विध्वंसक दौर के अंत की शुरुआत

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हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता! 

परेशान न हों, आप को ग़ज़ल सुनाने का मन नहीं है। सिर्फ़ यह कहना है कि कुछ चीज़ें त्वरित गति से होती हैं और कुछ धीमी गति से। मसलन बिजली बहुत तेज़ी से कड़कती है और समाप्त हो जाती है तथा मौसम बदलता है तो कुछ समय लेता है। हर क्रिया का अपना गुण-धर्म होता है और वह उसी हिसाब से घटती है।

जब आप कोई घर बनाना चाहते हैं तो आप के दिमाग़ में एक कोई कच्चा नक्शा उभरता है जिसे आप सिविल इंजीनियर को या राजगीर आदि को बताते हैं और धीरे-धीरे आपके घर के निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। इसमें मुख्य भूमिका आपके देखे हुए सपने की होती है और आप के पास उपलब्ध संसाधनों की भी होती है। इसके बाद आप जितनी बेहतर बुनियाद डालते हैं उसी हिसाब से आपका घर तैयार होता है। इस बीच आप कई किस्म के पेशे वालों – बढ़ई, ईंट-गारा जोड़ने वाले राजगीर से और जो भी लोग इस काम में जुड़े हैं, से सलाह मशविरा करते हैं। ऐसा इस लिए है कि न आप सब काम खुद जानते हैं और न ही कर सकते हैं और हां इसमें कुछ समय भी लगता है। बाकी आप विश्वकर्मा होने की ख़ुशफ़हमी पाले हैं तो  अलग बात है। 

ऊपर तो आप के घर की बात है जब देश संभालते हैं तो उसमें आप का विजन काम आता है। यह बहुत ही गंभीर किस्म का काम है। आपका एक निर्णय बहुतों की जिंदगी बदलने वाला होता है। हर क्षेत्र के लोगों से उस पर चर्चा की जाती है। उपलब्ध संसाधनों का विश्लेषण किया जाता है, प्राथमिकताएं तय की जाती हैं जहाँ कहीं कमी हो वह कैसे पूरी होगी उसकी रूपरेखा तैयार की जाती है और फिर काम को आगे बढ़ाया जाता है।

हमारी आर्थिक स्थिति आज बुरी स्थिति वाले मुल्कों में शुमार हो रही है। यह सच है की कोरोना ने दुनिया के हर किसी मुल्क की आर्थिक, स्वास्थ्य संबंधी और अन्य बुनियादों को हिला कर रख दिया है और भारत उसका अपवाद नहीं हो सकता। पर भारत की यह बुरी स्थिति पूर्ण रूप से महज कोरोना के कारण तो नही है। यह विगत छः बरसों के कुप्रबंध का परिणाम भी है। जब मनमोहन सिंह ने सत्ता छोड़ी तो स्थिति बुरी तो नहीं थी। 

जब नरेंद्र मोदी जी सत्ता संभाल रहे थे तो चाहिए था कि गंभीर और समझदार व्यक्तियों को महत्वपूर्ण विभाग सौंपते और आगे एक लक्ष्य लेकर् आगे बढ़ते परन्तु पिछले कार्यकाल में या इस कार्यकाल में एक आध अपवाद छोड़ दें तो कोई ढंग का मंत्री केंद्र में नहीं है। खास तौर से वित्त, रक्षा, गृह, मानव संसाधन आदि में। इसमें से कुछ तो बहुत ही नकारात्मक निर्णय के लिए जाने जाते हैं। इस स्थिति में जब बुनियाद ही ठीक न हो तो दीवार तो एक दिन हिलनी ही थी। कोढ़ में खाज परेशानी का सबब ये कि हर मामले में पीएमओ की दखलंदाज़ी।

जब आप को मुल्क के भविष्य से संबंधित निर्णय लेने थे तब आप तेल की गिरती कीमतों को अपने नसीब से  जोड़ रहे थे। बैंकिंग क्षेत्र को नकेल डाल कर सीधा करने वाले रघुराम राजन जैसी प्रतिभा को महज इस लिए आगे कार्यकाल नहीं दिया जा रहा था क्योंकि वे सरकार की लल्लो चप्पो वाले आर्थिक निर्णयों को दूर से नमस्कार करते थे। जीएसटी लागू करते समय बिना किसी आधारभूत संरचना, लागू करने के संभावित परिणामों के बिना अध्ययन के आप उसे मील का पत्‍थर  बताने पर उतारू थे।

नोट बदली को काले धन का सफ़ाया करने का हथियार बताया गया। जबकि एक के बाद एक निर्णय नकारात्मक परिणाम देते जा रहे थे। यदि समझदारी होती तो एक ग़लत निर्णय के बाद बहुत सारे आगे होने वाले निर्णय रोके जा सकते थे। पर यदि आदमी आत्म मुग्ध है तो यह कहां होना था। हार्ड वर्क बनाम हार्वर्ड जैसा जुमला आत्म प्रशंसा में हर सभा में बोला जा रहा था। और अब जब चारों खाने चित्त तो न नसीब काम आ रहा है न हार्ड वर्क बस “एक्ट ऑफ़ गॉड” का शोशा उछाल कर चुप्पी साध ली गई और देश को राम भरोसे छोड़ दिया गया। 

आज देश कंगाली के मुहाने पर खड़ा है ग्रामीण, मध्यवर्ग, युवा आक्रोशित और आंदोलित हैं। कुछ नेताओं की सभाओं में जनता के आक्रोश को रेखांकित किया जा सकता है। माननीय प्रधानमंत्री के खुद के करिश्माई भाषण को डिसलाइक मिल रहा है। जिस सूरज के कभी न डूबने की हांकी जा रही थी उसके चारों तरफ़ भरी दोपहर में बादल घिरते दिख रहे हैं।  

हाँ एक दो बातें अभी भी इस सरकार के पक्ष में हैं जैसे कि मुख्य धारा की मीडिया अभी भी जनता के मुद्दों को उठाने की जगह रिया और कंगना में उलझाए है और विपक्ष में इतनी सारी संभावनाओं के बीच भी विकल्प हीनता की स्थिति बरकरार है। परंतु इन सब के बीच वैकल्पिक मीडिया ने मोर्चा संभाल रखा है और नौजवान, किसान, युवाओं ने खुद विपक्ष की भूमिका अख्तियार कर ली है।

जिसका मुख्य कारण यह है की सारी जुमले बाजी फेल होते-होते जनता के पेट पर प्रत्यक्ष लात मार रही है। उसे समझ में आ रहा है कि वह नदी के उस किनारे खड़ा है जिसको बाढ़ का पानी तेज़ी से कटता जा रहा है और वह अब गिरा कि तब गिरा की स्थिति में है। अब कोई भी सरकारी तंत्र मंत्र, जुमला नहीं काम आ रहा है। यूँ तो कल क्या होगा, क्या समीकरण बनेंगे कहना मुश्किल है लेकिन परिवर्तन बहुत नज़दीक आकर दस्तक देते नज़र आ रहे हैं। 

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।

(गणेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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