टीपू सुल्तान और उनका सपना

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टीपू सुल्तान ने अपने सपनों और उनकी व्याख्या करते हुए एक किताब लिखी थी। इसमें कुल 37 सपनों और उसकी व्याख्या का वर्णन है। बाद में इसी किताब पर गिरीश कर्नाड ने एक नाटक भी लिखा-‘टीपू सुल्तान का सपना’।

अंग्रेजों को पूरी तरह से भारत से निकाल बाहर करना, और भारत को आत्मनिर्भर बनाना टीपू सुल्तान के सपनों का स्थाई भाव था। बहुतों के अनुसार टीपू सुलतान का यह सपना 1947 में पूरा हो गया। लेकिन देश में ऐसे लोग भी है, जिनका मानना है कि टीपू सुलतान का वो सपना अभी पूरा नहीं हुआ है। अभी भी भारत नए तरीके से अंग्रेजों (साम्राज्यवादियों) का गुलाम बना हुआ है। भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम अभी बाकी है।

पिछले साल टीपू सुल्तान के सपनों से आतंकित कर्नाटक की भाजपा सरकार ने टीपू सुलतान को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल दिया था और टीपू सुलतान को मुस्लिम कट्टरपंथी और हिन्दुओं का कत्लेआम करने वाला बताकर ‘टीपू सुलतान’ पर उसी तरह हमला शुरू कर दिया है, जैसे उस वक़्त अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को बदनाम करने और हिन्दू मुस्लिम बंटवारा करने की नीयत से उस पर हमला बोला था।

मजेदार बात यह है कि टीपू सुल्तान के खिलाफ उस वक़्त के अंग्रेजों और आज के भाजपा की शब्दावली भी हूबहू एक जैसी है। कर्नाटक में व अन्य जगहों पर एक-एक करके टीपू सुल्तान का नाम मिटाया जा रहा है। मानो नाम मिटाने से उनका सपना भी मिट जाएगा।

टीपू सुल्तान के इतिहास में योगदान पर जाने से पहले आइये देखते हैं कि भाजपा के चहेते एपीजे अबुल कलाम टीपू सुलतान के बारे में क्या कहते हैं- “नासा में लगी एक पेंटिंग ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, क्योंकि पेंटिंग में जो सैनिक रॉकेट दाग रहे थे वे गोरे नहीं थे, बल्कि दक्षिण एशिया के लग रहे थे। तब मुझे पता चला कि यह टीपू सुलतान की सेना है, जो अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ रही है। पेंटिंग में जो तथ्य दिखाया गया है, उसे टीपू के देश में ही भुला दिया गया है, लेकिन सात समुंदर पार यहां इसका जश्न मनाया जा रहा है।” (The Wings of Fire)

दरअसल टीपू सुलतान वह पहला व्यक्ति था जिसने रॉकेट-मिसाइल के लिए ‘मेटल’ का इस्तेमाल किया था। उस वक़्त रॉकेट-मिसाइल के लिए बांस के बम्बू का इस्तेमाल किया जाता था। ‘मेटल’ के इस्तेमाल से रॉकेट-मिसाइल की रेंज करीब 2 किमी तक हो गयी थी। 1780 में हुए अंग्रेज-मैसूर युद्ध में इसी रॉकेट के कारण अंग्रेजों की बुरी तरह हार हुई थी। कहते है कि बाद में इसी रॉकेट टेक्नोलॉजी को अपनाकर और इसे और विकसित करके अंग्रेजों ने वाटरलू की निर्णायक लड़ाई (1815) में नेपोलियन को हराया था। भारत की अपनी एक महत्वपूर्ण तकनीक अंग्रेजों के हाथ में चली गयी, क्योंकि तब पेटेंट क़ानून लागू नहीं था। टीपू सुलतान के मरने के बाद उसके किले से अंग्रेजों को 700 से ज्यादा रॉकेट-मिसाइल मिले।

नासा में लगीं टीपू सुल्तान के युद्ध की पेंटिंग

DRDO (Defence Research and Development Organisation) के शिवथानु पिल्लई (Sivathanu Pillai) ने तमाम शोध के बाद माना कि रॉकेट-मिसाइल टेक्नोलॉजी की जन्मस्थली टीपू का मैसूर राज्य ही है। उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम से मांग की कि सेमीनार व अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से इस बात को देश के सामने स्थापित किया जाय।

कर्नाटक के ‘साकेत राजन’ ने 1998 और 2004 में क्रमशः दो भागों में ‘पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ कर्नाटक’ लिखी थी, जिसे आज कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इस किताब की गौरी लंकेश सहित तमाम बुद्धिजीवियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

इस किताब में साकेत राजन ने तथ्यों के साथ साबित किया है कि हैदर अली और विशेषकर टीपू सुल्तान ने किस तरह अपने राज्य में तमाम राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सुधारों के माध्यम से एक स्वस्थ और ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील पूंजीवाद की नींव रखने का प्रयास किया था, जिसे बाद में अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों के साथ मिलकर उच्च जाति की सामंती ताकतों ने कुचल दिया और भारत में अर्ध सामंती-अर्ध औपनिवेशिक उत्पादन संबंधों की नीव पड़ी, जिसकी सड़ांध आज 200 साल बाद भी जीवन के प्रत्येक पहलू में रची बसी है।

टीपू सुलतान ने जब केरल के मालाबार क्षेत्र को अपने राज्य में मिलाया तो उस वक़्त वहां पर निचली जाति की गरीब महिलाओं को अपना स्तन ढकने की आज़ादी नहीं थी। और इसे ढकने के लिए उनसे टैक्स मांगा जाता था, जिसे ‘स्तन टैक्स’ कहते थे। टीपू सुलतान ने एक ही झटके में इस प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

टीपू सुलतान भूमि-सुधार करने वाला शायद पहला आधुनिक राजा था। टीपू ने जो जमीन जोतता था, उसे ही जमीन का मालिक बनाया और लगान के लिए सीधे राज्य के साथ उनका रिश्ता कायम कर दिया। जमींदारों (palegars) का प्रभुत्व समाप्त कर दिया गया। गरीबों-दलितों को बड़े पैमाने पर ज़मीन बांटी गयी। उस समय के ‘भूमि-रिकॉर्ड’ आज भी इसकी गवाही देते है। टीपू सुलतान के समय कुल 40 प्रतिशत ज़मीन सिंचित थी। बंधुवा मजदूरी और किसी भी तरह की गुलामी प्रथा पर उसने पूर्ण पाबन्दी लगा दी।

जमींदारों का प्रभाव ख़त्म होने और केंद्रीकृत राज्य मशीनरी के अस्तित्व में आने के कारण व्यापारिक-पूंजीवाद तेजी से फ़ैलने लगा। अंग्रेजी सामानों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इससे राजस्थान के मारवाड़ी, गुजरात के बनिया और गोवा कर्नाटक की सारस्वत ब्राह्मण जैसी जातियां टीपू सुलतान से नाराज़ हो गयी, क्योंकि यही जातियां अंग्रेजी सामानों के व्यापार में लगीं थी। फलस्वरूप इन्होंने ही अंग्रेजों के साथ मिलकर टीपू सुल्तान के खिलाफ षड्यंत्र को अंजाम दिया।

इस सुधार के फलस्वरूप वहां की शूद्र जाति ‘बानिजगा’ (Banijaga) व्यापार में आगे बढ़ पाई और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ाई में यह व्यापारी जाति पूरी तरह टीपू सुल्तान के साथ खड़ी थी। यदि टीपू सुल्तान नहीं हारता तो यह जाति/वर्ग भावी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के रूप में निश्चित तौर पर उभरता।

टीपू सुल्तान के इसी तरह के सुधारों के कारण उच्च प्रतिक्रियावादी जातियां उनसे नाराज़ हो गयीं और अंग्रेजों से जा मिली। टीपू सुल्तान के हारने का यह भी एक कारण बना।

दरअसल टीपू सुल्तान के समय राज्य ही सबसे बड़े ‘पूंजीपति’ के रूप में उभर कर सामने आया और टीपू सुल्तान के प्रयासों से सिल्क, सूती कपड़ा, लौह, स्टील चीनी आदि का उत्पादन श्रम विभाजन और मजदूर आधारित यानी पूंजीवादी तरीके से हो रहा था। नहर, सड़क आदि का काम बड़े पैमाने पर राज्य ने अपने हाथ में लिया हुआ था और शुद्ध मजदूरी देकर लोगों से काम करवाया गया। कारीगरों और किसानों को अनेक तरह से राज्य ने मदद की। इसके अलावा हथियार बनाने के भी समृद्ध उद्योग थे। डबल बैरेल पिस्टल टीपू सुलतान के समय की ही देन थी।

इस वक़्त लगभग 21 प्रतिशत जनसंख्या शहरी थी। जो पूंजीवादी नगरीकरण का संकेत है।
टीपू सुल्तान ने अपने राज्य में पूर्ण शराब बंदी कर रखी थी। जनता की बेहतरी के प्रति टीपू की प्रतिबद्धता टीपू के इस पत्र में दिखती है जो उसने अपने एक अधिकारी मीर सदक (Mir Sadaq) को 1787 में लिखा था-“पूर्ण शराबबंदी मेरी दिली इच्छा है। यह सिर्फ धर्म का मामला नहीं है। हमें अपनी जनता की आर्थिक खुशहाली और उसकी नैतिक ऊंचाई के बारे में सोचना चाहिए। हमें युवाओं के चरित्र का निर्माण करने की जरूरत है। मुझे तात्कालिक वित्तीय नुकसान के बारे में पता है। लेकिन हमे आगे देखना है। हमारे राजस्व को हुआ नुकसान जनता की शारीरिक और नैतिक खुशहाली से बड़ा नहीं है।”

टीपू सुल्तान का एक चित्र

फ्रांसीसी क्रांति का भी टीपू सुल्तान पर काफ़ी असर था। इसके पहले उसने ‘रूसो’, ‘वाल्टेयर’ जैसे लोगों को भी पढ़ रखा था। कहते हैं कि उसने फ्रांसीसी क्रांति की याद में एक पौधा भी लगाया था। साकेत राजन तो अपनी उपरोक्त किताब में यहां तक दावा करते हैं कि उस वक़्त मैसूर राज्य में एक ‘जकोबिन क्लब’ (जैकोबिन फ्रेंच क्रांतिकारियों को बोलते थे) भी हुआ करता था। टीपू सुल्तान भी इस क्लब का सदस्य था।

फ्रेंच सरकार को लिखे पत्र में टीपू सुल्तान अपने को टीपू सुल्तान ‘सिटीजन’ के रूप में दस्तखत करते हैं।
टीपू सुल्तान आयुर्वेद-यूनानी और एलोपैथी को मिलाकर एक चिकित्सा पद्धति विकसित करने का प्रयास कर रहा था। सर्जरी में भी उसकी रुचि थी। टीपू को हराने के बाद श्रीरंगपट्टनम में अंग्रेजों को एक अत्याधुनिक (उस समय के हिसाब से) अस्पताल मिला था, जिसे देखकर वो दंग रह गए थे।

टीपू सुल्तान के समकालीनों ने साफ-साफ लिखा है कि टीपू सुल्तान सामंती शानो-शौकत से कोसों दूर था और बहुत सादा जीवन गुजारता था। टीपू सुल्तान का यह पहलू उन सब को दिखाई देता है जो इतिहास का सिंहावलोकन करते हैं। लेकिन इतिहास का मुर्गावलोकन करने वालों को सिर्फ यह दिखाई देता है कि टीपू सुल्तान एक मुस्लिम था, इसलिए कट्टर था और इसलिए हिन्दू-विरोधी था।

‘पीपुल्स हिस्ट्री ऑफ कर्नाटक’ में टीपू पर विस्तार से लिखने के बाद साकेत राजन निष्कर्ष रूप में टीपू सुल्तान पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं “वह पहला और दुर्भाग्य से अंतिम व्यक्ति था जिसे उभरते भारतीय बुर्जुवाजी ने प्रस्तुत किया था। यूरोपीय रेनेसां की भावना का वह एक चमकीला उदाहरण था।”

(मनीष आजाद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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