Saturday, April 20, 2024

यह सिस्टम हमारे लिए फेल हुआ है, उनके लिए नहीं

पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर हाहाकार मचा हुआ है कि हमारा सिस्टम फेल हो गया है, लेकिन क्या हमने यह सोचा है कि यह सिस्टम किसके लिए फेल हुआ है? आजादी के बाद यह सिस्टम किसने बनाया था और किसके लिए बनाया था? अगर इन सवालों पर हम विचार करें तो इस बात को समझ जाएंगे कि आजादी के बाद जो ‘सिस्टम’ बना उसका मूल स्वरूप क्या था? यह सिस्टम किस के हितों की रक्षा कर रहा था? इस सिस्टम की क्या विश्वसनीयता थी और यह सिस्टम कितना कारगर था?

सच पूछा जाए तो यह सिस्टम हमारे आपके लिए फेल हुआ है, उनके लिए नहीं। सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला के लिए यह सिस्टम फेल नहीं हुआ है जो पिछले दिनों यह कह कर भारत छोड़कर लंदन  चले गए कि उनकी जान को खतरा है। अगर आपकी हमारी जान पर खतरा हो तो क्या हम भारत छोड़कर ब्रिटेन जा सकते हैं? यह सिस्टम अंबानी के लिए फेल नहीं हुआ है, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उनका पूरा परिवार भारत छोड़कर विदेश चला गया है।

पिछले दिनों मैंने अपने एक मित्र का हाल चाल लेने के लिए फोन किया तो पता चला कि वे दिल्ली के कोरोना संकट से बचने के लिए पहाड़ी इलाके में चले गए हैं और होटल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। यह सिस्टम उनके लिए भी फेल नहीं हुआ है, क्योंकि उनके पास इतने संसाधन हैं कि वह अपनी कार ड्राइव कर या अपने ड्राइवर के साथ किसी पहाड़ी इलाके में चले जाएं और होटल में रहकर कई महीने गुजार सकें, लेकिन यह सिस्टम फेल हुआ है तो हमारे आपके लिए जिसके पास कार नहीं है।

अगर कार है तो इतने पैसे नहीं हैं कि होटल का बिल चुकाने का पैसा है और न ही इतना बड़ा मकान है कि लोग एक एक कमरे में क्वारंटाइन हो सकें तथा सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर सकें। यह सिस्टम उनके लिए फेल नहीं हुआ है, जो पटना में 40000 में सिलेंडर खरीद रहे हैं और 80000 रुपये दे कर एक नर्स को अपने यहां रख रहे हैं, या पांच हजार रुपये देकर डॉक्टर घर पर बुला रहे हैं। यह सिस्टम उनके लिए फेल हुआ है, जिनके पास न तो सिलेंडर के पैसे हैं और न ही ऑक्सीजन भराने के पैसे हैं।

इसी सिस्टम में लोग 20000 रुपये देकर रेमेडिसविर  इंजेक्शन खरीद रहे हैं तथा प्लाज्मा डोनर को 25 हजार रुपये देकर उससे प्लाज्मा ले रहे हैं। करोना की वजह से समाज में अब चीख-पुकार अधिक मच गई है तथा निम्न वर्ग और मध्यवर्ग परेशान होकर यह कहने लगा है कि सिस्टम फेल हो गया है। सोशल मीडिया पर उसका दुखड़ा रोज देखा और पढ़ा जा सकता है, लेकिन उसने पहले इस सिस्टम पर सवाल नहीं उठाया। वह ड्राइंग रूम में टीवी के सामने मन की बात सुनकर मस्त था। वह सास भी कभी बहू देखकर या महाभारत देखकर या क्रिकेट मैच देखकर मस्त था। वह छुट्टियां मनाने ब्रिटेन  सिंगापुर मनाली चला जाता था। वैसे सिस्टम के बारे में उसकी यह चिंता जायज है और यह सवाल भी मौजू है कि सिस्टम फेल हो गया है, लेकिन आजादी के बाद हमने जो प्राथमिकताएं तय कीं, उससे यह हादसा होना ही था।

प्रिंट मीडिया में कभी-कभार यह मुद्दा उठता रहा कि हमारे देश में स्वास्थ्य का बजट बहुत कम है। यहां तक कि वह बांग्लादेश से भी कम है, लेकिन मीडिया के लिए यह बहुत अधिक चिंता का विषय नहीं रहा और उसके एजेंडे पर यह कभी नहीं रहा। इलेक्ट्रॉनिक चैनल को संबित पात्रा, रामदेव या कंगना रनावत जैसी फिल्मी हीरोइनों से फुरसत हो तब तो वे स्वास्थ्य के बजट पर बहस कराएं। शायद यही कारण है कि हमने इस समस्या की तरफ अधिक ध्यान नहीं दिया।

यह समस्या नीति निर्धारकों के सामने भी नहीं रही। चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की सरकार हो या संयुक्त मोर्चा की सरकार हो या राज्यों में समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल द्रमुक बसपा अन्नाद्रमुक तृणमूल या वामपंथी पार्टियों की सरकार हो। स्वास्थ्य किसी पार्टी के प्रमुख एजेंडे में ऊपर नहीं रहा। असल में पिछले 40 सालों से भारत में धर्म की राजनीति चल रही है, जिसमें मंदिर निर्माण सबसे प्रमुख मुद्दा है। कहीं सरदार पटेल की मूर्ति बनाना राष्ट्रीय गौरव का विषय है, किसी के लिए गौ रक्षा करना ही उसका परम धर्म और कर्तव्य है।

किसी के लिए मस्जिद और गुरुद्वारे में शीश नवाना उसके जीवन की परम अभिव्यक्ति है। किसी के लिए पाकिस्तान ही सबसे बड़ी चिंता का विषय है और किसी में राष्ट्रभक्ति का ऐसा  तूफान मच रहा है कि वह अपनी देशभक्ति को सिद्ध करने के लिए दिन-रात परेशान और बेचैन है। वह अब भक्त हो गया है। उसे इस बात की तनिक भी परवाह नहीं है कि उस का स्वास्थ्य कैसा है, उसके बाल बच्चों का स्वास्थ्य कैसा है? उसके माता-पिता का स्वास्थ्य कैसा है? और उसकी पत्नी तथा भाई का स्वास्थ्य कैसा है? वह तो दहेज ले कर खुश है। वह अपनी शादी में लाखों रुपये खर्च  कर मस्त है।

वह आलीशान मकान बनाकर ही मस्त है, लेकिन उसने कभी यह नहीं सोचा किस मुल्क में स्वास्थ्य का इतना बुरा हाल क्यों है? क्यों उसके गांव में कोई अच्छा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है? क्यों उसके मोहल्ले में कोई अस्पताल नहीं है? क्यों उसके शहर में कोई जनता अस्पताल नहीं है जहां हर रोगों का सुविधाजनक ढंग से इलाज हो सके, लेकिन इस देश में सड़क बनाने, फ्लाईओवर बनाने स्टेडियम बनाने, पांच सितारा होटल बनाने, शापिंग मॉल बनाने, फार्म हाउस बनाने और अब सेंट्रल विस्टा प्लान के लिए हजारों करोड़ रुपये मौजूद हैं, लेकिन एक अच्छे अस्पताल की परिकल्पना उनकी समझ से बाहर है।

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी की इस बात के लिए जबरदस्त खिंचाई की गई कि उन्होंने कोरोना महामारी के काल में सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को क्यों जारी रखा है? उसे वह स्थगित क्यों नहीं कर देते या उस पर होने वाले पैसे को वह टीकाकरण योजना में या मरीजों को सिलेंडर तथा ऑक्सीजन देने जैसी योजना में खर्च क्यों नहीं करते? लेकिन उम्मीद तो उस से की जाती है, जिसके पास शर्म-हया बची हो और थोड़ी मनुष्यता तथा संवेदनशीलता बची हो, लेकिन जब बादशाह को इसकी चिंता न हो और वह आलीशान महल में रहने के लिए इतना बेताब हो कि वह घोषणा कर बैठे कि अगले वर्ष दिसंबर तक उसका महल हर हालत में तैयार हो जाए तो उस बादशाह से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं?

नीरो से किसी को उम्मीद नहीं है कि वह आग बुझाने आए। वह तो अपने स्वभाव के अनुसार बांसुरी बजाएगा ही, लेकिन एक बादशाह को गाली दे कर पिछले बादशाहों के कारनामों पर भी पर्दा नहीं डाला सकता, क्योंकि उन्हें भी जब ऐसा मौका मिला वह अपनी सुख-सुविधा का ख्याल रखते रहे चाहे इस देश में बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे बनाने का मसला हो या मंत्रियों के शानदार बंगले और आवास बनाने का मसला हो या विज्ञान भवन जैसे कन्वेंशन सेंटर बनाने का मसला हो या प्रगति मैदान को नए सिरे से एक अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर में तब्दील होने की कल्पना हो।

नीति निर्धारकों ने यह नहीं सोचा कि राजधानी में अब एक एयर एम्स जैसा अस्पताल बनाया जाए या फिर अपोलो और मैक्स अस्पतालों पर अंकुश लगाया जाए कि वह मरीजों से इतना लूट क्यों रहे हैं, लेकिन कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की या संयुक्त मोर्चा की या अन्य दलों की, सबका गठजोड़ अस्पताल माफिया से रहा है और किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि वे इन पर अंकुश लगाएं, क्योंकि उन्हें अपोलो-मेदांता में फोर्टिस में मैक्स में बेड  मिल जाता है। वह वहां अपना इलाज कराते हैं। वह कभी नहीं आम मरीजों की तरह घंटों लाइन में खड़े रहते हैं और दवा दारू के लिए भटकते फिरते है, इसलिए नीति निर्धारकों को इस पीड़ा का एहसास ही नहीं है, क्योंकि उनके सारे काम बहुत आसानी से हो  जाते हैं।

नौकरशाही का एक बड़ा वर्ग इन बड़े अस्पतालों में सरकारी खर्च पर या इंश्योरेंस के आधार पर अपना इलाज करा लेता है, लेकिन एक  आम आदमी के पास इंश्योरेंस नहीं है, और न इतने पैसे कि वह अपने दिल का ऑपरेशन करा पाए। कैंसर के इलाज की तो बात ही मत पूछिए। क्या शासक दल ने कभी इस बात के लिए सोचा कि गरीब आदमी अपना इंश्योरेंस कैसे कराए, जबकि आज इंश्योरेंस कंपनियां 500000 का बीमा कराने के लिए साल में 40000 रुपये ले रही हैं और शुरू के दो-तीन वर्ष तक वह इंश्योरेंस का लाभ भी नहीं देती हैं। इसके अलावा बहुत सारे रोगों को इंश्योरेंस में शामिल भी नहीं किया गया है।

इतना ही नहीं प्राइवेट अस्पतालों के साथ उनकी ऐसी मिलीभगत है कि उन्होंने हर रोग के इलाज के लिए एक पैकेज  सिस्टम डेवलप कर दिया है और आपको उस पैकेज के हिसाब से अपने इंश्योरेंस में से पैसे देने होंगे। आपका नियंत्रण उस पर नहीं है। इतना ही नहीं कोई मरीज अगर सीधे कैशलेस इलाज करवाता है तो उसी ऑपरेशन के लिए उसे दोगुनी राशि देनी पड़ती है, लेकिन अगर वह कैश देकर इलाज करवाता है तो उसी ऑपरेशन के लिए उसे आधी राशि देनी पड़ती है। इस फ्रॉड को रोकने के लिए कोई उपाय नहीं है, क्योंकि मीडिया ने भी कभी इस सवाल को नहीं उठाया कि अपने देश में आखिर इस तरह का कैशलेस सिस्टम क्यों है?

अब तो निजी इंश्योरेंस कंपनियां भी काफी बाजार में आ गई हैं और वह मनमाने ढंग से अपने नियमों, कानूनों और शर्तों को लोगों पर लागू करती हैं। क्या नौकरशाही में इतनी हिम्मत है कि वह इसे नियंत्रित कर सके। दरअसल सरकार के सामने जानलेवा बीमारियों की रोकथाम के लिए कोई नीति नहीं है। किसी सरकार ने यह नहीं सोचा कि आखिर कैंसर की दवाई इतनी महंगी क्यों है? जब रामविलास पासवान मोर्चा सरकार में मंत्री थे तो उनसे कहा गया की 16 साल से कम उम्र के कैंसर पीड़ित बच्चों के लिए मुफ्त इलाज हो पर वे अपना आश्वासन पूरा नहीं कर पाए और स्वर्ग भी सिधार गए।

पिछली सरकार ने यह घोषणा जरूर की कि उसने जीवन रक्षक दवाइयों की कीमत पर नियंत्रण किया है, लेकिन अभी भी वह दवाइयां इतनी महंगी हैं कि एक आम आदमी उन दवाइयों को खरीदने की स्थिति में नहीं है। दिल्ली के बंगला साहिब  गुरुद्वारे में एक दवा की दुकान ऐसी खुल गई है जिस पर दवाएं बाजार की रेट से काफी सस्ती मिलती हैं। अगर एक गुरुद्वारा ऐसी व्यवस्था कर सकता है तो सरकार मोहल्ले में ऐसी दुकानें क्यों नहीं खोली जा सकती हैं। यह काम मंदिर और मस्जिद क्यों नहीं कर सकते।

कहने को सरकार ने  जन औषधि केंद्र खोले हैं, लेकिन उस केंद्र पर भी जीवन रक्षक दवाइयां नहीं मिलती और सारी दवाइयां भी नहीं मिलतीं। यह औषधि केंद्र इतनी कम संख्या में हैं कि लोगों को इनकी जानकारी नहीं है। इसके अलावा हमारे देश के डॉक्टर भी केवल ब्रांडेड दवाइयां लिखते हैं। वह जेनरिक दवाइयां नहीं लिखते हैं, इसलिए एक आम नागरिक को जेनेरिक दवाइयां नहीं मिलती हैं। इसलिए यह सिस्टम हमारे आपके लिए फेल हुआ है, उनके लिए नहीं हुआ है, जो कोरोना काल में अपने लिए अस्पताल में बिस्तर भी पहले से बुक करा कर रखते हैं और कई लोग तो अस्पताल से ठीक होने के बाद भी एक बिस्तर वहां आरक्षित कर लेते हैं, ताकि उनके परिवार में कहीं कोई आपात स्थिति हुई तो उन्हें फौरन बेड मिल जाए।

ऐसे में सिस्टम की बात करना भी बेमानी हो गया है। दरअसल इस देश में दो तरह के सिस्टम बनाए गए हैं। एक सिस्टम गरीबों के लिए और एक सिस्टम अमीर और ताकतवर लोगों के लिए। अमीर और ताकतवर लोगों के लिए सिस्टम अभी फेल नहीं हुआ है। केवल गरीब और वंचित लोगों के लिए यह सिस्टम फेल हुआ है। सच पूछा जाए तो आजादी के बाद उनके लिए कोई सिस्टम बना ही नहीं।

(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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