बच्चों की शिक्षा के प्रश्न को बस शिक्षाविदों, नीतिनिर्धारकों और समाजशास्त्रियों पर नहीं छोड़ देना चाहिए। विशेषज्ञता के अपने फायदे हैं पर इसकी वजह से हर चीज़ हवाबंद संदूकों में बंद भी हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हमारे अपने जीवन के साथ जो चीज़ें गहराई से जुड़ी हैं, उनके बारे में जानने के लिए भी हम विशेषज्ञों के पास जाते हैं। क्या शिक्षा मूल रूप से ऐसी विधा नहीं जो जीवन को उसकी समग्रता में समझना सिखाये और सुख, दुःख, पीड़ा, हास्य, प्रेम, करुणा, नफरत, युद्ध, कुदरत के साथ हमारे रिश्ते, ज़िन्दगी के सभी रंगों के एक साथ छात्र की मेज पर रख दे। शिक्षा के क्षेत्र में ही इसकी संभावना सबसे अधिक बनती है, पर इसे हमने जैसे गँवा दिया है। अपनी संकीर्ण समझ के कारण।
इसकी अहमियत समझने के लिए शिक्षक और छात्र को एक सहयात्रा में उतरना जरुरी है। स्कूलों में विषय तो पढ़ा दिए जाते हैं, पर जीवन का विराट क्षेत्र अछूता रह जाता है। शिक्षा बुद्धि को केंद्र में रखकर ह्रदय को अनदेखा कर देती है। जिन्हें हम शिक्षक कहते हैं, वास्तव में वे बस प्रशिक्षक भर बन कर रह जाते हैं—जीविका से संबंधित सूचनाएं देने वाले, एक संकीर्ण कोने में सिमटे हुए और जीवन के असीमित क्षेत्र से अनभिज्ञ और बेपरवाह। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में जब टॉलस्टॉय फार्म शुरू किया था, तभी उन्होंने हृदय को शिक्षित करने पर जोर दिया था। अब बौद्धिक लब्धि (आई क्यू) के साथ साथ भावनात्मक लब्धि (ई क्यू) की बात तो सामान्य हो गई है, पर आम तौर पर शैक्षिक संस्थानों में इस पर काम नहीं होता। सिर्फ इसकी बात होती है। बात तो अब नेचर कोशेंट की भी होने लगी है, जिसमें कुदरत के साथ स्नेह और सम्मान पर आधारित संबंध बनाने पर जोर दिया जाता है, पर इस पर भी वास्तव में शायद ही कहीं काम होता हो।
हमारी शिक्षा का आधार है: ईनाम, सजा और तुलना। पूरी शिक्षा व्यवस्था इसी पर आधारित है। घर में मां-बाप और स्कूल में शिक्षक यही तरीका अपनाते हैं, बच्चों को पढ़ाने के लिए। पढ़ लिख कर आगे बढ़ने की संभावना और न पढ़ कर एक असफल, नकारा बन जाने का भय। सदियों से बच्चों को यही कहा जाता रहा है। आगे बढ़ना एक ईनाम है, और असफल होना एक सज़ा। इसे कैरट एंड स्टिक पॉलिसी भी कहा जाता है। पशुओं के प्रशिक्षण में इसका उपयोग किया जाता है। इम्तहान में अच्छा प्रदर्शन करने पर अच्छे अंक मिलने का अर्थ ईनाम और ख़राब अंकों का अर्थ है सजा और अपमान। कैसा लगता है जब अखबारों में पढ़ते हैं कि किसी 12 या 15 वर्ष के बच्चे ने कम अंक पाने की वजह से डर कर ख़ुदकुशी कर ली? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ताज़े आंकड़ों के अनुसार 2022 में 12,526 छात्रों ने खुदकुशी की। 2021 की तुलना में यह 21.19 फीसदी की बढ़ोत्तरी है। 1995 से एकत्रित किये जाने वाले आंकड़े यह दर्शाते हैं कि 1.8 लाख से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की है। 2020 में सबसे अधिक छात्रों ने आत्महत्या की।
इन ख़बरों को सुनकर हम यही सोच कर संतुष्ट हो लेते हैं कि कम से कम हमारे घर में ऐसा नहीं हुआ। पर ऐसा नहीं। एक भी बच्चा ऐसा करता है, तो उसका कलंक हम सबके हिस्से में आता है। हमने मिलकर एक ऐसा माहौल बनाया है जिसमें सफलता की पूजा की जाती है। बच्चा हर समय दबाव में रहता है। हर समय उसे महसूस होता है कि वह जो कर रहा है वह या तो ठीक नहीं, या पर्याप्त नहीं। यह मानने के लिए अभी हम तैयार नहीं हुए कि बच्चे की कोई स्वाभाविक रूचि नहीं भी हो सकती पढ़ने में। हम इस बात के लिए न ही धैर्य रखते हैं, और न ही बच्चे को समय देते हैं कि वह वास्तव में पता लगा सकें कि उसे दिल से क्या करना पसंद है। शिक्षक पर सवाल नहीं उठाये जा सकते, क्योंकि सही वह है, जो टीचर कहता/कहती है। मेरी बेटी की शिक्षक ‘क्रेसन्ट’ शब्द का उच्चारण ‘सरसेंट’ करती है, उसके सर ‘बलजिंग’ को ‘बलगिंग’ कहते हैं। बेटी कुछ नहीं कह पाती क्योंकि डर है कि शिक्षिका नाराज हुई तो परीक्षा में अंक कटेंगे। दुर्भाग्य से भय का प्रतीक बन जाते हैं अधिकांश शिक्षक। चिंता, परेशानी, भय और झूठ से बच्चे का पहला परिचय अक्सर स्कूल में ही होता है। उसकी सृजनात्मकता, उसके बचपन पर पहला नश्तर हमारी तथाकथित शिक्षा और उसके वाहक शिक्षक ही लगाते हैं। बचा खुचा ‘काम’ माँ-बाप और समाज कर देते हैं। क्या हमारा आज का शिक्षक इन भावनात्मक समस्याओं को खुद समझ सकता है, और बच्चों को इन्हें समझने में मदद कर सकता है। क्या बच्चों को यह समझाया जा सकता है कि असफ़ल होना कोई जुर्म नहीं। सफलता की उपासना कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है।
पूरा का पूरा दृष्टिकोण ही तुलनात्मक है। कोई बच्चा हो सकता है अंग्रेजी में कमज़ोर हो, तो शिक्षक या मां-बाप उसे कहेंगे—देखो तुम्हारा दोस्त या तुम्हारा भाई कितना अच्छा है अंग्रेजी में। सबसे पहले तो बच्चा इस तुलना से आहत होगा। आपका बच्चा ही आप से कहे- “मौसी तुमसे ज़्यादा अच्छा खाना बनाती है”, तो आप कैसा महसूस करेंगी? या फिर कहें- “पापा, अंकल के पास तो कितना अच्छा घर है”। यकीन मानिए आप जितना हर्ट होंगे, बच्चा आपसे कई गुना ज़्यादा हर्ट होगा। इस तरह की तुलना से उसकी अंग्रेजी तो अच्छी होने से रही। हां, उसके मन पर एक ज़ख्म और लग गया। इसका एक दूसरा भी पहलू है। हो सकता है, आपका बच्चा अंग्रेजी में कमज़ोर हो, लेकिन संगीत में बहुत अच्छा हो। हो सकता है, उसकी फिज़िक्स असाधारण तौर पर अच्छी हो। लेकिन हमारे रवैये ने उसकी अंग्रेजी तो बिगाड़ ही दी, उसकी किसी दूसरे विषय में अच्छा कर दिखाने की जो सम्भावना थी, उसे भी नष्ट कर दिया। तुलना की यह संस्कृति जब तक ख़त्म नहीं होती, शिक्षा में कोई मूलभूत परिवर्तन आने से रहा।
अक्सर शिक्षक बच्चों की कॉपी पर लिख देते हैं: “गुड, वेरी बैड, वेरी पुअर”। ये शब्द बच्चे को बहुत दुःख देते हैं। शिक्षक को जज नहीं बन जाना चाहिए। बेहतर है वह सिर्फ ‘सही’ या ‘गलत’ लिखें। कोई भी संवेदनशील शिक्षक उस बच्चे को ज़रूर महत्व देगा, जिसने अपने हाथों से एक ‘बेढंगी’ कलाकृति या पेंटिंग बनायी हो। पर शिक्षक एसयूपीडब्ल्यू के क्लास में एक ख़ास किस्म की कलाकारी करने के लिए ही कहते हैं बच्चों से। अगर कोई बच्चा वास्तव में अपनी सृजनात्मकता दिखाए, तो उसे नंबर कम मिलेंगे। सृजनात्मकता को शिक्षक परिभाषित करता है। जो शिक्षक के हिसाब से बेढंगा है, उसी में उस बच्चे की वास्तविक सृजनशीलता है, उसकी गरिमा है। लेकिन यदि स्कूल की एस यू पी डब्ल्यू के सामान बेचने वाले दुकानदार के साथ मिलीभगत है तो वहां संवेदनशीलता का सवाल कहां से आ गया! स्कूल शिक्षा के अलावा और भी कितना कुछ बेचते हैं! शैक्षणिक संस्थान कम, दुकान अधिक लगते हैं।
सबसे पहले तो शिक्षक को एक दोस्त होना चाहिए। दोस्त का मतलब है, आप जैसे हैं आपको वैसे ही स्वीकार करने वाला। किसी बच्चे का दोस्त होना बड़ा मुश्किल काम होता है। और इसलिए हम उसे ‘मैनेज’ या उसका प्रबंधन करना चाहते हैं। विशेषज्ञों की राय लेकर। सीधे-सीधे उसके साथ जुड़ना, उससे दोस्ती करना बहुत मुश्किल है। शायद न हमारे पास इतना वक़्त है, न धैर्य। उसकी ऊर्जा और हमारी ऊर्जा में बड़ा फ़र्क़ होता है। दुःख और परेशानी से दूर रहता है वह। वर्तमान क्षण में रहता है, अतीत का बोझ और भविष्य की चिंता से दूर होता है। हम, बड़े-बूढ़े लोग समाज में रहते हुए, उसके मूल्यों का बोझ ढोते हुए, उसके हिसाब से बच्चे को ढालने के लिए परेशान रहते हैं। बच्चों को पता ही नहीं होता कि क्यों स्कूल में शिक्षक की, घर में माँ बाप की हमेशा यही फ़िक्र रहती है कि क्षण-क्षण वह ऐसा कुछ हो जो वह उस क्षण नहीं। उसे कुछ और, कहीं और क्यों होना चाहिए; वह जहाँ जी रहा है, जैसे जी रहा है, उससे दूर क्यों होना चाहिए।
इन सभी पुराने तौर-तरीकों का परिणाम यह है कि छोटी होती जा रही है बचपन की उम्र। खेलने कूदने के दिन भय में और चिंता में निकल जा रहे हैं। बच्चे दर्द में हैं, और समाज अपने तमाम साजो-सामान के साथ उनको ‘ख़त्म’ करने के इंतज़ार में है। सफलता के उपासक इस समाज में उन्हें ढालने की, उन्हें ‘सामान्य ‘ बनाने की कोशिशें पूरी गंभीरता से की जा रही है। और इस ‘सामान्य’ समाज की हरकतें, इसकी ‘कामयाबी’ को जानने के लिए बस रोज़ अखबार के दो-चार पन्ने पलटने की ज़रूरत है। कई तरह के दबावों के बीच सांस रुकी जा रही है बचपन की, उसके साथ जुड़े भोलेपन और मासूम बेफिक्री की। बच्चा डर रहा है बड़ा होने से। और जिम्मेदारी है हम बड़ों की। सबसे अधिक शिक्षकों की जिनके सम्मान में आज का दिन मनाया जा रहा है।
(चैतन्य नागर लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)
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