Wednesday, April 24, 2024

तीन कृषि कानूनः मेक्सिको से सबक ले भारत, कॉरपोरेट ने तबाह की खेती-किसानी और बढ़ गई बेरोजगारी

(शेष भाग…)
मई 2018 में अमरीका ने दावा किया कि भारत 10 प्रतिशत की सब्सिडी की सीमा का उल्लंघन कर रहा है। बदनीयती से की गई इस गणना में आधार वर्ष 1986-88 की डालर कीमतों को उसी वर्ष की दर (1 डालर =12.5 रुपये) से रुपये में बदला गया, जिससे 2013-14 में भारत के बाजार में गेहूं और चावल की खरीद 354 रुपये और 235 रुपये प्रति क्विंटल के रेट से होनी चाहिए थी जबकि सरकार ने उस साल क्रमशः 1386 और 1348 रुपये समर्थन मूल्य पर खरीद की थी।

इस लगभग 1000 रुपये प्रति क्विंटल खरीद को कुल उत्पादन से गुणा करके अमरीका ने दावा किया कि भारत गेहूं के कुल उत्पादन के 67 प्रतिशत और चावल के कुल उत्पादन के 77 प्रतिशत के बराबर सब्सिडी दे रहा है, जबकि 2013-14 के डालर रेट (1 डालर=60.5 रुपये) और वास्तविक खरीद (जो कुल उत्पादन के 10 प्रतिशत से भी कम थी) के आधार पर गणना करने पर समर्थन मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार मूल्य से लगभग 400 रुपये प्रति क्विंटल कम बैठ रहा था, अर्थात भारत में सब्सिडी ऋणात्मक थी।

WTO में कृषि सब्सिडी को तीन खानों में बांटा गया है- हरा, नीला और पीला। हरे और नीले खाने में वे तमाम सब्सिडी आती हैं जो मुख्यतः अमीर विकसित देशों में दी जाती हैं और उन्हें व्यापार को ‘विकृत’ करने वाला नहीं माना गया है। इनके ऊपर कोई सीमा नहीं लगाई गई है। इनमें कृषि और ग्रामीण समुदाय की सेवा और लाभ के लिए खर्च, खाद्य सुरक्षा के लिए सार्वजनिक भंडारण पर खर्च, घरेलू खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर खर्च और उत्पादन में कटौती इत्यादि के लिए प्रत्यक्ष सहायता इत्यादि शामिल हैं।

पीले खाने की सब्सिडी व्यापार को विकृत करने वाली मानी गई है, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद जैसे उपाय शामिल हैं। समझौता होते ही इन देशों ने चतुराई से अपनी अधिकांश सब्सिडी को हरे खाने की सब्सिडी में बदल दिया। उदाहरण के लिए अमरीका ने अपने किसानों को दी जाने वाली 88 प्रतिशत सब्सिडी को हरे खाने की सब्सिडी में बदल दिया और इस तरह उसने 1995 की अपनी कुल कृषि सब्सिडी, 61 अरब डालर को 2015 में 139 अरब डालर तक पहुंचा दिया, यानी लगभग 128 प्रतिशत की भारी वृद्धि।

इसके बरअक्स भारत की हरे खाने की सब्सिडी 2014-15 में 20.8 अरब डालर से घटकर 2015-16 में केवल 18.3 अरब डालर रह गई। इसमें से खाद्य सुरक्षा के लिए भंडारण का खर्च 17.1 अरब डालर था, 2015-16 में घटकर 15.6 अरब डालर रह गया। 2008-18 के बीच अमरीका की कृषि सब्सिडी के 10 सबसे बड़े प्राप्तकर्ताओं को सालाना औसतन 18 लाख डालर (लगभग 13 करोड़ रुपये) की सब्सिडी दी गई जो एक अमरीकी परिवार की औसत आय का 30 गुना था।

इस तरह अमरीका और अन्य विकसित देश अपनी कॉरपोरेट खेती को भारी सब्सिडी देकर दुनिया के कृषि बाजार पर कब्जा करना चाहते हैं, जबकि भारत जैसे देशों पर, जहां बहुतायत छोटे और सीमांत किसान हैं और आधी से ज्यादा आबादी खेती पर निर्भर है, अपनी पहले से ही न्यूनतम स्तर पर मौजूद सब्सिडी को खत्म करने के लिए दबाव डाल रहा है। इसके अलावा मुद्राकोष और विश्व बैंक के जरिए सूदखोर वित्तीय पूंजी भी वित्तीय घाटा कम करने और सब्सिडी खत्म करने का दबाव बनाए हुए हैं।

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे सूदखोर कभी नहीं चाहेंगे कि किसानों की आय बढ़े। सूदखोर पूंजी का हित ज्यादा से ज्यादा सूद वसूलने में होता है, उत्पादन बढ़ाने में नहीं और इसके लिए वे चाहते हैं कि वास्तविक ब्याज दरें बढ़ें (ब्याज दर-मुद्रास्फीति की दर)। अगर ब्याज दरें पांच प्रतिशत हैं और मुद्रास्फीति की दर भी पांच प्रतिशत है तो उनकी वास्तविक आय में कोई वृद्धि नहीं होती, इसलिए वे हमेशा मुद्रास्फीति को कम करने और बजट घाटा संतुलित करने पर जोर देते हैं और तथाकथित ‘मितव्ययिता के उपायों’ पर बल देते हैं।

हालांकि मांग के अनुरूप कृषि उत्पादन को बढ़ा कर भी मुद्रास्फीति को कम किया जा सकता है, लेकिन इसमें उनकी कोई रुचि नहीं होती। बेरोजगारी बढ़ने के बावजूद वे सरकारों से सार्वजनिक खर्चों का बजट घटाने के लिए कहते हैं, क्योंकि खर्च बढ़ाने से रोजगार बढ़ते हैं, जिससे मांग बढ़ जाती है और मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा रहता है।

इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि हमारी अपनी चुनी हुई सरकारें, हमारे प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, हमारे अर्थशास्त्री और हमारे नीति आयोग के सदस्य ही देश की कृषि अर्थव्यवस्था को तबाह करके खेती के साम्राज्यवादी पुनगर्ठन की कॉरपोरेट परियोजना को लागू करने में लगे हैं। कहना मुश्किल है कि वे विदेशी वित्तीय संस्थाओं द्वारा फैलाए गए भ्रामक तर्कों और सिद्धांतों के जाल में फंसकर अपनी मति भ्रष्ट कर चुके हैं या इस विराट साम्राज्यवादी परियोजना में एक छोटे पार्टनर की तरह शामिल होने की महत्वाकांक्षा उन्हें ऐसा करने पर आमादा कर रही है।

कारण जो भी हो इतना तो तय है कि वे कृषि के संकट को डॉ. स्वामीनाथन की तरह छोटे और सीमांत किसानों और खेत मजदूरों की जीविका की समस्या और उसके समाधान की नजर से नहीं देखते, बल्कि कृषि के संकट को कृषि-व्यवसाय से जुड़े कॉरपोरेट के मुनाफे और निवेश के संकट के तौर पर समझते हैं, जिसका समाधान है- और मुक्त व्यापार, ठेका खेती, बड़े पूंजी निवेश की बाधाओं को हटाना और कृषि बाजार को चंद निगमों के हवाले करना। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट, क्योंकि छोटे और गरीब किसानों की जीविका के एक साधन के तौर पर खेती को विकसित करने की परियोजना पेश करती है, इसलिए उसकी नीति निर्माताओं की नजर में कोई कीमत नहीं।

पिछले तीन दशक के पंजाब के अनुभव खेती के संकट के समाधान के लिए सरकारों द्वारा पिछले 30 सालों में लागू की गई नीतियों की भयावहता को समझने के लिए देश के एक समृद्ध इलाके पंजाब में इनके गंभीर परिणामों की चर्चा करना ही पर्याप्त होगा। पंजाब वह इलाका है, जिसकी हरित क्रांति के जमाने से ही देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पंजाब के पास देश की केवल 2.5 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि है, लेकिन अपनी मेहनत के दम पर यहां के किसान देश के केंद्रीय गेहूं भंडार में एक तिहाई का योगदान करते हैं, लेकिन आज जबकि देश में सबसे ज्यादा मात्रा में पंजाब से गेहूं और धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद होती है, उसके बावजूद पंजाब में खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान खेती छोड़ने के लिए बाध्य हो रहे हैं।

निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के आने और कृषि लागत को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती होते जाने से पिछले तीस सालों में जहां एक ओर कृषि उत्पादन की लागत महंगी होती गई है, वहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार के साथ गैरबराबरी पूर्ण प्रतियोगिता और कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ावों (खासकर गैर MSP फसलों जैसे कपास, टमाटर इत्यादि में) के कारण खेती में बराबर घाटा हो रहा है।

निजीकरण के कारण बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, दवा-इलाज और शादी-ब्याह के खर्चे भी बढ़ते चले गए हैं, जिसके चलते बड़ी संख्या में किसान कर्ज के बोझ से दबते चले गए हैं और पंजाब में भी किसानों की आत्महत्याएं बहुत बढ़ गई हैं। इस संकट को समझने के लिए पंजाब सरकार द्वारा करवाए गए एक अध्ययन में, जिसे पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा 2000-2018 के बीच तीन चरणों में पूरा किया गया- संकट की एक भयावह तस्वीर उभरती है।

20 साल पहले पंजाब के कुल 10 लाख किसान परिवारों के आधे छोटे और सीमांत किसान थे, लेकिन अब उनकी संख्या घटकर केवल दो लाख रह गई है, जबकि आमतौर पर, जैसा कि पूरे देश का रूझान है, परिवारों के टूटने और बंटवारे के चलते छोटी जोतों की संख्या बढ़ती है। स्पष्ट है कि तीन लाख से ज्यादा छोटे और सीमांत किसान खेती से बाहर कर दिए गए हैं।

एक किसान परिवार की औसत आय पंजाब में करीब 6 लाख रुपये सालाना है जबकि उन पर 10 लाख रुपये से ज्यादा का औसत कर्जा है। छोटे किसानों की स्थिति और बुरी है, जिन पर उनकी आय से तीन से चार गुना तक कर्ज है। इनमें 20 प्रतिशत से ज्यादा दीवालिया हो चुके हैं। पिछले चार दशकों में 12 प्रतिशत किसानों ने खेती छोड़ दी है और एक तिहाई से ज्यादा दिहाड़ी मजदूर बन चुके हैं। रोजाना तीन किसान या खेत-मजदूर आत्महत्या करने के लिए विवश हैं।

पिछले 17 सालों में सामने आए आत्महत्या के मामलों में से 9300 किसान और 7300 खेत मजदूर थे। इनमें से 88 प्रतिशत ने कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों का 77 प्रतिशत छोटे किसान और एक तिहाई अकेले कमाने वाले थे। 11 प्रतिशत परिवारों के बच्चों की पढ़ाई छूट गई और साढ़े तीन प्रतिशत परिवारों में लड़कियों की शादियां नहीं हो सकीं। अधिकांश परिवारों में कोई न कोई सदस्य दुष्चिंता या अवसाद से ग्रस्त पाया गया।

 पंजाब में, खेती में बहुत ज्यादा मशीनीकरण हुआ है, जिसके चलते खेती में काम की कमी होती गी। राज्य के उद्योग-धंधों में इस अतिरिक्त आबादी के लिए काम नहीं है। टमाटर और कपास की खेती से ग्रामीण कृषि रोजगारों के अवसर बढ़े थे, लेकिन खरीद की गारंटी न मिलने और पेप्सी से धोखा खाने के बाद इसका विस्तार रुक गया। अगर सरकार MSP पर खरीदी जाने वाली फसलों की संख्या बढ़ा दे तो किसान खुद-ब-खुद विविधीकरण अपना लेंगे, लेकिन विकल्पों के अभाव में वे परंपरागत फसलों की खेती के लिए मजबूर हैं।

खेती में आए ठहराव और बेरोजगारी के दबाव के चलते और पंजाब के किसान संगठनों द्वारा MSP और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए किए गए संघर्षों की बदौलत उनमें जागरूकता आई है। किसानों के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि जब MSP पर खरीद के दौर में उनकी यह हालत है तो इन तीन कानूनों के लागू होने के बाद कॉरपोरेट कारोबारी उनका क्या हाल करेंगे। एक किसान के शब्दों में, ‘‘बिहार में जब मंडी टूटी तो वहां का गरीब और छोटा किसान मजदूरी के लिए पंजाब आया, हम कहां जाएंगे?’’

पंजाब के उदाहरण से स्पष्ट है कि पिछले 30 सालों से देश की कृषि अर्थव्यवस्था जिन नीतियों से संचालित है, वे समस्या का समाधान नहीं बल्कि कारण है। मौजूदा तीन कानून इस कोढ़ में खाज की तरह हैं। किसानों का यह संघर्ष ही देश का भविष्य तय करेगा:
भारत सरकार और देश के नीति-निर्माता खेती को बड़े कृषि व्यवसायियों और कॉरपोरेटों की नजर से देख रहे हैं, जबकि खेती कभी भी व्यापार नहीं हो सकती। किसान का कोई भी उत्पाद (अनाज, दालें, तिलहन) सीधे नहीं खाया जा सकता।

किसान खेत में मेहनत करता है- वह व्यापारी नहीं है। एक जमाने से व्यापारी उसे धोखा देते रहे हैं। मुनाफे का लालच देकर कर्ज के जाल में फंसाकर लूटते रहे हैं। औपनिवेशिक लूट और तबाही के गवाह किसान अभी जिंदा हैं और धरनों पर बैठे हैं। कम आय और संसाधनों की कमी के शिकार 99.47 प्रतिशत किसानों के पास बड़ी कारपोरेट कंपनियों और WTO के दबाव का सामना खुद-ब-खुद कर लेने की ताकत नहीं है।

उन्हें सरकार के समर्थन और सहयोग की जरूरत है, लेकिन सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया है। 1991 के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, WTO और कृषि समझौतों से बंधी सरकारें उनके साथ तरह-तरह के छल करके इन विनाशकारी नीतियों को थोपती जा रही हैं, जिनका ताजा उदाहरण तीन नये कृषि कानून हैं। सब्सिडी की जगह उपभोक्ताओं और किसानों के खातों में सीधे लाभ का हस्तांतरण भी एक ऐसा ही धोखा है। इसके तहत पहले किसान खाद या बीज को बाजार भाव पर खरीदेगा और बाद में सब्सिडी की रकम उसके खातों में भेजी जाएगी।

इस व्यवस्था को लागू करने की वजह दरअसल सीधी सब्सिडी की WTO में मनाही है, लेकिन यह बताने के बजाय आम लोगों को इसके फायदे गिनाए जाते हैं और इसे एक सौगात के तौर पर पेश किया जाता है, जबकि दरअसल इसका फायदा सरकार को यह होगा कि किसान को बाजार भाव पर खाद और दूसरी लागतें खरीदने की आदत पड़ जाएगी और फिर एक दिन केंद्र एक नियामक आयोग बनाकर राज्यों के ऊपर इसकी जिम्मेदारी डाल देगा और इसे वैकल्पिक कर दिया जाएगा कि अगर राज्यों के पास पैसा है तो दें अन्यथा न दें। इस तरह धीरे-धीरे सब्सिडी कम होते-होते बंद हो जाएगी, क्योंकि नोटबंदी, जीएसटी और कोविड के मारे राज्यों के पास पैसे की पहले से ही किल्लत है।

देश के शासक हमारी सरकार और नीति निर्माता ही नहीं मध्य वर्ग के शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवियों का एक अच्छा खासा हिस्सा भी इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है कि वैश्वीकरण, मुक्त बाजार, दक्षता, विविधीकरण जैसे सिद्धांत और नीतियां किसी परोपकार से प्रेरित नहीं हैं, बल्कि एक बड़ी साम्राज्यवादी परियोजना के खूबसूरत नाम हैं।

यह साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के बढ़ते प्रभाव का एक नया चरण है, जिसमें अमरीका और यूरोप की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकासशील और गरीब देशों की खेती को पुनर्गठित किया जा रहा है। विदेशी और देश की बड़ी कारपोरेट कंपनियों और विश्व बैंक और मुद्राकोष की वित्तीय पूंजी का यह गठजोड़ देश के खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भरता को नष्ट करके हमें उसके लिए इन कंपनियों और अमीर देशों का मुहताज बना देगा।

कोविड जैसी किसी महामारी के समय, या जब किसी दिन ग्रीन पीस आंदोलन के प्रभाव में अमीर देश और शासक वर्ग ये तय कर लेंगे कि अब हम अतिरिक्त अनाज से एथेनाल बनाएंगे, तो देश की 90 प्रतिशत गरीब और मेहनतकश आबादी, छोटे किसानों और खेत-मजदूरों के सामने भुखमरी के सिवाय कोई और रास्ता नहीं होगा। बजट पूर्व जारी अपने आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने घोषणा कर दी है कि विकास के इस दौर में आय के बराबरीपूर्ण वितरण की बात नहीं होनी चाहिए। 

अभी जबकि खेती के क्षेत्र में पुरानी व्यवस्था काफी हद तक कायम है, पिछले 30 सालों की नीतियों के परिणामस्वरूप निर्यात के बाद देश की प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 1990 के दशक में 174 किलो/व्यक्ति के स्तर गिरकर 2008 में 159 किलो हो गई थी जो कि सात दशक पहले 1930 के दशक में होता था और हम अपनी जरूरत का 70% खाद्य तेल आयात करने लगे हैं, जबकि हम 1996 में आत्मनिर्भर होते थे।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक के हिसाब से बनाई गई 2020 की 107 देशों की सूची में भारत 94 नंबर पर था और दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित लोग भारत में थे। जब इन कानूनों के जरिए और विश्व बैंक और WTO के दबाव में देश की खाद्य सुरक्षा का मौजूदा ढांचा टूट-बिखर जाएगा, उस समय हमारी स्थिति क्या होगी, सहज अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन देश की सरकार और नीति-निर्माता किसानों और आम जनता की इन आशंकाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं और उन्हें गुमराह बता रहे हैं।

वे बहुराष्ट्रीय निगमों- जिनके प्रतीक आज देश में अंबानी और अडानी बन गए हैं- के मैनेजर और लठैत बनकर किसान आंदोलन को भटकाने और बल प्रयोग करके तोड़ देने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें मध्य वर्ग के ऊपरी अच्छे खासे हिस्से का भी उन्हें समर्थन मिल रहा है। मेहनत से कटा हुआ यह वर्ग अपनी तात्कालिक सुख सुविधाओं के लालच में अंधा हो गया है और यह समझता है कि खाद्य पदार्थ डिपार्टमेंटल स्टोर की सेल्फ में मिलते हैं, उनको पैदा करने वाले और उनकी मुसीबतें उसकी नजरों से ओझल हैं। अखबारों, टीवी और विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिए उसके दिमाग में जो तर्क घुसाए जाते हैं, अपनी भौतिक स्थिति और जातिवादी और औपनिवेशिक प्रभाव वाली मानसिकता के कारण वह उनके जाल से निकल पाने में असमर्थ हैं।

देश के किसान दिल्ली की सीमा पर जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं, पूरी दुनिया के लोग उनकी ओर आशा भरी नजर से देख रहे हैं। यह केवल भारत के किसानों की तीन कानूनों के खिलाफ लड़ाई नहीं है, बल्कि दुनिया भर के किसानों और मेहनतकश वर्ग की इस साम्राज्यवादी परियोजना से मुक्ति की लड़ाई है। यह लड़ाई जीती जाती है या हारी जाती है, दोनों ही स्थितियों में इसके गहरे और व्यापक परिणाम होंगे।

क्या MSP पर खरीद असंभव है
भारत सरकार अभी तक केवल 23 फसलों का ही MSP घोषित करती है, जिनमें सात खाद्यान्न (धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, जौ, बाजरा, रागी), पांच दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), सात तिलहन (मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, सफोला, रेशम,निगार सीड) और चार नकदी फसलें शामिल हैं। 2019-20 में इन फसलों की MSP पर खरीद की कुल कीमत 10.78 लाख करोड़ रुपये आंकी गई थी, लेकिन ये सारी की सारी फसलें बाजार में बिक्री के लिए नहीं आतीं। अलग-अलग फसलों का 50 से लेकर 95 प्रतिशत तक उत्पादन बिक्री के लिए बाजार में आता है और बाकी किसान अपने उपभोग के लिए रख लेते हैं। अतः हम मान सकते हैं कि कुल उत्पादन का लगभग 75 प्रतिशत बाजार में आता है।

इसमें भी सारा का सारा माल खरीदने की जरूरत नहीं होती। अगर सरकार 25 प्रतिशत से 40 प्रतिशत के बीच खरीद करती है तो वही बाजार में कीमतों को कायम रख सकता है। इसके अलावा गन्ने की खरीद कुल लगभग 97,817 करोड़ की है, जिसके भुगतान की जिम्मेदारी कानूनी तौर पर चीनी मिलों की है। पहले से ही भारत सरकार, एफसीआई और दूसरी एजेंसियों के जरिए धान, गेहूं, कपास, चना, मूंगफली, सरसों और मूंग की 2.7 लाख करोड़ के करीब की खरीद करती है। इस तरह इन तमाम 23 फसलों की MSP पर खरीद सुनिश्चित करने के लिए 1.5 लाख करोड़ के आस-पास की रकम दरकार होगी।

भारत जैसे देश की सरकार के लिए क्या यह इतनी बड़ी रकम है?
भारत मेक्सिको के आईने में: इस लेख में दी गई चेतावनियां अटकलबाजी या डराने वाली अफवाह नहीं हैं। वे दुनिया भर में कृषि पर निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभावों के अवलोकन के आधार पर निकाले गए स्पष्ट निष्कर्ष हैं। उदाहरण के लिए, यह ठीक वही माडल है जो 1990 के दशक से और खास तौर पर 1994 से (उत्तरी अमरीकी मुक्त व्यापार संगठन के तहत) मेक्सिको पर थोपा गया था।

* मैक्सिको की सरकारी व्यापार एजेंसी (एफसीआई जैसी संस्था) को खत्म कर दिया गया।
* कृषि-उत्पादन को दी जाने वाली तमाम सरकारी सहायता धीरे-धीरे खत्म कर दी गई।
* मैक्सिको की मुख्य खाद्य फसल-मक्का पर सरकारी सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म कर दी गई और इसके एवज में चुने हुए किसानों और उपभोक्ताओं के खातों में सीधे सहायता हस्तांतरित की गई।
* मैक्सिको में, जो मक्का उत्पादन का गढ़ था और जहां मक्का की बहुत सारी किस्मों का बड़ा खजाना मौजूद था, अमरीकी मक्का का आयात तीन गुना बढ़ गया।
* मैक्सिको में पारिवारिक जोतों की संख्या घटकर आधी से भी कम रह गई।
* कृषि रोजगारों में तेजी से गिरावट आई, जबकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में पर्याप्त विकास के अभाव में खेती से उजड़े हुए किसानों को कोई दूसरा रोजगार नहीं मिल पाया।
* इस तरह पूरे देश में बेरोजगारी आसमान छूने लगी।
* गरीबी रेखा के नीचे आबादी बढ़ गई।
* आधी से ज्यादा आबादी अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने में और आबादी का पांचवां हिस्सा दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में असमर्थ हो गया।
* परिणामस्वरूप मांग के अभाव में मेक्सिको के सकल घरेल उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि की दर घट कर लैटिन अमरीका के देशों की न्यूनतम से भी कम हो गई।
* बेघर और बेरोजगार हताश किसानों ने अपने पड़ोसी देश अमरीका में घुसने की कोशिश की जिससे प्रवासियों की संख्या में 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
* तैयार खाद्य पदार्थों (जैसे मक्के से बनी टारटिल्ला रोटी) के दामों में भारी वृद्धि हुई।
* मक्के के आटे के पूरे बाजार पर मेक्सिको की सिर्फ दो कपंनियों (जिनमें से मासेका ग्रुप लगभग 85 प्रतिशत बाजार पर काबिज है) का कब्जा हो गया- यही वर्चस्व भारत में अंबानी, अडानी और वालमार्ट हासिल करना चाहते हैं।

  • ज्ञानेंद्र सिंह

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles