यह कुछ और नहीं समाज के पतन की मौजूदा तस्वीर है!

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सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है। जिसमें एक युवक को कुछ लोग पकड़े हुए हैं और वह अर्ध-नग्न अवस्था में है। उसके दोनों हाथ पीछे बंधे हुए हैं। और उसको झुका कर एक शख्स पीछे से उसकी गुदा में लाल मिर्च डाल रहा है। और वह भी सिर्फ डाल नहीं रहा है बल्कि बाकायदा कलम से उसे अंदर धकेलने की कोशिश कर रहा है।

यह वीभत्स तस्वीर देखकर किसी का भी कलेजा दहल जाए। यह मध्ययुगीन तालिबानी दृश्य किसी आधुनिक समाज को शर्मसार करने के लिए काफी है। यह तस्वीर देखकर तो अब तक चारों तरफ आग लग जानी चाहिए थी। बिहार की सड़कें नौजवानों के पैरों से जाम हो जानी चाहिए थीं। देश के तमाम कैंपसों में इसकी प्रतिध्वनि सुनायी देनी चाहिए थी। लेकिन कहीं कोई जुंबिश तक नहीं है। 

सोशल मीडिया पर ज़रूर क्रांति हो रही है। टाइम लाइनें इस तस्वीर के शेयर और रिट्वीट से भर गयी हैं। कुछ घंटों के लिए सोशल मीडिया पर यह मसला ट्रेंड भी कर सकता है। और फिर इस तरह से मुद्दा आया-गया और उसकी इतिश्री हो जाएगी। लेकिन हमें समझना चाहिए कि यह घटना कोई सामान्य घटना नहीं है। यह मौजूदा दौर के बदलते समाज की तस्वीर है। 

पिछले दस सालों में इस देश में जो बोया गया था यह उसकी लहलहाती फसल है। ज्ञान-विज्ञान और तर्क को खारिज कर आस्था और अंधविश्वास के सहारे समाज को चलाने का जो तरीका था, यह उसका फल है। सड़क पर न्याय करने का जो रास्ता अख्तियार किया गया था और इस प्रक्रिया में न केवल राज्य के तौर पर स्थापित उसकी तमाम संस्थाओं को कमजोर किया गया बल्कि उसके समानांतर एक पूरा बर्बर तंत्र खड़ा कर दिया गया। यह उसका समूल निचोड़ है। 

पिछले दस सालों में आखिर किया क्या गया? मानव लिंचिंग का जो सूत्रपात हुआ। और फिर उसके रास्ते राज्य के संरक्षण में चुन-चुन कर मुसलमानों को निशाना बनाया गया। वह इसका बीज रूप था। सैकड़ों निर्दोष लोगों को बीफ सेवन और मांस तस्करी के नाम पर बर्बर तरीके से खुलेआम सड़कों पर हलाक कर दिया गया। आखिर यह किस सभ्य समाज में होता है? और कौन ऐसा सभ्य समाज है, जो इसकी इजाजत दे सकता है? ऐसा नहीं है कि यह सब कुछ अपने आप हो जा रहा था। 

इसके पीछे बाकायदा एक संगठित ताकत काम कर रही थी और उस ताकत के बारे में किसी को बताना नहीं है, वह पूरा देश जानता है। अगर कोई यह कहे कि सब कुछ स्वत:स्फूर्त तरीके से हो रहा था। तो ऐसा कहने वाला या तो भोला है या फिर बहुत ही शातिर। कोई पूछ सकता है कि आखिर किसी एक दौर में ही यह क्यों हुआ और फिर एकाएक बंद हो गया। यानि कि जब जरूरत थी तो करवाया गया और फिर सोची समझी रणनीति के तहत उसे वापस भी ले लिया गया। 

इतना ही नहीं इस बीच पूरी राज्य मशीनरी कानून को ताक पर रख कर, इसी तरह के तालिबानी राज को मजबूत करने में मदद कर रही थी। यह बुल्डोजर न्याय क्या है? कानून को ताक पर रखकर बगैर किसी न्यायिक प्रक्रिया का पालन किए प्रशासनिक मशीनरी द्वारा तत्काल दिए गए फैसले को ही तो बुल्डोजर न्याय कहते हैं? 

आखिर यह राज्य को किस तरफ ले जाएगा? राज्य को पता होना चाहिए कि कुछ और नहीं बल्कि इसके जरिये वह खुद अपना ही इकबाल कमजोर कर रहा है। वह अपनी शक्ति को एक ऐसी बर्बर ताकत को सौंप रहा है जो कल उसके आगे पहाड़ बनकर खड़ी हो जाएगी और फिर उसे संभाल पाना उसके लिए मुश्किल हो जाएगा। वह एक ऐसा भस्मासुर पैदा कर रहा है जो खुद उसकी ही बलि ले लेगा। 

यूपी में तो बाकायदा मजनू विरोधी अभियान के रास्ते और सत्ता के खुले संरक्षण में इसको आगे बढ़ाया गया। लंपटों की पूरी फौज को इस काम में लगा दिया गया। बेरोजगारी के चलते आवारा घूम रहे लोगों को भी लगा कि उन्हें काम मिल गया है। मकसद था प्रेम और मुहब्बत को रोक कर समाज में नफरत और घृणा का विष फैलाना। और फिर इसे लव-जिहाद की उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया गया। 

अनायास नहीं रोजाना कोई न कोई ऐसी खबर मिलती रहती है, जिसमें बेवजह किसी मुस्लिम लड़के को किसी हिंदू लड़की के साथ दिखाया जाता है। ज्यादातर तो खबरें फेक और फैब्रिकेटेड होती हैं जिसमें बाकायदा हिंदू लड़के को मुस्लिम लड़का बताकर पेश कर दिया जाता है। या फिर कई मौकों पर ऐसा देखा गया है कि हिंदू लड़का ही बुर्का पहन कर सांप्रदायिक हरकतों को अंजाम दे रहा है। इन सब मामलों में पुलिस या तो मूक दर्शक बनी रहती है या फिर जान बूझ कर मुसलमानों को प्रताड़ित करती है।

देश और समाज में यह तालिबानी अभियान किस स्तर पर पहुंच गया है, इसकी ताजा बानगी असम के मुख्यमंत्री हेमंत विस्व सरमा का बयान है। जिसमें उन्होंने कहा है कि वह मियां लोगों को ऐसी छूट नहीं दे सकते हैं जिससे एक दिन वो पूरे असम पर ही कब्जा कर लें। 

संविधान की शपथ लेकर कुर्सी पर बैठा एक शख्स खुलेआम ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है जिसकी इजाजत न तो संविधान देता है और न कोई आधुनिक समाज। लेकिन इसका संज्ञान लेने वाला कोई नहीं है। न तो कोर्ट और न ही कोई ऊपरी महकमा। सामान्य परिस्थितियों में इस तरह का बयान देकर क्या कोई मुख्यमंत्री एक दिन के लिए भी अपनी कुर्सी पर बना रह सकता था? लेकिन यहां बने रहने को कौन कहे वह सज्जन बीजेपी के पोस्टर ब्वॉय हैं और विभिन्न राज्यों के चुनाव में पार्टी के स्टार प्रचारक बने हुए हैं। यह सब उनको अपनी इन्हीं ‘योग्यताओं’ के चलते मिला हुआ है।

पिछले तीस सालों में एक आधुनिक, सेकुलर और सभ्य समाज को धर्म, जाति, क्षेत्र और न जाने कितनी इकाइयों के जरिये टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया गया। नतीजतन कबीलाई सोच और जातीय दंभ तथा धार्मिक कट्टरता और हर तरह के पिछड़ेपन ने पूरे समाज की चिंतन प्रक्रिया को अपने घेरे में ले लिया है। और विज्ञान, तर्क और आधुनिकता के आधार पर बनने वाला समाज इतिहास का विषय बनता जा रहा है। 

ऐसे में उसकी तार्किक परिणति इसी तरह की घटनाओं में हो रही है। इसी की एक दूसरी बानगी कल ही उत्तराखंड में दिखी। घृणा और नफरत का विष खाकीधारियों के खून में भी किस तरह से दौड़ने लगा है, यह घटना उसका सबूत है। यहां एक मुस्लिम युवक को पुलिस ने पहले पीटा और फिर उसे तालाब में डूबने के लिए फेंक दिया। कुछ नागरिकों ने जब उसे बचाने की कोशिश की तो उन्हें उसे बचाने से भी रोक दिया गया। और अंत में उस युवक की मौत हो गयी। 

अब इस मौत के बारे में क्या कहा जाए। यह सरेआम खाकी वर्दी द्वारा की गयी हत्या नहीं तो और क्या है? लेकिन इसमें उस पुलिसकर्मी को सजा नहीं मिलेगी बल्कि प्रमोशन मिलेगा। इसमें सत्ता में बैठी पार्टी कठघरे में नहीं खड़ी की जाएगी बल्कि उसके वोटों का और कंसालिडेशन होगा। ऐसे में समझा जा सकता है कि समाज किस पतन की ओर है। 

और हम कैसा समाज विकसित कर रहे हैं? भविष्य में यह कितना बर्बर और वहशियाना होगा इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। जिन लोगों को पहले यह लग रहा था कि यह सब कुछ मुसलमानों तक सीमित रहेगा और हिंदू इससे बचा रहेगा। उन्हें अभी भी वक्त है, चेत जाना चाहिए। बिहार की घटना और इसी तरह से कई हिंदू ठिकानों पर चलाए गए बुल्डोजर बताते हैं कि आने वाले दिनों में हिंदू भी उसके शिकार होंगे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। चीजें आपके नियंत्रण से बाहर जा चुकी होंगी। और पूरा समाज एक मध्ययुगीन बर्बर तालिबानी समाज में तब्दील हो चुका होगा। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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