2024 के अमेरिकी चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी की हार ने एक बार फिर स्पष्ट किया है कि जब राजनीति वास्तविक समस्याओं से कट जाती है और दिखावटी, सतही मुद्दों में उलझ जाती है, तब जनता के विश्वास को खो देती है। आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में, आर्थिक असमानता, रोजगार संकट और वैश्विक स्तर पर होने वाले मानवीय संघर्ष मुख्य मुद्दे हैं।
इस डिजिटल युग में, जहां AI, डेटा एनालिटिक्स और सोशल मीडिया जनता की सोच को नया स्वरूप दे रहे हैं, राजनीति का अलग, नया चेहरा उभरना चाहिए, जो समाज के व्यापक हिस्से को जोड़ सके और उन्हें शक्ति दे।
यह ऐसा समय है, जिसमें राजनीतिक दलों को गहरी आर्थिक असमानताओं को संबोधित करना चाहिए और तकनीकी प्रगति के कारण आने वाले बड़े बदलावों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
आज के डिजिटल युग में, श्रम का स्वरूप बदल गया है। AI और ऑटोमेशन के कारण कई परंपरागत नौकरियां गायब हो रही हैं और नए काम के अवसर अलग वर्ग का निर्माण कर रहे हैं जो ‘वर्चुअल श्रमिकों’ के रूप में कार्य करता है।
चाहे वह फ्रीलांसिंग हो, गिग इकॉनमी में काम करने वाले हों या डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कार्य करने वाले लोग, यह नया समाज बना रहे हैं जो अस्थायी और अनिश्चितता से भरा है। इस अनिश्चितता ने एक नई श्रेणी बनाई है, जिसे कोई राजनीतिक समर्थन नहीं मिल रहा है।
इसके साथ ही, उन लोगों में असुरक्षा और असंतोष बढ़ रहा है जो इन नई तकनीकों के कारण रोज़गार से वंचित हो रहे हैं। ऐसे में, ऐसी राजनीतिक दृष्टि की आवश्यकता है जो तकनीकी प्रगति के साथ-साथ श्रमिकों की सुरक्षा का भी ध्यान रखे, ताकि किसी एक समूह के लाभ के लिए समाज के एक बड़े हिस्से का शोषण न हो।
आज का समाज दो भागों में बंटता दिखाई दे रहा है – एक वह जो डिजिटल क्रांति से लाभान्वित हो रहा है और दूसरा वह जो इस क्रांति से उत्पन्न असमानता के दायरे में आ रहा है। एक ओर ऐसे लोग हैं जो AI और तकनीक की मदद से धन अर्जित कर रहे हैं, दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए अपनी आजीविका बनाए रखना भी मुश्किल हो गया है।
यह असमानता केवल आय तक सीमित नहीं है, बल्कि डिजिटल दुनिया में उपलब्ध सुविधाओं तक पहुंच में भी दिखाई देती है। तकनीकी विकास ने न केवल काम के स्वरूप को बदल दिया है बल्कि उपभोक्ता वर्ग को और अधिक विभाजित कर दिया है।
जब तक यह असमानता दूर नहीं होती, समाज में स्थिरता की संभावना नहीं है। डिजिटल युग में नई राजनीति की आवश्यकता है जो इस असमानता को दूर करने का मार्ग खोज सके।
पहचान की राजनीति ने आज की राजनीति को संकुचित दृष्टिकोण दिया है, जहां जाति, लिंग और अन्य सामाजिक पहचान के मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है। यह मुद्दे महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये अक्सर बड़े और गंभीर आर्थिक मुद्दों पर से ध्यान हटा देते हैं।
आर्थिक अनिश्चितता, नौकरियों का संकट और आम आदमी की बुनियादी जरूरतें भी आज की राजनीति के केंद्र में होनी चाहिए।
वर्तमान समय में, जनता केवल पहचान के आधार पर राजनीति को समर्थन नहीं देती। वे ऐसे नेतृत्व की तलाश में हैं जो वास्तविक समस्याओं का समाधान कर सके।
इसलिए, यह आवश्यक है कि राजनीति की परिभाषा को पुनर्परिभाषित किया जाए, ताकि वह व्यापक दृष्टिकोण अपनाए और पहचान के मुद्दों के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को भी संबोधित कर सके।
आज के युग में, वैश्विक संघर्षों का प्रभाव स्थानीय राजनीति पर भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, गाजा और यूक्रेन जैसे संघर्षों ने अमेरिकी चुनावों में लोगों की धारणाओं को प्रभावित किया। जब कोई सरकार नैतिकता के नाम पर कहीं हस्तक्षेप करती है और अन्य जगहों पर दमनकारी नीतियों का समर्थन करती है, तो वह जनता के विश्वास को खो देती है।
जनता यह देख रही है कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में नैतिकता की बातें करना और घरेलू स्तर पर अपने लोगों के अधिकारों और जरूरतों की उपेक्षा करना दो अलग बातें हैं। इस डिजिटल युग में नेतृत्व के सामने चुनौतियां नई हैं। अब नेताओं को केवल नीतियों का निर्माता ही नहीं, बल्कि सच्चे मार्गदर्शक और परिवर्तनकारी व्यक्ति के रूप में कार्य करना होगा।
जनता अब उस नेता पर विश्वास नहीं करती जो केवल शब्दों में प्रगतिशीलता का प्रचार करता हो; उन्हें ऐसा नेता चाहिए जो वास्तव में उनके साथ खड़ा हो, उनकी समस्याओं को समझे और वास्तविक समाधान प्रस्तुत कर सके।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव हमेशा से सिर्फ लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं रहे हैं, बल्कि सत्ता, आर्थिक हितों और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच शक्ति-संतुलन का अमेरिकी चुनावी प्रक्रिया में समय-समय पर ऐसे बदलाव देखे गए हैं, जो केवल राजनीतिक दृष्टिकोण नहीं बल्कि गहरे सामाजिक और आर्थिक विभाजन का भी प्रतीक हैं।
यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो यह चुनाव कभी भी केवल जनमत का प्रतीक नहीं रहा है, बल्कि उस दौर की आर्थिक संरचनाओं और शक्ति-संरचनाओं की छवि प्रस्तुत करता है।
अमेरिकी चुनाव प्रणाली में प्रमुख भूमिका ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ की है। यह प्रणाली इस आधार पर बनाई गई थी कि प्रत्येक राज्य को वोटों के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिले। यह मॉडल सतही तौर पर तो संतुलित प्रणाली प्रतीत होती है, लेकिन वास्तव में यह विशिष्ट अभिजात वर्ग के हाथों में सत्ता को संकेंद्रित करने का एक उपकरण है।
यह प्रणाली उन राज्यों को अधिक महत्व देती है जहां पर अभिजात वर्ग की पकड़ मजबूत होती है और इस प्रकार चुनावों का निर्णय केवल कुछ ही राज्यों और विशिष्ट वर्गों द्वारा किया जाता है।
इतिहास में कई बार यह देखा गया है कि एक उम्मीदवार ने राष्ट्रीय स्तर पर अधिक वोट प्राप्त किए लेकिन ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ में पीछे रह जाने के कारण वह चुनाव हार गया। यह दर्शाता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को किस तरह विशेष वर्ग के हितों की रक्षा के लिए परिवर्तित किया गया है।
2000 और 2016 के चुनाव इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जहां जनमत के बावजूद ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ ने विशेष वर्ग के अनुकूल परिणाम दिए।
अमेरिकी चुनावों में पूंजी की भूमिका हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है। कॉर्पोरेट और उद्योगपति वर्ग का सहयोग उम्मीदवार के लिए बहुत अधिक मायने रखता है। इतिहास में देखें तो 1970 के दशक से कॉर्पोरेट फाइनेंसिंग ने चुनावों पर गहरा प्रभाव डालना शुरू कर दिया।
इस युग में ‘पोलिटिकल एक्शन कमिटीज’ (PACs) और ‘सुपर PACs’ के माध्यम से कॉर्पोरेट घरानों ने उम्मीदवारों पर निवेश करना शुरू किया, जिससे आर्थिक हितों को संरक्षित करने का नया ढांचा बना। आधुनिक समय में, यह प्रणाली और भी सुदृढ़ हुई है।
आज, चुनावों में अरबों डॉलर खर्च होते हैं और इस प्रकार की पूंजी केवल कुछ ही अभिजात वर्ग के पास उपलब्ध होती है। इसलिए यह साफ है कि किसी भी उम्मीदवार की प्राथमिकता उन शक्तिशाली वर्गों के हितों की रक्षा करना है जो आर्थिक रूप से उनके चुनाव अभियान को संचालित करते हैं।
अमेरिकी राजनीति में समय-समय पर वर्गीय विभाजन को पहचान की राजनीति के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया है। यह विभाजन अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण और व्हाइट और अन्य नस्लीय समूहों के बीच देखा जा सकता है। इस तरह के विभाजन ने अमेरिका में ऐसा माहौल बनाया है जहां सत्ता में बने रहने के लिए पहचान की राजनीति का सहारा लिया जाता है।
इस विभाजन का सबसे अच्छा उदाहरण 1960 के दशक का ‘सिविल राइट्स मूवमेंट’ है, जिसने अफ्रीकी-अमेरिकियों को उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाने का मंच प्रदान किया। इसके बाद, सत्ता में बैठे लोगों ने पहचान की राजनीति को ऐसे साधन के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जो समाज के विभिन्न वर्गों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर सके।
हाल के चुनावों में भी यह रणनीति देखी गई है, जहां किसी विशेष समुदाय या पहचान समूह को समर्थन देने के नाम पर जनता का ध्रुवीकरण किया जाता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अमेरिका का सत्ता तंत्र यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रपति चुनावों के दौरान सैन्य और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का प्रयोग जनता का ध्यान आंतरिक मुद्दों से हटाने के लिए किया जा सके।
उदाहरणस्वरूप, जब 2001 में अफगानिस्तान में युद्ध का आगाज हुआ, तब यह अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए किया गया था, लेकिन इसका प्रभाव आंतरिक राजनीति पर भी पड़ा।
इसके बाद से ही, अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में यह देखा गया है कि जो उम्मीदवार सैन्य नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप का समर्थन करता है, उसे एक मजबूत नेता के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार, सैन्य शक्ति और राजनीतिक शक्ति के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की जाती है जो वैश्विक स्तर पर अमेरिकी प्रभुत्व को बनाए रख सके।
आज के डिजिटल युग में मीडिया और सोशल मीडिया का प्रभाव भी चुनावों पर बहुत अधिक पड़ता है। मीडिया ने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों को ऐसा मंच बना दिया है, जहां उम्मीदवारों की छवि निर्मित और प्रभावित की जाती है। यह शक्ति, जिसे मीडिया पर मौजूद बड़े कॉर्पोरेट नियंत्रित करते हैं, जनमत को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
आज के समय में, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर झूठी खबरें और मिथ्या प्रचार आम बात हो गई है। यह प्रचार अक्सर ऐसे मुद्दों पर केंद्रित होता है जो समाज को विभाजित करने का काम करते हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया के इस प्रभाव के कारण, चुनावों में वास्तविक मुद्दों की जगह पर अधूरी जानकारी और भ्रामक आंकड़े जनता तक पहुंचते हैं। इससे सत्ता वर्ग की सत्ता बनाए रखने की योजना और भी प्रभावी होती है।
डोनाल्ड ट्रंप की 2024 की अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में विजय कई मायनों में सिर्फ राजनीतिक जीत नहीं है, बल्कि सत्ता, सामाजिक असमानता और एक विशेष वर्ग के प्रभुत्व की गहरी कहानी बयां करती है।
ट्रंप की सफलता ने एक बार फिर अमेरिकी समाज के उन आंतरिक अंतर्विरोधों को उजागर किया है जो पूंजीवादी संरचना और बढ़ती आर्थिक विषमताओं से जन्म लेते हैं। यह जीत, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उस रूप को दर्शाती है जहां पूंजी और सत्ता का केंद्रीकरण आम जनमानस को ‘असली बदलाव’ की उम्मीद में अपने पक्ष में खड़ा कर लेता है।
ट्रंप की जीत का सबसे महत्वपूर्ण कारण उनकी “एंटी-एस्टैब्लिशमेंट” छवि है। अमेरिकी समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता और कमजोर होती सामाजिक सुरक्षा ने ऐसा माहौल बनाया है जहां कामकाजी वर्ग खुद को हाशिए पर महसूस करता है। अर्थव्यवस्था की संरचना ने उन लोगों को जोड़े रखा है जिनका जीवन अस्थिर और अनिश्चित है।
अमेरिकी समाज में निचले और मध्य वर्गों के आर्थिक संकट और रोजगार असुरक्षा के चलते जनता ने ऐसे नेता की ओर रुख किया जो उन्हें “वास्तविक बदलाव” का वादा कर सके।
ट्रंप ने अपने भाषणों में बार-बार आर्थिक असमानता और रोजगार के मुद्दों को उठाया। उन्होंने खुद को एक ‘आउटसाइडर’ के रूप में प्रस्तुत किया, जो पारंपरिक पूंजीवादी राजनीति से हटकर काम करेगा। यह उनकी वह छवि थी जो औद्योगिक और निम्न आय वाले क्षेत्रों के मतदाताओं को प्रभावित करने में सफल रही।
यह इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि जब व्यवस्था आम लोगों की समस्याओं को हल करने में विफल होती है, तो लोग उस नेता की ओर आकर्षित होते हैं जो उनकी जरूरतों को समझता हुआ प्रतीत होता है, चाहे उसकी नीति कितनी भी यथार्थवादी न हो।
ट्रंप की राष्ट्रवादी और संरक्षणवादी नीतियां, जैसे “अमेरिकन प्रोडक्ट्स फर्स्ट” और “जॉब्स फॉर अमेरिकन वर्कर्स,” कामकाजी वर्ग को अपने पक्ष में करने के लिए बनाए गए थे। उन्होंने दावा किया कि विदेशी प्रतिस्पर्धा और प्रवासन की वजह से अमेरिकी मजदूरों का हक छीना जा रहा है।
इस ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति ने उन कामकाजी अमेरिकियों के बीच एक विरोधाभास को जन्म दिया जो पूंजीवादी नीतियों से सीधे प्रभावित हुए हैं, लेकिन पूंजीवाद को संरक्षित करने वाली ताकतों का समर्थन भी कर रहे हैं।
यह समझना जरूरी है कि ट्रंप का राष्ट्रवाद कामगार वर्ग के लिए फायदेमंद नहीं है, बल्कि पूंजी का वही केंद्रीकरण बनाए रखने का साधन है जिसे वे खुद “विरोध” करने का दावा करते हैं।
उनके राष्ट्रवादी विचारधारा ने कामगार वर्ग को इस प्रकार विभाजित कर दिया कि वे अपने ही आर्थिक हितों के खिलाफ मतदान कर रहे थे, उन नीतियों के पक्ष में जो अंततः पूंजीपतियों के हितों को संरक्षित करती हैं।
ट्रंप की जीत में उनकी एंटी-वोक (विरोधी-प्रगतिशील) रुख का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने ‘वोक’ और ‘कैंसल कल्चर’ के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए और इसे “साधारण अमेरिकियों” पर एक आक्रमण के रूप में प्रस्तुत किया।
अमेरिकी समाज में बढ़ती सामाजिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के बीच, ट्रंप ने ‘प्रगतिशील’ विचारधारा को ‘जनता-विरोधी’ और ‘अभिजात वर्ग का प्रपंच’ बताया। इससे कामकाजी वर्ग में वे प्रगतिशील नीतियों को उनके दैनिक जीवन में हस्तक्षेप के रूप में देखने लगे।
देखा जाए तो, यह ऐसे “झूठे विवेक” का निर्माण है जिसमें मेहनतकश वर्ग के असली दुश्मन को न पहचानते हुए वे सांस्कृतिक मुद्दों पर अपने बीच के विभाजन को बढ़ा देते हैं। जब समाज के सबसे उत्पीड़ित और मेहनतकश वर्ग सांस्कृतिक संघर्ष में उलझ जाते हैं, तो वे असली आर्थिक शोषण को अनदेखा कर देते हैं और पूंजीवाद अपनी पकड़ मजबूत करता जाता है।
डिजिटल युग में सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स का चुनाव पर गहरा असर रहा है। ट्रंप ने अपनी छवि को एक ‘पीड़ित’ के रूप में स्थापित किया, जिसे एक ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ का शिकार बताया गया। सोशल मीडिया पर झूठी खबरें और प्रोपेगैंडा फैलाकर उन्होंने अपनी छवि को मजबूत किया और लोगों में अपने प्रति सहानुभूति उत्पन्न की।
इस डिजिटल दुष्प्रचार ने ऐसी छवि बनाई कि ट्रंप आम जनता के लिए लड़ रहे हैं, जबकि वे स्वयं उसी अभिजात वर्ग का हिस्सा हैं।
यह स्पष्ट है कि डिजिटल मीडिया का पूंजीवादी हितों के लिए उपयोग किया गया है। बड़े कॉर्पोरेट और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने अपने हितों को साधने के लिए ट्रंप की छवि को गढ़ने और जनता की धारणा को प्रभावित करने का कार्य किया।
सोशल मीडिया का यह प्रभाव केवल सूचना की जगह भ्रामक दृष्टिकोण को मजबूत कर रहा है, जो पूंजीवादी व्यवस्था को अधिक सुदृढ़ करता है। ट्रंप की जीत यह भी दर्शाती है कि लोकतंत्र की सतही संरचना में ही बुनियादी समस्याएं हैं।
अमेरिकी चुनाव प्रणाली, जिसमें ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ और कॉर्पोरेट फंडिंग का प्रभाव है, जन-जन के वास्तविक विचारों और जरूरतों को हमेशा सही तरीके से प्रस्तुत नहीं करती।
ट्रंप ने इस प्रणाली का उपयोग कर ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व किया, जो खुद को हाशिए पर महसूस करता है, पर वास्तविकता में वही प्रणाली उनके हितों को कमजोर करती है।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि चुनावी प्रणाली का यह ढांचा पूंजी के केंद्रीकरण को बनाए रखने के लिए काम करता है। ट्रंप की जीत भ्रम पैदा करती है कि “जनता की आवाज़” सत्ता में आई है, जबकि असल में सत्ता की चाबी उन्हीं पूंजीपति वर्गों के पास है जिन्होंने इस प्रणाली को डिजाइन किया है।
ट्रंप की जीत का विश्लेषण यह संकेत देता है कि अमेरिकी समाज में आर्थिक असमानता, सांस्कृतिक विभाजन और डिजिटल मीडिया का प्रभाव कैसे पूंजीवादी संरचना को बनाए रखने का कार्य कर रहे हैं।
ट्रंप का ‘आउटसाइडर’ होने का दावा, उनका राष्ट्रवादी रुख और सांस्कृतिक मुद्दों पर विभाजनकारी रणनीति, पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत करने के उपकरण हैं।
उनके वादों और नारों ने आम जनता को एक बार फिर ऐसे भ्रम में डाल दिया जहां वे अपने हितों के खिलाफ कार्य कर रहे हैं, और पूंजीवादी अभिजात वर्ग का प्रभुत्व और मजबूत होता जा रहा है।
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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