जयंती पर विशेष: ब्रिटिश सत्ता के लिए खौफ बन गए थे राम प्रसाद बिस्मिल

देश इस साल आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कई बड़े आयोजन हो रहे हैं, जिनमें देश की आज़ादी के लिए मर मिटने वालों को याद किया जा रहा है। आज़ादी, हमें यूं ही भीख या तोहफे़ में नहीं मिल गई, यह लाखों देशवासियों की कु़र्बानी का नतीज़ा है। इसे हासिल करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने जे़ल में भयानक यातनाएं झेलीं, उनके परिवार को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। हज़ारों फ़ांसी पर चढ़े, तब जाकर आज़ादी का सबेरा निकलकर आया। आज़ादी के इस आंदोलन में अलग-अलग धाराएं मसलन कांग्रेसी अहिंसावादी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज, तो मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित क्रांतिकारी एक साथ काम कर रहे थे।

सभी का आख़िरी मक़सद देश को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराना था। गदर पार्टी और ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जुड़े क्रांतिकारियों का यक़ीन सशस्त्र क्रांति पर था। उनकी सोच थी कि अंग्रेज़ हुकूमत से आज़ादी संघर्ष और लड़ाई से ही हासिल होगी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के आगे हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाने से देश आज़ाद नहीं होगा। आज़ादी, कुर्बानी मांगती है। ऐसे ही इंक़लाबी पं. रामप्रसाद बिस्मिल थे। जिन्होंने उस ज़माने में अपने बहादुरी भरे कारनामों से अंग्रेज़ हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। महज 30 साल की उम्र में वे देश की आज़ादी के ख़ातिर शहीद हो गए।  

आज़ादी के मतवाले रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के छोटे से गांव बरबाई में हुआ, जो उनका ननिहाल था। जबकि उनकी परवरिश उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुई। देश में चल रहे आज़ादी के आंदोलन से बिस्मिल शुरू से ही मुतअस्सिर थे। उनके दिल में भी अपने देश के लिए कुछ करने का जज़्बा था। इसी जज़्बे के ख़ातिर वे पहले आर्य समाज से जुड़े। रामप्रसाद बिस्मिल पर आर्य समाजी भाई परमानंद, जो कि गदर पार्टी से जुड़े हुए थे, का काफ़ी असर था। अंग्रेजी हुकूमत ने लाहौर कांड में जब परमानंद भाई को फांसी की सज़ा सुनाई, तो बिस्मिल बद-हवास हो गए। उन्होंने गुस्से में ये क़ौल ली, ‘‘वे इस शहादत का बदला ज़रूर लेंगे। चाहे इसके लिए उन्हें अपनी जान क्यों न कु़र्बान करना पड़े।’’

आगे चलकर राम प्रसाद बिस्मिल ने मशहूर क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित के संगठन ‘मातृवेदी’ से राब्ता क़ायम कर लिया। इस संगठन में पैदल सैनिकों के अलावा घुड़सवारों व हथियारों से लैस सैकड़ों क्रांतिकारियों का जत्था था। ‘मातृवेदी’ ने अंग्रेजों के खि़लाफ़ जो सशस्त्र संघर्ष चलाया, पंडित गेंदालाल दीक्षित के साथ बिस्मिल ने उसकी लीडरशिप की। इन दोनों ने मिलकर उत्तर प्रदेश सूबे के मैनपुरी, इटावा, आगरा व शाहजहांपुर आदि जिलों में बड़े ही प्लानिंग से एक मुहिम चलाई और नौजवानों को इस संगठन से जोड़ा।

रामप्रसाद बिस्मिल का शुरुआत में कांग्रेस से भी वास्ता रहा। उन्होंने साल 1920 में कलकत्ता और 1921 में अहमदाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशनों में भी हिस्सा लिया। अहमदाबाद अधिवेशन में जब मौलाना हसरत मोहानी ने कांग्रेस की साधारण सभा में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा, तो रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला ख़ां और दीगर इंक़लाबी ख़यालात के नौजवानों ने भी इसकी हिमायत की। लेकिन महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया। बहरहाल, चौरी-चौरा कांड के बाद, महात्मा गांधी द्वारा अचानक असहयोग आंदोलन वापस लेने के फै़सले से क्रांतिकारी विचारों के नौजवानों को काफ़ी निराशा हुई। उन्होंने ज़ल्द ही एक जुदा राह अख़्तियार कर ली।

तमाम इंक़लाबी ख़यालात के नौजवान जिसमें भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाकउल्ला खां, राजगुरु, भगवतीचरण बोहरा, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त और दुर्गा भाभी आदि के साथ राम प्रसाद बिस्मिल शामिल थे, इंक़लाब की रहगुज़र पर चल निकले। साल 1917 की रूसी क्रांति इन नौजवानों के लिए एक मिसाल, एक प्रेरणा थी, जिसमें आम अवाम ने एकजुट होकर जारशाही को सत्ता से बेदख़ल कर दिया था। एक अहम बात और, क्रांतिकारी दल से जो भी नौजवान जुड़े थे, वे काफ़ी पढ़े-लिखे थे। उन्होंने दुनिया भर का साहित्य पढ़ा था। उन्हें मालूम था कि गुलाम देशों में किस तरह से क्रांति आई थी। ये देश सदियों की गुलामी के बाद, कैसे आज़ाद हुए थे। खु़द राम प्रसाद बिस्मिल ने ‘अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली ?’’ यह किताब लिखी थी। किताब लिखने का मक़सद, देश की सोई हुई अवाम में आज़ादी का जज़्बा जगाना था।

साल 1924 में रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने कुछ क्रांतिकारी साथियों के साथ ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना की। सचिन्द्र नाथ सान्याल संगठन के अहम कर्ता-धर्ता थे, तो वहीं रामप्रसाद बिस्मिल को सैनिक शाखा का प्रभारी बनाया गया। इस संगठन के माध्यम से क्रांतिकारियों ने पूरे देश में आज़ादी के आंदोलन को एक नई रफ़्तार दी। संगठन की तमाम बैठकों में सिर्फ़ एक ही नुक़ते, देश की आज़ादी पर बात होती। यही नहीं अंग्रेज़ हुकूमत से किस तरह से निपटा जाए, क्रांतिकारी इसके लिए नई-नई योजनाएं बनाते। क्रांति के लिए हथियारों की ज़रूरत थी और ये हथियार बिना पैसों के हासिल नहीं हो सकते थे। यही वजह है कि रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने कुछ साथियों के साथ मैनपुरी में एक डकैती डाली। इस डकैती में क्रांतिकारी दल के हाथ में काफ़ी पैसा आया, जिससे उन्होंने हथियार खरीदें और अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां तेज कर दीं। इस वाक़ये के बाद रामप्रसाद बिस्मिल अंग्रेज़ी हुकूमत की निगाहों में आ गए।

सरकार उन पर नज़र रखने लगी। बावजूद इसके रामप्रसाद बिस्मिल और उनका क्रांतिकारी दल अपने मक़सद से बिल्कुल नहीं डिगा। ज़ल्द ही उन्होंने एक और बड़ी योजना बनाई। यह योजना थी, सरकारी ख़ज़ाने को लूटना। 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन को काकोरी स्टेशन पर लूट लिया गया। क्रांतिकारी, ट्रेन में रखे ख़ज़ाने को लूटकर रफ़ूचक्कर हो गए। क्रांतिकारियों का यह वाक़ई दुःसाहसिक कारनामा था। इस घटना से पूरे देश में हंगामा हो गया। अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ गई। अंग्रेज हुक्मरानों ने क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार करने के लिए हर जगह अपने मुख़बिर फैला दिए। क्रांतिकारी दल का एक साथी अंग्रेज पुलिस के हाथ लग गया। इसने पुलिस के आगे काकोरी ट्रेन डकैती कांड के सभी नायकों के नामों का खु़लासा कर दिया। काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी गिरफ़्तार कर लिए गए। उन्हें जे़ल भेज दिया गया।

जे़ल में रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों को पुलिस द्वारा कई प्रलोभन दिए गए कि वे सरकार से माफ़ी मांग लें, उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। मगर वे इन प्रलोभनों में नहीं आए। रामप्रसाद बिस्मिल ने अदालत में अपने मामले की पैरवी खु़द की। अदालत में अपनी दलीलों से उन्होंने सरकारी वकील और अंग्रेज़ जज को भी हैरान कर दिया। वकील लाख़ चाहने के बाद भी क्रांतिकारियों पर कोई इल्ज़ाम साबित नहीं कर पा रहा था। काकोरी ट्रेन डकैती मामला, अदालत में तक़रीबन डेढ़ साल चला। इस दरमियान अंग्रेज़ सरकार की ओर से तीन सौ गवाह पेश किए गए, लेकिन वे यह साबित नहीं कर पाए कि इस वारदात को क्रांतिकारियों ने अंज़ाम दिया है। बहरहाल, अदालत की यह कार्यवाही तो महज़ एक दिखावा भर थी। इस मामले में फै़सला पहले ही लिख दिया गया था। क्रांतिकारियों को भी यह सब मालूम था, लेकिन वे ज़रा सा भी नहीं घबराए। अदालत के सामने बेख़ौफ़ बने रहे।

आखि़रकार, अदालत ने बिना किसी ठोस सबूत के रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों को काकोरी कांड का गुनहगार ठहराते हुए, फ़ांसी की सजा सुना दी। इस एक तरफ़ा फै़सले के बाद भी आज़ादी के मतवाले जरा सा भी नहीं घबराए और उन्होंने पुरज़ोर आवाज़ में अपनी मनपसंद ग़ज़ल के अशआर अदालत में दोहराए, ‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।’’ यह अशआर अदालत में नारे की तरह गूंजा, जिसमें अदालती कार्यवाही देख रही अवाम ने भी अपनी आवाज़ मिलाई। साल 1927 की 19 दिसम्बर वह तारीख़ थी, जिस दिन पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर की जेल में फ़ांसी की सज़ा दी गई। फ़ांसी देने से पहले जब बिस्मिल की आख़िरी चाहत पूछी गई, तो उन्होंने बड़े ही बहादुरी से जवाब दिया, ‘‘मैं अपने मुल्क से ब्रिटिश हुकूमत का ख़ात्मा चाहता हूं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो।’’ जल्लाद फ़ांसी का फ़ंदा लेकर रामप्रसाद बिस्मिल की ओर बढ़ा, तो उन्होंने यह फ़ंदा उससे छीनकर मुस्कराते हुए, खुद ही अपने गले में डाल लिया।

रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों की शहादत से देशवासियों पर बेहद असर पड़ा। इस घटना से भगतसिंह भी प्रभावित हुए। उन्होंने जनवरी, 1928 में पंजाबी मासिक ‘किरती’ में इस पूरी घटना का तफ़्सील से ब्यौरा देते हुए लिखा, ‘‘फ़ाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा, ‘वन्दे मातरम ! भारतमाता की जय !’ और शान्ति से चलते हुए कहा, ‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू़ रहे; जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही ज़िक्र और तेरी जुस्तजू रहे !’ फाँसी के तख़्ते पर खड़े होकर आपने कहा, ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ !’ उसके पश्चात यह शेर कहा, ‘अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है !“

अपने लेख के आख़िर में भगतसिंह लिखते हैं, ‘‘आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेजी सरकार ने अपना सबसे बड़ा खौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख़याल यही था कि वह गुलाम देश में जन्म लेकर भी सरकार के लिये बड़ा भारी ख़तरा बन गया था और लड़ाई की विद्या से खूब परिचित था।’’ बहरहाल, क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों की शहादत का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम पर फै़सलाकुन असर पड़ा। इस शहादत ने आज़ादी की लड़ाई की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी।

रामप्रसाद बिस्मिल को लिखने-पढ़ने का भी बहुत शौक था। वे पत्र-पत्रिकाओं में ‘राम’, ‘अज्ञात’ और ‘बिस्मिल’ के छद्म नाम से अपनी रचनाएं भेजते थे। कै़द की हालत में रामप्रसाद बिस्मिल ने जे़ल में अपनी आत्मकथा भी लिखी। जिसे एक और महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार-संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने बिस्मिल की शहादत के बाद प्रकाशित किया। जिसे अंग्रेज़ी हुकूमत ने जब्त कर लिया। ‘काकोरी के शहीद’ के नाम से प्रकाशित इस आत्मकथा में बिस्मिल देशवासियों से आखि़र में एक गुज़ारिश करते हैं, ‘‘जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें। इसी से सबका भला होगा।’’ आत्मकथा के अलावा ‘मन की लहर’ किताब में रामप्रसाद बिस्मिल की कविताएं संकलित है।

यह किताब उनके जीवनकाल साल 1920-21 में प्रकाशित हुई थी। इन कविताओं के इंक़लाबी तेवर को देखते हुए, अंग्रेज़ी हुकूमत ने किताब को जब्त कर लिया था। बिस्मिल ने एक क्रान्तिकारी उपन्यास ‘बोल्शेविकों की करतूत’ भी लिखा। बुनियादी तौर पर यह उपन्यास बांग्ला भाषा में लिखी किताब ‘निहिलिस्ट-रहस्य’ का हिन्दी-अनुवाद है। उन्होंने अंग्रेजी किताब ‘दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन’ का शानदार हिन्दी-अनुवाद भी किया। वहीं ‘स्वदेशी रंग’ में बिस्मिल के लेख और कुछ कविताएं शामिल हैं। ‘चीनी षडयंत्र’, ‘मैनपुरी षडयंत्र’ और ‘काकोरी कांड’ उनकी कुछ अन्य किताबें हैं। देश की आज़ादी को मिले भले ही 75 साल हो गए हैं, लेकिन पं. रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों के बहादुरी भरे क़िस्से आज भी देशवासियों की जु़बान पर हैं। इन क्रांतिकारियों की शहादत का ही नतीज़ा है कि हम आज खुली हवा में सांस ले रहे हैं।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल एमपी में रहते हैं।)

ज़ाहिद खान
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