दुनिया के सबसे ताकतवर समझे जाने वाले और सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका की एक बार फिर अपने इतिहास से मुठभेड़ हो रही है। सोलह साल पहले 2008 में जब बराक हुसैन ओबामा पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे तो दुनियाभर में यह माना गया था कि यह मुल्क अपने इतिहास की नस्लभेद और रंगभेद रूपी खाई को पाट चुका है।
बराक ओबामा के रूप में एक काले और अल्पसंख्यक व्यक्ति का दुनिया के इस सबसे ताकतवर मुल्क का राष्ट्रपति बनना एक ऐसी युगांतरकारी घटना थी, जिसका सपना मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में देखा था। अपने इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए उन्होंने ताजिंदगी अहिंसक संघर्ष किया था और महात्मा गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत माना था।
ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक तरह से मार्टिन लूथर किंग के अहिंसक संघर्ष की ही तार्किक परिणति थी। लेकिन नस्लभेद और रंगभेद के हिमायती डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति के पद पर दूसरी बार चुना जाना बताता है कि अमेरिकी समाज अभी भी नस्लभेद और रंगभेद के कठघरे से अपने को पूरी तरह आजाद नहीं कर पाया है।
रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार ट्रंप ने इस बार डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस को हराया। आठ साल पहले जब वे पहली बार राष्ट्रपति चुने गए थे तब भी उन्होंने डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के रूप में एक महिला को ही हराया था। जाहिर है कि हर पैमाने पर आधुनिक और विकसित माना जाने वाला अमेरिकी समाज किसी महिला को अपना राष्ट्रपति बनाने के लिए अभी तैयार नहीं है।
अमेरिका में रिपब्लिकन राष्ट्रपति चुना जाना कोई नई बात नहीं है, कई चुने गए है लेकिन उनमें से किसी ने भी कभी नस्लभेद और रंगभेद का खुल्लम-खुल्ला समर्थन करते हुए चुनाव के दौरान अपना वैसा प्रचार अभियान नहीं चलाया, जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप अपने पहले चुनाव में भी चलाया था और इस चुनाव में भी।
यही नहीं, उन्होंने प्रचार अभियान के दौरान अपनी प्रतिद्वंद्वी कमला हैरिस को जिस तरह की भद्दी गालियां दीं, उससे उनकी लंपट और स्त्री-विरोधी मानसिकता भी उजागर हुई।
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव पर ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ ने लिखा भी है कि कभी-कभी डर उम्मीद पर जीत जाता है। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की चौंकाने वाली जीत को राजनीतिक अंधकार में एक छलांग के रूप में देखा गया था।
लेकिन इस बार कोई बहाना नहीं है, क्योंकि अमेरिकी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि ट्रंप एक सजायाफ्ता अपराधी, सीरियल झूठा और नस्लवादी, रंगभेदी, स्त्री विरोधी और अराजक व्यक्ति है, जिसने चार साल पहले हार जाने के बावजूद सत्ता छोड़ने से इनकार कर दिया था और उनके उकसावे पर उनके हिंसक समर्थकों ने कैपिटल हिल अमेरिकी संसद भवन पर कब्जे का प्रयास किया था।
इसके बावजूद अमेरिका ने उन्हें फिर अपना राष्ट्रपति चुन लिया है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ट्रंप जैसे व्यक्ति का दोबारा राष्ट्रपति चुना जाना अमेरिकी इतिहास की अनोखी घटना ही है। एक ऐसे पूर्व राष्ट्रपति की जीत किसी चमत्कार से कम नहीं है, जो चार साल पहले चुनाव हार गया हो, जिसे राष्ट्रपति रहते हुए अपने खिलाफ दो बार महाभियोग का सामना करना पड़ा हो।
जिसे 34 आपराधिक मामलों में अदालत ने दोषी करार दिया हो और जो अगर बाकी के मामलों में दोषी साबित हो जाए तो उसका जेल जाना तय हो। डोनाल्ड ट्रंप की जीत बताती है कि अमेरिका आर्थिक और सामरिक रूप से भले ही आज दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र हो लेकिन उसका पूरी तरह सभ्य होना अभी शेष है।
डोनाल्ड ट्रंप अपने आक्रामक और निम्नस्तरीय नफरत भरे प्रचार के सहारे न सिर्फ खुद जीते बल्कि उन्होंने अपने से भी ज्यादा बूढ़ी अपनी रिपब्लिकन पार्टी में भी जान फूंक दी।
अमेरिकी संसद के दोनों सदनों: हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव (निचला सदन यानी लोकसभा) और सीनेट (उच्च सदन यानी राज्यसभा) के चुनावों में देश की सबसे पुरानी रिपब्लिकन ने भी निर्णायक जीत हासिल की है। इस तरह अमेरिका के दोनों सत्ता प्रतिष्ठानों पर अब देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी काबिज है।
चुनाव के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी ने बार-बार ये आरोप लगाया कि अगर ट्रंप जीत गए तो यह अमेरिका में आख़िरी चुनाव होगा, इसके बाद लोगों को वोट डालने का मौका नहीं मिलेगा। ट्रंप की सरकार में काम कर चुके वरिष्ठ अधिकारियों ने भी ट्रंप को फासीवादी बताया था।
लेकिन इन सब का अमेरिकी मतदाताओं के दिलो-दिमाग़ पर कोई असर नहीं हुआ तो इसका कुछ तो अर्थ होगा? जनता कुछ तो संदेश दे रही है? सवाल है कि लोकतंत्र और संविधान पर मंडराते खतरे को लोग बड़ा मुद्दा क्यों नहीं मानते हैं और उसे जिता देते है जो लोकतंत्र और संविधान के लिये ख़तरा है?
यह सवाल सिर्फ अमेरिका के संदर्भ में ही नहीं बल्कि भारत सहित दुनिया के कई देशों के संदर्भ में भी व्यापक बहस की दरकार रखता है।
हो सकता है कि लोग शायद अब ‘लोकतंत्र बचाओ’, ‘संविधान बचाओ’ के नैरेटिव से या तो ऊब चुके हैं या फिर वे यह मानते हैं कि लोकतंत्र इतना मज़बूत हो गया है कि किसी नेता के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने या न बनने से लोकतंत्र का कुछ नहीं बिगड़ने वाला है!
लिहाज़ा वे लोकतंत्र बचाओ के नारे को दूसरे नारों जैसा ही लेते हैं या भूल जाते हैं और ‘अपनी पहचान’, ‘अपना धर्म’ जैसे मुद्दों को अहमियत देते हैं।
अमेरिका में लोगों के सामने इस चुनाव में दो विकल्प थे। एक तरफ़ थे ‘गोरी चमड़ी वाले मर्द’ डोनाल्ड ट्रंप और दूसरी तरफ़ ‘काली या रंगीन चमड़ी वाली औरत’ कमला हैरिस।
एक तरफ़ थे ‘ही मैन’ डोनाल्ड ट्रंप, जिनकी जेब में अमेरिका समेत दुनिया भर के तमाम मसलों का हल है और दूसरी तरफ थीं ‘कमजोर’ कमला हैरिस, जो ढीले-ढाले से दिखने वाले जो बाइडेन की विरासत को आगे बढ़ाती दिख रही थीं।
वही बाइडेन जो रूस-यूक्रेन युद्ध और इजराइल की मनमानी पर रोक नहीं लगा पाए, जो चीन को काबू में करने में नाकाम रहे, जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं के बाहर निकलते समय अपनी छीछालेदर करवाई और जो अमेरिका जैसे मज़बूत देश के बेहद कमजोर राष्ट्रपति दिखे।
दरअसल डोनाल्ड ट्रंप की जीत का रास्ता उस भूलभुलैया से निकलता है जो आधुनिकता और पुरातनपंथ के बीच की उलझन है, दोनों के बीच का संघर्ष है। यह मानना पड़ेगा और शायद इस तरफ गहन अध्ययन की ज़रूरत है कि अमेरिकी लोग जितना अपने देश और समाज के आधुनिक होने का दंभ भरते हैं, दरअसल वह वैसा है नहीं।
इसलिए उनके पुरातनपंथी मूल्य रह-रह कर हिलोरे मारते हैं और वह मानवाधिकार, महिला अधिकार, समलैंगिक अधिकार जैसे अत्याधुनिक मूल्यों से खुद को नहीं जोड़ पाता है। वह आज भी अपनी चमड़ी के रंग से अपनी शिनाख्त करता है, अपनी अस्मिता को खोजता है।
उसकी नज़र में स्त्रियों की हैसियत का अर्थ सिर्फ बच्चे पैदा करना और घर संभालना है, देश और सरकार चलाना मर्दों का काम है। उसे लगता है कि अमेरिका तो गोरे ईसाइयों का मुल्क है और उसमें काली अथवा रंगीन चमड़ी वाले लैटिनी, एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों के आने से उनकी पहचान खत्म हो जाएगी।
ऐसे में जब ट्रंप आप्रवासियों के ख़िलाफ़ बोलते हैं तो अमेरिका के एक बड़े तबक़े को लगता है कि ट्रंप व्यक्तिगत रूप में कितने भी बुरे क्यों न हो, लेकिन वे उनकी पहचान को, उनकी अस्मिता को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी उनकी पहचान को ख़तरे में डाल रही है।
मूल अमेरिकी लोगों की इस मानसिकता को हम कबीलाई मानसिकता भी कह सकते हैं, जिसका अर्थ है एक कबीले के लोगों को एक साथ रहना चाहिए और दूसरे कबीले के लोग उनके कबीले के लिए ख़तरा बन सकते हैं।
यह मानसिकता इस वक्त लगभग पूरी दुनिया में सिर उठा रही है। इस मानसिकता की नुमाइंदगी दक्षिणपंथ पूरी शिद्दत से करता है। और जैसे-जैसे वैश्वीकरण टेक्नोलॉजी के माध्यम से दुनिया के हर घर को अपनी चपेट में ले रहा रहा है, वैसे-वैसे क़बीलाई मानसिकता अपने को और असुरक्षित महसूस कर रही है।
उसे लग रहा है कि शांति और सुरक्षा अपने तरह के लोगों के बीच ही मिल सकती है। लोग इस सुरक्षा की तलाश में धार्मिक कर्मकांडों के और क़रीब जा रहे हैं। इसलिए यह ताज्जुब की बात नहीं है कि ट्रंप की जीत को ईसाइयत की जीत के तौर पर देखा जा रहा है।
यह प्रवृत्ति दुनिया भर में तेज़ी से बढ़ रही है। मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था और विचार इसे रोकने में नाकाम है और अगर यह प्रवृत्ति इसी तरह बढ़ती रही तो लोकतंत्र सचमुच नहीं बच पाएगा। लिहाजा लोकतंत्र की दुहाई देने वाली ताकतों को अपनी रणनीति में बुनियादी बदलाव करना होगा।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंदौर में रहते हैं)
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