UAPA: जन आंदोलनों के खिलाफ सत्ता का हथियार

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“जमानत नियम है, जेल अपवाद” यह न्यायिक सूत्र वाक्य 1970 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने दिया था। तब से आज 47 वर्ष बीत चुके हैं और इस बीच यह नियम सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जब तब तमाम मुकदमों में बोलते रहे हैं, लेकिन निचली अदालतों और हाई कोर्ट ने इस संवैधानिक अधिकार और आपराधिक न्यायिक नियम को लगातार नजरअंदाज किया है।

हालांकि बीते दशकों में खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मौकों पर इसकी उपेक्षा की है। सबसे उल्लेखनीय मामला दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जीएन साईबाबा का है, जब मुंबई हाई कोर्ट से जमानत मिलने पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बेला त्रिवेदी और एमआर शाह की बेंच ने अवकाश के बावजूद शनिवार को विशेष सुनवाई करके रद्द कर दी। लगभग डेढ़ वर्ष बाद पुनः मुंबई हाई कोर्ट ने जमानत दी।

बाद में सुप्रीम कोर्ट ने साई बाबा सहित सभी 5 सह आरोपियों को बरी कर दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह न्याय इतने विलंब से हुआ कि 33 वर्षीय खेतीहर मजदूर पांडू नरोटे की जेल में 9 वर्ष तक रहने के बाद 2022 में मृत्यु हो गई। इस तरह सुप्रीम कोर्ट खुद भी कटघरे में है। उसके विलंबित फैसले से एक दशक के बाद दोष मुक्ति राहत पाने वालों के किस काम की, जिसमें एक मजदूर निर्दोष होने के बावजूद घर नहीं लौट सका और 90% विकलांग साई बाबा की नौकरी, सामाजिक सम्मान और पारिवारिक सुख-शांति चली गई।

आरएसएस-भाजपा की मोदी-2 सरकार ने दो काले कानूनों गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के अलावा, सरकार की कॉर्पोरेट परस्त, सांप्रदायिक और फासिस्ट नीतियों का विरोध करने वालों के खिलाफ जमकर इस्तेमाल किया है। यूएपीए कानून जन आंदोलनों के नेताओं, कार्यकर्ताओं और नागरिक अधिकारों के शुभचिंतकों एवं मानवाधिकारवादियों के खिलाफ किसी जंग से कम नहीं।

हालांकि जून माह में आए आम चुनाव के परिणामों में आरएसएस-भाजपा की शिकस्त और फिर मोदी-3 की अल्पमत सरकार के रूप में सत्ता में वापसी के बाद स्थितियां बदली हैं। जुलाई और अगस्त माह में सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में टिप्पणी करते हुए कहा है कि यह कानून संविधान के बुनियादी अधिकारों और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के खिलाफ है, लेकिन निचली अदालतों ने अभी भी उस पर तवज्जो नहीं दिया है।

जेएनयू छात्र नेता उमर खालिद, जिन्हें 2020 के दिल्ली दंगों में आरोपी बनाकर यूएपीए लगाया गया। उनकी जमानत याचिका ट्रायल कोर्ट में दो बार खारिज हो चुकी है। हाई कोर्ट में याचिका दायर करने के पूर्व सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका लगाई और फिर उसे वापस ले ली। दिल्ली में सीएए-एनआरसी आंदोलन के लगभग दर्जन भर कार्यकर्ताओं जिन पर दिल्ली दंगों का आरोप पुलिस ने लगा कर यूएपीए का भी मामला दर्ज किया है। यह सभी 3 वर्ष से अधिक समय से जेलों में हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त माह में एक फैसला देते हुए कहा कि “जमानत नियम है, जेल अपवाद है” का सिद्धांत यूएपीए के तहत दर्ज मामलों पर भी लागू होगा। इस फैसले से यूएपीए के देश में लंबित हजारों मामलों पर असर पड़ना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट और ट्रायल कोर्ट को जमानत पर “स्थापित कानून” के बारे में याद दिलाया और उनसे कहा कि जब आतंकवाद विरोधी आरोप लगाए जाते हैं, तब भी उन्हें जमानत देने में संकोच नहीं करना चाहिए। उचित मामलों में जमानत देने से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन के अधिकार का उल्लंघन होगा, जिसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में गिरफ्तार बिहार के एक व्यक्ति को जमानत देने के मामले में उक्त आदेश जारी किया था। न्यायमूर्ति अभय कोका की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा “यहां तक की मौजूदा मामले (यूएपीए के तहत) जैसे मामले में भी, जहां संबंधित कानून में जमानत देने के लिए कड़ी शर्ते हैं, वही नियम केवल इस संशोधन के साथ लागू होता है कि अगर कानून की शर्तें पूरी होती हैं, तो जमानत दी जा सकती है।

पीठ ने व्यक्ति को रिहा करने का आदेश देते हुए कहा कि प्रथम दृश्य उसके खिलाफ आतंकवाद का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “जमानत एक नियम है और जेल एक अपवाद” सिद्धांत का अर्थ यह है कि एक बार जब जमानत देने का मामला बन जाता है, तो अदालतें इसे अस्वीकार नहीं कर सकती।

इससे पूर्व अगस्त माह में ही न्यायमूर्ति बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने “न्यूज क्लिक” के मालिक प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि उनकी गिरफ्तारी यूएपीए में कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करती। इसके अलावा जुलाई में जस्टिस जी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली पीठ ने आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार एक व्यक्ति को जमानत दे दी। यह देखते हुए कि उसके मामले में मुकदमा बहुत ही धीमी गति से चल रहा था। पीठ ने उस मामले में कहा था कि लंबे समय तक कैद में रहना और मुकदमे में देरी जमानत देने के अच्छे आधार हैं।

अगस्त के अंतिम सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट ने “जमानत नियम है और जेल अपवाद है” सिद्धांत को धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) पर भी लागू किया। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के सहयोगी को इसी आधार पर जमानत दे दी और हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया, जिसने जमानत पर रोक लगा दी थी।

जस्टिस गवई, जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने पुनः दोहराया कि कानून की समुचित प्रक्रिया का पालन करते हुए ही किसी नागरिक को आजादी के बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जा सकता है। पीठ ने कहा कि यह नियम पीएमएलए में भी लागू होगा। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

बीते 5 वर्षों में पीएमएलए का इस्तेमाल जहां मोदी सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को कमजोर करने अथवा समाप्त करने के लिए किया है। वहीं यूएपीए का इस्तेमाल जनता के जनवादी अधिकारों के हनन पर सवाल उठाने वाले पत्रकारों, बुद्धिजीवियों छात्रों और जल, जमीन, जंगल कॉरपोरेट को सौंपने की सरकारी नीतियों का विरोध करने वाले नागरिक संगठनों के कार्यकर्ताओं और जन आंदोलनों के नेताओं, मानवाधिकार वादी कार्यकर्ताओं के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो एनसीआरबी के आंकड़ों के हिसाब से आरएसएस-बीजेपी सरकार के 2014 से 2021 के 7 वर्षों के कार्यकाल में 10552 लोग देशद्रोह और यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए। इनमें से केवल 253 दोषी पाए गए। इस आंकड़े में देशद्रोह के भी मामले शामिल हैं। एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट में 2019 से राज्य के विरुद्ध अपराध मामलों के आंकड़े देने शुरू किए हैं। उससे पहले देशद्रोह कालम के नाम से रिपोर्ट में वह प्रदर्शित किए जाते थे।

दरअसल आरएसएस-बीजेपी की केंद्र सरकार ने गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम संशोधन अधिनियम 2019 संसद में पारित किया था। इसके तहत केंद्रीय जांच एजेंसियों को औपचारिक न्यायिक प्रक्रिया का पालन किए बिना, किसी भी व्यक्ति को बिना सबूत और गवाह के सिर्फ अपने “यक़ीन” के आधार पर ही आतंकवादी के रूप में चिन्हित करना संभव बना दिया है। यह मूलतः आतंकवाद विरोधी कानून के रूप में संशोधित किया गया था। इससे पहले इस कानून में 2012, 2008, 2004, 1986, 1972 और 1969 में संशोधन किए गए थे।

2019 में संशोधित यूएपीए कानून के तहत आतंकवादी गतिविधियों के लिए किसी संगठन का शामिल होना जरूरी नहीं रहा, बल्कि आतंकवाद का किसी भी रूप में समर्थन करने पर उस व्यक्ति को आतंकी घोषित किया जा सकता है। इसके लिए किसी सुबूत या गवाह की भी जरूरत नहीं है। जांच एजेंसियों को सिर्फ यकीन हो जाए कि फलां व्यक्ति आतंकवादी है, तो फिर उसे यूएपीए के तहत गिरफ्तार करने का अधिकार उसके पास है। सब कुछ केंद्रीय जांच एजेंसियों के यकीन पर निर्भर है।

इस तरह सरकार को वह हर नागरिक आतंकवादी लग सकता है, जो सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ बोलता, लिखता, या सरकार विरोधी किसी लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों या धरना आदि कार्यक्रमों में शामिल होता है या आयोजित करता है। इस तरह यह कानून आपराधिक न्यायिक प्रक्रियाओं और संविधान के बुनियादी अधिकारों का भी उल्लंघन करता है कि अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं घोषित किया जा सकता, जब तक वह दोष सिद्ध ना हो जाए, लेकिन यूएपीए 2019 संशोधन के बाद इन मामलों में आरोपी को फैसले से पहले ही आतंकवादी कर दिया जाता है

एनसीआरबी की सबसे ताजा रिपोर्ट 2022 की है, जिसमें 1 वर्ष के दौरान 1005 व्यक्ति यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए। कानून में संशोधन के बाद प्रतिवर्ष जो गिरफ्तारियां हुईं वह इस प्रकार हैं। 2021 में 814, 2020 में 796, 2019 में 1226 और 2018 में 1182 लोग (देशद्रोह सहित मामले) गिरफ्तार किए गए। वर्ष 2022 में सर्वाधिक 371 लोगों पर जम्मू कश्मीर में यूएपीए लगाया गया। इसके बाद 167 मणिपुर, 133 असम, 101 उत्तर प्रदेश, 71 झारखंड और 28 लोग बिहार में गिरफ्तार किए गए।

इसके अलावा आंध्र प्रदेश में 13, छत्तीसगढ़ 3, हरियाणा 11, केरल 23, पंजाब 25, दिल्ली 12, महाराष्ट्र 4 और पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में 2-2 लोगों की गिरफ्तारी हुई। 2021 में कुल 814 यूएपीए के मामले आए, जिसमें सर्वाधिक 289 गिरफ्तारियां जम्मू कश्मीर में हुईं। मणिपुर में 157, असम 95, झारखंड 86, उत्तर प्रदेश 83, बिहार 26, केरल 18, पंजाब 14, दिल्ली और मध्य प्रदेश में 5-5 लोग गिरफ्तार किए गए।

जम्मू कश्मीर में 2020 में भी 293 लोग यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए। दिल्ली में वर्ष 2018 से 2022 के बीच 27 लोग इस कानून के तहत गिरफ्तार किए गए। यह गौरतलब है कि एक मामले का मतलब सिर्फ एक आरोपी नहीं है। एक मामले में एक से अधिक आरोपी भी हो सकते हैं। यूएपीए के सर्वाधिक मामले कश्मीर में हैं, जो 370 की समाप्ति के बाद हालात बेहतर होने के केंद्र सरकार के दावों की भी पोल खोलता है।

इस तरह औसतन प्रतिवर्ष 985 मामले यूएपीए के तहत दर्ज किए जा रहे हैं, जिसमें बड़ी संख्या मुस्लिम, दलित और आदिवासियों की है। इसके अलावा सरकार के विरुद्ध बोलने, लिखने अथवा किसी भी स्वरूप में उसकी नितियों और फासिस्ट एजेंडे का विरोध करने वालों को गिरफ्तार किया गया है।

यह शहर दर शहर हुई गिरफ्तारियों की खबरों को सरसरी तौर पर देखने से लगता है, क्योंकि एनसीआरबी धर्म, जाति, समूह, व्यवसाय अथवा मानवाधिकार वादी कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां को अलग-अलग प्रदर्शित नहीं करता। दिल्ली में यूपीए के तहत अधिकांश गिरफ्तारियां सीएए-एनआरसी आंदोलन और उसके दरमियान फरवरी 2020 में हुए दंगों के बाद हुईं। इसमें 20-22 वर्ष के छात्र-छात्राओं के अलावा, सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता भी हैं।

इसमें से अधिकांश को राहत नहीं मिली है और तीन से पांच वर्षों से लोग जेलों में है और अदालतें बार-बार उनकी जमानतें रद्द कर रही हैं, जबकि अधिकांश मामलों में जांच एजेंसी चार्जशीट तक दायर नहीं कर सकी है। इससे पूर्व पुणे का भीमा कोरेगांव मामला उल्लेखनीय है, जो दलित, शोषित पिछड़ी जातियों के ऐतिहासिक पहचान और उनकी सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा मामला था। उसका दमन करने के साथ ही उसके बहाने देश के दर्जन भर से अधिक जन सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवियों को वर्षों हिरासत में रखा गया। उनमें से जिनको जमानत दी गई है उसकी शर्त खामोशी है !

यूएपीए के तहत हजारों लोग जेल में बंद हैं, लेकिन राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने नया जाल बुनना शुरू कर दिया है। अर्बन नक्सल के नाम पर अगस्त के अंतिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा के कई जिलों में बड़े पैमाने पर छापे मारे और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज जप्त की। इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस का मतलब मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप, पेन ड्राइव होते हैं, जो डिजिटल वर्ल्ड में दैनिक जीवन के जरूरी उपकरण बन चुके हैं। उन्हें जांच एजेंसियां कारपोरेट मीडिया के माध्यम से इस ढंग से प्रचारित करती हैं। मानो छापे में गोला बारूद का ज़ख़ीरा ज़ब्त किया गया है। अर्बन नक्सल शब्द की अवधारणा आरएसएस बीजेपी सरकार ने कॉर्पोरेट मीडिया के माध्यम से गढ़ी है। आने वाले महीनों में इन छापों और जब्ती के आधार पर और भी नए लोगों पर यूएपीए के तहत गिरफ्तारियां किए जाने की खबरें आ सकती हैं।

एनसीआरबी रिपोर्ट के अनुसार जांच, चार्जशीट दायर करने और कोर्ट में ट्रायल की प्रक्रिया बहुत ही धीमी है। जांच के लिए कुल 7807 मामले हैं। रिपोर्ट के अनुसार 52 मामले गलत साबित होने के कारण उन पर फाइनल रिपोर्ट लग गई है। 5 मामले तथ्य न होने के कारण समाप्त हो गए। 501 मामले अपर्याप्त साक्ष्य और सबूत न होने के कारण रद्द हो गए। 2022 में हजारों लंबित मामलों में से सिर्फ 483 मामले में चार्जशीट हो सकी है। इसके अलावा पिछले वर्ष के मामलों में 36 पर आरोप सिद्ध हुए और 153 बरी हो गए। जांच एजेंसियों ने हजारों मामलों में से सिर्फ 765 मुकदमे ही ट्रायल के लिए भेजे।

रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोटने के लिए यूएपीए जैसे कानून का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि बीते एक दशक में यूएपीए का मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, छात्रों, श्रमिकों और आदिवासियों पर अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया है। जम्मू कश्मीर में सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम और छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम और भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह जैसे प्रावधानों को लागू किया गया है। इसमें बड़ी संख्या में पत्रकार भी शामिल हैं।

भारत में 2010 से 2020 के दौरान गिरफ्तार किए गए पत्रकारों को लेकर फ्री स्पीच कलेक्टिव के अध्ययन “बिहाइंड बार्स” के अनुसार भारत में 154 पत्रकारों को उनके पेशेवर कामों के लिए गिरफ्तार किया गया अथवा पूछताछ की गई या नोटिस जारी किया गया। इनमें से 40% से अधिक मामले वर्ष 2020 में हुए। 9 विदेशी पत्रकारों को भी देश से बाहर निकालने, गिरफ्तारी और पूछताछ का सामना करना पड़ा।

“द वायर” की एक खबर के अनुसार यूएपीए के तहत 16 पत्रकार आरोपित किए गए। इनमें 7 पत्रकार जेल में बंद हुए। आरोप में 8 पत्रकार जमानत पर हैं। एक पत्रकार आरोपित है, लेकिन गिरफ्तार नहीं हुए और एक आरोप मुक्त किए गए। यही नहीं बीते वर्ष अक्टूबर माह में न्यूज़ पोर्टल न्यूज़पेपर के संपादक और उसके सहयोगी को गिरफ्तार किया गया। डिजिटल न्यूज़ प्लेटफार्म से जुड़े 46 पत्रकारों के घरों पर विदेशी फंडिंग के आरोपों के चलते छापे डाले गए।

प्रबीर पुरकायस्थ पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज हुआ। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अब उन्हें जमानत दे दी है और अन्य पत्रकारों को पूछताछ के बाद मुक्त कर दिया, लेकिन गैर कॉरपोरेट मीडिया जिसमें मुख्यतः फ्रीलांसर, यूट्यूबर, ब्लॉगर और वेबसाइट चलाने वाले स्वतंत्र पत्रकार डर और आतंक के साए में काम कर रहे हैं।

(अनिल दुबे वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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