आज के अखबारों में एक खबर प्रमुखता से है, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार से बैंकों के 98 प्रतिशत खाताधारक सुरक्षित। मैं हिन्दी अखबार नहीं पढ़ता और उनका तो नहीं पता पर हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर आज लगभग इसी शीर्षक से लीड है। दरअसल, यह शीर्षक ही इस खबर को इतनी प्रमुखता देने लायक नहीं है और मुझे नहीं लगता कि यह खबर भी है। बैंकों में 98 प्रतिशत खाता धारकों का पैसा सुरक्षित है, यह कैसी खबर है? पैसे तो 100 प्रतिशत खाता धारकों का सुरक्षित होना चाहिए। 98 प्रतिशत का ही क्यों?
द हिन्दू में इस खबर के शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “आरबीआई और प्रधानमंत्री ने मुश्किल वाले शहरी सहकारी बैंकों में सुधार के संकेत दिए”। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक खबर ही नहीं है। खबर द हिन्दू से मिलती है और खबर यह है कि मुश्किल में फंसे कुछ शहरी सहकारी बैंकों में सुधार के संकेत दिए गए हैं। हालांकि खबर यह बताती है कि सुधार के संकेत हैं। सुधार हो ही गए हैं यह नहीं कहा जा रहा है। फिर भी। द हिन्दू की खबर का उपशीर्षक है, गवरनर (रिजर्व बैंक के) ने जमाकर्ताओं को चेतावनी दी है कि वे ज्यादा लाभ के चक्कर में न पड़ें। मुझे लगता है कि यह भी कोई नई बात नहीं है और मैं तो बचपन से सुनता रहा हूं कि ज्यादा ब्याज खतरनाक होता है।
वैसे भी लालच बुरी बला है और लालच नहीं करना चाहिए यह सब बचपन में ही बता दिया गया है। दरअसल खबर यह है कि बैंक डिपॉजिट इंश्योरेंस कवर को एक लाख से बढ़ाकर पांच लाख रुपये कर दिया गया है। प्रचारक इसे बैंक सुधार के क्षेत्र में बड़ा कदम बता रहे हैं। बैंक में आपके छह लाख या एक करोड़ डूब जाएं, बैंक आपको पांच लाख रुपए देगा – यह बड़ा सुधार है। अव्वल तो अच्छे सरकारी (या निजी अथवा विदेशी बैंकों) में पैसे डूबते नहीं है (और डूबना नहीं चाहिए यह सुनिश्चित करना सरकार का काम है) और जहां डूबते हैं वहां पांच लाख का बीमा कौन सी बड़ी बात है? और अगर यह राशि पहले एक लाख थी तो पांच लाख कर दिया जाना कौन सा सुधार हो गया? पहले रेल दुर्घटना सरकार की जिम्मेदारी होती थी, मुआवजा सरकार देती थी। अब रेल यात्रियों का बीमा कर दिया जा रहा है। उन्हीं के पैसे से।
आप जानते हैं कि नोटबंदी और बिना तैयारी के जीएसटी लागू करने से देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है और इसमें कइयों के धंधे-दुकान चौपट हो गए हैं। सरकारी भी। सरकार के समर्थक या ‘मेहुल भाई’ जैसे लोग बैंकों का कर्जा लेकर, कारोबार खराब होने पर किस्तें न चुकाने पर होने वाली कार्रवाई से बचने के लिए विदेश भाग चुके हैं। ऐसे में बैंकों का भी धंधा खराब हुआ है और शहरी कोऑपरेटिव बैंक के साथ एक निजी बैंक में भी लोगों की जमाराशि डूबी (यां फंसी हुई) है। दरअसल बैंकों का डूबना दूसरे धंधों के खराब होने की ही तरह है। पर किसी का कारोबार बंद हो जाए तो वह अकेले भुगतता है और कुछ लोग आत्महत्या भी कर लेते हैं। बैंक बंद हो जाए तो वो सब लोग प्रभावित होते हैं जिनकी जमा राशि पहले के एक लाख और अब पांच लाख के बीमे से ज्यादा होती है।
इसमें कोई खबर नहीं है। खबर यह है कि अभी भी सरकार ने 100 प्रतिशत राशि सुनिश्चित नहीं की है। बैंकों से जब सरकार कर्ज और मासिक सम्मान राशि दे रही है, लाभांश ले रही है और रिजर्व बैंक से जबरन सुरक्षित राशि ले ली गई है तो बैंकों में जमा राशि की गारंटी सरकार को ही देना चाहिए। बैंक उसी की अनुमति से, उसकी निगरानी में उसके नियमों के अनुसार चलते हैं। ऐसे में ग्राहक का पैसा किसी कारोबारी की ही तरह मालिक को ही देना सुनिश्चित करना होगा जैसे सरकार बिल्डर से दिलवाना चाहती है या लोग सरकार से उम्मीद करते हैं। ऐसे में सरकार ने बीमा करवाकर और वह भी पांच लाख का ही, कोई तीर नहीं मारा है जिसे प्रचार बना दिया गया है।
अमर उजाला जैसे दूसरे स्तर के प्रचारक अखबार ने (इंटरनेट पर) इस खबर का शीर्षक लगाया है, “पीएम मोदी बोले- हो सकता है कि किसी की गलती से बैंक डूबे, लेकिन अब किसी जमाकर्ता का पैसा नहीं डूबेगा”। सवाल है कि पहले कहां डूबता था? डूबना तो 2014 के बाद शुरू हुआ है। और डूबना छोड़िए बैंक में पैसे रखने, निकालने का चार्ज लगना भी अब शुरू हुआ है। इसे हमलोग बैंक से पैसे गायब होना कहते हैं। ब्याज भी अब कम हुआ है और नोट की साख भी आपने ही डुबोई है। पर सब भूलकर अब ऐसा प्रचार बेशर्मी नहीं तो और क्या है? आप जानते हैं कि बीमा बीमारी का इलाज नहीं बीमारी से लड़ने में सहायता है। और यह सहायता कितनी सफल है इसका पता फसल बीमा योजना और स्वास्थ्य बीमा योजना के लाभ से चलता है।
दरअसल, ज्यादा बीमा से बीमा करने वाली कंपनियों को लाभ होता है। बीमा कराने वाले को हो या नहीं। पर देश में अस्पतालों की जरूरत थी तो सरकार बीमा करवा रही थी और उसका असर आप देख चुके हैं। कोविड-19 की खास जरूरत के लिए पीएम केयर्स फंड से जो वेंटीलेटर खरीदे जाने थे उसमें कितने खरीदे गए और काम लायक हैं या कर पाए इसका हिसाब सरकार, पीएमओ या सत्तारूढ़ पार्टी ने नहीं दिया है और ना ही आरटीआई से मिली है। ऐसे में बीमा की आज की खबर बैंक खाता धारकों के लिए नहीं बीमा कंपनियों के लिए है। द टेलीग्राफ में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। और हिन्दुस्तान टाइम्स या द ẞ अथवा अमर उजाला जैसे शीर्षक के साथ बिजनेस पेज पर भी नहीं है। इससे भी आप इस खबर का महत्व समझ सकते हैं।
अगर बैंक में जमा राशि की सुरक्षा इतनी ही जरूरी है और सरकार की राय में यह राशि सुरक्षित नहीं है तथा बीमा कंपनियों को कारोबार ही देना है तो खाताधारकों पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह कितने का बीमा करवाता है। या हर खाता धारक के लिए अपने कुल कारोबार का बीमा करवाना बाध्यकारी कर दिया जाना चाहिए जैसे मोटर वाहनों के लिए तीसरी पार्टी का बीमा जरूरी है। हालांकि, इससे बैंकों की विश्वसनीयता मिट्टी में मिल जाएगी और सरकार ऐसा नहीं कर सकती है। लिहाजा, विश्वसनीयता को मामूली नुकसान पहुंचाते हुए अपना प्रचार कर रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि बैंकों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाना देश विरोधी हरकत है। ना तो बैंक डूब रहे हैं और ना ही बैंकों का डूबना रोकना मुश्किल है। पर सरकार की नीयत तो साफ हो।
(वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह का लेख।)