़ी राजनीतिक ग़ुलामी की जंजीरें देखते ही स्वराज्य प्राप्त करने की पवित्र इच्छा उत्पन्न होने के कारण इस दास्य शृंखला पर जो प्रचंड आघात किये गये, उन्हीं में इस क्रांति युद्ध की जड़ें हैं। स्वधर्म प्रीति और स्वराज्य प्रीति के तत्व हिन्दुस्थान के इतिहास में जितनी स्पष्ट एवं उदात्तता के साथ हम देखते हैं, उससे अधिक वे किस इतिहास में मिलने वाले हैं।’’

इससे आगे सावरकर, गुरु गोविंद सिंह को उद्धृत करते हैं – ‘‘सूरा सो पचाणिये जो लड़े दीन के हेत। पुरजा पुरजा कट मरे तबहु न छाड़े खेत’’ और इससे आगे अपनी टिप्पणी जोड़ते हैं – ‘‘इस रीति से स्वधर्म के लिए रण-मैदान में टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी जो हटते नहीं, वीरों की ऐसी घटनाओं से भारतभूमि का संपूर्ण इतिहास भरा हुआ है।’’ (सा.स., खंड-5, पृ. 5) इसलिए चर्बी लगे कारतूसों से धार्मिक भावनाओं का आहत होना भी उसी तरह महज एक प्रसंग भर था, जैसे कि अवध का हड़पा जाना या दूसरे सभी प्रसंग भी। जहां तक ‘युद्ध’ का सवाल है, वह तो इन प्रसंगों के हुए बिना भी होना ही था क्योंकि यह मामला सिर्फ कुशासन का नहीं था, बल्कि ऐसे शासन का था जो अपने आप में, भारतीयों के धार्मिक व्यक्तित्व को ही नष्ट करने की कोशिश कर रहा था। (अध्याय 1 तथा 2) जैसा कि ज्योतिर्मय शर्मा ने सावरकर पर अपने लेख हिंदुत्व (पेंग्विन) में दिखाया है, हालाँकि सावरकर मुस्लिम धर्मसंबद्ध राजनीति पर जब-तब छींटाकशी करते रहे थे, वास्तव में धर्म उनकी राजनीति का आधार ही था और हालाँकि सावरकर 1857 को उसी तरह की एक राजनीतिक क्रांति समझते हैं, जैसी मैजिनी के इटली में हुई थी, फिर भी उनके हिसाब से इटली की उस क्रांति का सार भी जितना स्वशासन स्थापित करना था, उतना ही स्वधर्म स्थापित करना भी था। (शर्मा, पेंग्विन, पृ. 142)

स्वधर्म से परिभाषित स्वराज्य 

आखिर, स्वधर्म और स्वराज्य का एक-दूसरे से क्या संबंध है? सावरकर लिखते हैं कि ‘‘प्राचीन लोगों की धारणा’’ थी कि ये दोनों अभिन्न हैं, जिस तरह कि मैजिनी ने कहा था – ‘स्वर्ग और पृथ्वी को किसी बाँस के बीच में बाँधकर अलग नहीं किया गया है, ये दोनों तो एक ही वस्तु के दो छोर हैं। सावरकर के अनुसार,

‘‘स्वधर्म के बिना स्वराज्य तुच्छ है और स्वराज्य के बिना स्वधर्म बलहीन है। स्वराज्य नामक ऐहिक सामर्थ्य की तलवार स्वधर्म नामक साध्य के लिए हमेशा बाहर निकली रहनी चाहिए।’’ 

और यह भी कि – ‘‘स्वधर्म तथा स्वराज्य के साधन तथा साध्य तत्त्व इस 1857 के क्रांतियुद्ध में भी व्यक्त हुए।’’ (सा.स.खं.-5, पृ. 27) 

सावरकर के अनुसार, बहादुरशाह ज़फ़र के ऐलान में ही यह चेतावनी दे दी गयी थी, ‘‘इस तरह धर्म रक्षण के साधन गँवाने पर तुम परमेश्वर के दरबार में अपराधी और धर्मद्रोही माने जाओगे।’’ वह एलान से उद्धरण भी देते हैं। 

 ‘‘ईश्वर की आज्ञा है कि स्वराज्य प्राप्त करो क्योंकि स्वधर्म रक्षण का वह मूल साधन है, जो स्वराज्य को प्राप्त नहीं करता, जो गुलामी में तटस्थ रहता है, वह अधर्मी एवं धर्मद्रोही है। इसलिए, स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो।’’ 

पुनः सावरकर अपनी ओर से जोड़ते हैं – ‘‘स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो।’’ – इस तत्व में हिन्दुस्थान के इतिहास के कितने दैवी चमत्कार हैं। (सा.स.खं.-5, पृ. 28) 

जहाँ इसमें कोई शक नहीं है कि 1857 में ज्यादातर लोगों की विश्व दृष्टि में धर्म गहराई तक समाया हुआ था, वहीं यह भी सच है कि उक्त ऐलान का पूरा का पूरा स्वर खुद सावरकर के स्वर के अनुरूप चलता है, जबकि इस ऐलान का कोई ऐतिहासिक संदर्भ बताया ही नहीं गया है। इससे आगे सावरकर अनुमोदन के स्वर में रामदास का पूर्वोक्त उद्धरण दोहराते हैं और उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं – ‘‘धर्म हेतु मरे, मरते हुए सारों को मारें, मारते-मारते जीतें, राज्य अपना।’’ (सा.स. खंड-5, पृ. 27) 

यह स्पष्ट है कि 1907 में जब सावरकर ने 1857 पर अपनी पुस्तक लिखी थी, उनके लिए धार्मिक राजनीति ही जनता के संघर्षों का बुनियादी तर्क थी और इतिहास की संचालक शक्ति थी। सावरकर का स्वधर्म कोई बुद्ध का धर्म नहीं था। सावरकर का स्वधर्म हिंसा और घृणा से भरा हुआ था। वह स्वधर्म को किसी लौकिक कर्तव्य से भी नहीं जोड़ते हैं, जिसे इस तरह वह ऊँचा, धर्म के आसन से जुड़ा दर्जा दे रहे हों। कुछ इतिहासकारों के दावों के विपरीत, उनकी भाषा किसी अनीश्वरवादी की भाषा भी नहीं है। उनके लिए स्वतंत्रता का सीधा-सादा धार्मिक कर्तव्य है और स्वतंत्रता का लक्ष्य, धार्मिक इच्छा की ही अभिव्यक्ति है।

सांप्रदायिक राष्ट्र 

एक और भ्रांति यह है कि उनकी चिंता राष्ट्र की धारणा पर केंद्रित थी। इसके विपरीत, उनके लिए अंग्रेज़, मुगलों (मुसलमानों) से किसी भी तरह से भिन्न नहीं थे। उनके ख़िलाफ़ लड़ाई सिर्फ इसलिए हो रही थी कि 1857 में उनके हाथों में सत्ता थी। उनके लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध वैसा ही था, जैसा कि इससे पहले का मुसलमानों के खिलाफ युद्ध था; दोनों ही धर्म के अपमान के विरुद्ध प्रतिशोध का प्रतिनिधित्व करते थे। सावरकर की 1857 की पुस्तक में अगर कोई राष्ट्रवाद की या राष्ट्र के विचार को आज हम जिस रूप में जानते हैं, उस रूप में, इस विचार की तलाश करता है तो उसके हाथ विफलता ही लगेगी। यह तब है, जबकि यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि सावरकर कोई उन्नीसवीं सदी के किसान या आदिवासी नहीं थे कि उनके मानसिक जगत् पर धर्म हावी  होता। वह बीसवीं सदी के आरंभ में लिख रहे थे। उन्होंने योरप में काफी समय बिताया था और उदारवाद तथा राष्ट्रवाद के विचारों के संपर्क में आए थे। वह एक शैक्षणिक छात्रवृत्ति पर लंदन में वकालत की पढ़ाई करने तथा परीक्षा देने के लिए गये थे। 

यह धारणा कि सावरकर 1857 को एक ‘राष्ट्रीय’ युद्ध के रूप में देख रहे थे, वाकई सांप्रदायिकतावादियों का प्रक्षेपण है। उन्होंने ऐसा अपने लिए एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व गढ़ने की अपनी ज़रूरत के चलते किया था। जब वह राष्ट्र की बात करते हैं, वह हिन्दुत्व तथा हिन्दू राष्ट्र के विचार को स्वर देते हैं। 1909 में जब वह 1857 को स्वतंत्रता ‘युद्ध’ कहते हैं तो स्वतंत्रता युद्ध को एक ‘धर्मयुद्ध’ भी बताते हैं। हिंदू तथा मुसलमान मिलकर लड़ रहे थे, लेकिन मुसलमान अपने धर्म के लिए लड़ रहे थे और हिंदू अपने धर्म के लिए। 

विद्रोहियों द्वारा दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को अपने नेता के रूप में स्वीकार किये जाने पर वह लिखते हैं: ‘‘परंतु…यह … पुरानी मुगल सत्ता फिर से स्थापित करने या पुरानी जंगली प्रथा चालू करने के लिए भी नहीं था…. क्योंकि वैसा करने का अर्थ था गत तीन-चार शताब्तियों तक हिंदू शहीदों, हुतात्माओं ने अपनी स्वतंत्रता के लिए जो खून बहाया था, वह व्यर्थ गया, ऐसा माना जाना…. अरबस्तान की जंगली टोलियों ने इस्लाम को स्वीकार करते ही आक्रमण वृत्ति से पूर्व और पश्चिम में आक्रमण कर के प्रदेश को पदाक्रांत किया था। कहीं उनका प्रतिकार नहीं हुआ था…. इस अविरोध आँधी का … किसी ने विरोध किया हो तो भारत ने ही किया था…. पुणे से एक हिन्दू वीर भाऊसाहब पेशवा समर्थ सेना के साथ आक्रमण करने निकला और उसने दिल्ली के तख्त पर, सिंहासन पर कब्जा किया और हिन्दू संस्कृति पर लगा गुलामी का कलंक धो डाला। हिन्दुस्तान गुलामी उतारकर और पराजय पोंछकर फिर से स्वतंत्र हुआ। हिन्दू भूमि के हिन्दू ही फिर से मालिक हुए, धनी हुए।’’ (सा.स.खं.-5, पृ. 237-38) 

1857 के विद्रोह के एक निर्णायक क्षण का यह महत्त्वपूर्ण समाहार ऐसे बहुत सारे तत्त्व सामने ले आता है जो आज के सांप्रदायिक लेखन में आम हैं। इस पुस्तक में अलग से एक उप-अध्याय का शीर्षक ही दिया गया है – ‘हिन्दू धर्म और राज्य के लिए फिर एक बार जूझना होगा’। इसी प्रकार नाना साहब को पराजय के बाद विदा लेते हुए यह कहते हुए उद्धृत किया गया है – ‘‘एक बार पुनः हिन्दू धर्म व हिन्दू राज्य की पुनर्स्थापना के लिए प्रयत्न करने होंगे।’’ 

सावरकर की 1857 संबंधी पुस्तक में और भी बहुत कुछ है जो किसी भी धर्मनिरपेक्ष तथा मानवीय दृष्टिकोण से संचालित व्यक्ति को आपत्तिजनक लगेगा। लेकिन, स्थान की सीमा के चलते हुए उसकी चर्चा फिर किसी मौके के लिए छोड़ रहे हैं।

(नलिनी तनेजा मौलिक और महीन नज़र वाली प्रबुद्ध इतिहासकार हैं। उनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से सेवानिवृत्त हुई हैं और एक प्रतिष्ठित प्रकाशन `थ्री एसेज़` चलाती हैं।) 

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