उद्धव ठाकरे ने दिखाया है मीडिया को सुधारने का तरीका

महाराष्ट्र में हाल ही में मची राजनीतिक उथल-पुथल और उसके बाद हुए सत्ता-परिवर्तन के दौरान भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव का संकेत मिला है। करीब दो सप्ताह तक चले नाटकीय घटनाक्रम में ज्यादातर लोगों का ध्यान खासतौर पर विधायकों की संख्या पर रहा। किस खेमे के पास कितने विधायक हैं, कितने विधायक गुवाहाटी पहुंचे, कितने रास्ते में हैं, कितने किसके संपर्क में हैं, कितने वापस लौटेंगे आदि पर सारी चर्चा होती रही। तीन दिन के भीतर सुप्रीम कोर्ट के विरोधाभासों से भरे दो अलग-अलग फैसले भी खूब चर्चा में रहे। लेकिन इस दौरान जिस एक खास बात पर कम ही लोगों का ध्यान गया, वह यह कि उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े की घोषणा पारंपरिक या तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के सामने न करते हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर की। 

आमतौर पर कोई भी मुख्यमंत्री या दूसरा बड़ा नेता इस्तीफा देता है तो वह उसका ऐलान मीडिया के सामने करता है, लेकिन उद्धव ठाकरे ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अखबारों और टीवी चैनलों के संवाददाताओं को बुला कर उनके सामने इस्तीफा देने का ऐलान करने के बजाय फेसबुक लाइव के जरिए अपने इस्तीफ़े का ऐलान किया। 29 जून को रात नौ बजे के करीब सुप्रीम कोर्ट की अवकाश कालीन बेंच ने अपने ही दो दिन पुराने आदेश को पलटते हुए कहा कि उद्धव ठाकरे सरकार को राज्यपाल के निर्देशानुसार 30 जून को बहुमत साबित करना होगा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के आधे घंटे बाद मुंबई में उद्धव ठाकरे ने फेसबुक पर लाइव प्रसारण शुरू किया। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इस्तीफ़े का ऐलान किया और राज्यपाल से मिलने गए। 

उद्धव ठाकरे का इस तरह पारंपरिक मीडिया को नजरअंदाज कर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से अपने इस्तीफे का ऐलान करना देश के राजनीतिक दलों के तौर-तरीकों में एक बड़े बदलाव का संकेत तो है ही, साथ ही सत्ता प्रतिष्ठान और एक विशेष राजनीतिक दल के ढिंढोरची बन चुके मीडिया के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती और सबक है। गौरतलब है कि उद्धव ठाकरे ने अपनी पार्टी के विधायकों की बगावत के बाद भी फ़ेसबुक लाइव के जरिए ही देश और प्रदेश के लोगों को संबोधित किया था। उन्होंने बागी विधायकों से वापस लौटने की अपील भी फेसबुक लाइव के जरिए ही की थी। 

इस प्रकार पूरे घटनाक्रम के दौरान उद्धव ठाकरे द्वारा अपनी बात कहने के लिए अखबारों और टीवी चैनलों के बजाय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के इस्तेमाल करने का बड़ा मतलब है। यह संकेत है इस बात का कि राजनीति अब पारंपरिक मीडिया से शिफ्ट होकर सोशल और वैकल्पिक मीडिया की ओर जा सकती है। यानी अब दूसरे नेता भी अपनी बात कहने या जनता से संवाद करने के लिए पारंपरिक मीडिया के बजाय डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करना शुरू कर सकते हैं। 

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से राजनीति का फायदा यह है कि वहां नेता को अपनी पूरी बात कहने का मौका मिलेगा और टीवी चैनलों व अखबारों की तरह उन्हें कोई तोड़-मरोड़ कर पेश नहीं कर सकेगा। इस समय भारतीय जनता पार्टी के अलावा शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल होगा जिसकी खबरों या जिसके नेताओं के बयानों को पारंपरिक मीडिया बगैर छेड़छाड़ किए प्रस्तुत करता हो। हालांकि यह काम भाजपा का आईटी सेल बहुत पहले से करता आ रहा है, जिस पर हर महीने करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। 

टीवी चैनलों ने तो विपक्षी दलों और उनके नेताओं की छवि खराब करने के मकसद से उनके बयानों को तोड़ने-मरोड़ने और उन्हें संदर्भ से काट कर पेश करने के मामले में बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए भाजपा के आईटी सेल को भी पीछे छोड़ दिया है। हाल ही में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र वायनाड में स्थित अपने दफ्तर में तोड़फोड़ करने वाले युवकों को माफ करने की उदारता दिखाते हुए कहा कि वे बच्चे हैं, इसलिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होना चाहिए। लेकिन ‘जी न्यूज’ ने राहुल गांधी के इस बयान को उदयपुर की घटना से जोड़ते हुए कहा कि राहुल गांधी आतंकवादियों की हिमायत कर रहे हैं और कन्हैया लाल के हत्यारों को माफ करने की बात कह रहे हैं।

आपराधिक रूप से तोड़-मरोड़ कर पेश किए गए राहुल के बयान को भाजपा के आईटी सेल ने हाथों हाथ लपका और कुछ ही मिनटों में वह सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म पर वायरल कर दिया गया। हालांकि कांग्रेस के मीडिया सेल की त्वरित कार्रवाई से यह झूठ ज्यादा देर तक नहीं टिक सका और चैनल को माफी मांगना पड़ी। इससे कुछ महीने पहले एक अन्य टीवी चैनल ‘टाइम्स नाऊ’ की एंकर नविका कुमार ने राहुल गांधी को ऑन एयर गाली बक दी थी, जिसके लिए बाद में उसने भी माफी मांगी। माफी मांगने के ये दो मामले अपवाद हैं, अन्यथा तो तमाम टीवी चैनल धड़ल्ले से झूठी खबरों के जरिए विपक्षी नेताओं को बदनाम करने का अभियान चलाए हुए हैं। यह अभियान सिर्फ विपक्षी दलों और उनके नेताओं के खिलाफ ही नहीं रहता बल्कि ये टीवी चैनल एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत फैलाने का काम भी नियमित रूप से करते हैं, जिसे इन चैनलों पर रोजाना शाम को होने वाली डिबेट में भी साफ तौर पर देखा जा सकता है। 

विपक्षी नेताओं की प्रेस कांफ्रेन्स में भी ज्यादातर टीवी चैनलों और अखबारों के संवाददाता भाजपा के प्रवक्ता की तरह पेश आते हुए अपने सवाल दागते हैं और उन सवालों के जवाबों को मनमाने तरीके से तोड़-मरोड़ कर अपने चैनल या अखबार में पेश करते हैं। यही रवैया टीवी चैनलों पर रोजाना शाम को होने वाली डिबेट में भी अपनाया जाता है। इसी वजह से कुछ राजनीतिक दलों ने अपने प्रवक्ताओं को इन चैनलों पर होने वाली डिबेट में भेजना ही बंद कर दिया है। टीवी चैनलों पर खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और नफरत फैलाने वाली डिबेट को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कड़ी टिप्पणी कर चुका है, लेकिन इन चैनलों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है। 

भारतीय मीडिया जिस तरह सरकार का आज्ञाकारी और ढिंढोरची बना हुआ है, उस पर पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी तीखा कटाक्ष किया था। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के मौके पर प्रेस कांफ्रेन्स के दौरान कहा था कि अमेरिकी मीडिया की तुलना में भारतीय मीडिया बहुत ज्यादा ‘अनुशासित’ है। प्रधानमंत्री मोदी से मुखातिब होकर की गई अमेरिकी राष्ट्रपति की इस टिप्पणी का सीधा मतलब था कि अमेरिकी मीडिया खूब सवाल पूछता है जो असहज करने वाले होते हैं, जबकि आपका मीडिया बेहद आज्ञाकारी और स्वामिभक्त है जो कभी ऐसे सवाल नहीं पूछता। लेकिन भारतीय मीडिया की बेशर्मी का आलम यह रहा कि उसने अमेरिकी राष्ट्रपति के कटाक्ष को भी अपनी तारीफ के तौर पर चहकते और कूल्हे मटकाते हुए पेश किया। उसके इस बर्ताव ने भी उसके पूरी तरह बदचलन होने की तस्दीक की थी।

दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति की इस टिप्पणी में मीडिया के साथ ही परोक्ष रूप से मोदी पर भी कटाक्ष था, जिनकी सरकार ने या तो मीडिया के मुंह में विज्ञापन ठूंस-ठूंस कर या डंडे के जोर पर उसे अपना पालतू बना रखा है- इतना पालतू कि वह प्रधानमंत्री से किसी भी मसले पर कभी कोई सवाल ही नहीं करता। मीडिया का जो छोटा सा हिस्सा सवाल पूछने का साहस रखता है, वह भी सवाल नहीं पूछ सकता, क्योंकि प्रधानमंत्री कभी मीडिया से मुखातिब होते ही नहीं हैं। खैर जो भी हो, बाइडेन के कटाक्ष का मर्म मोदी ने निश्चित ही समझा होगा, क्योंकि वे खुद भी कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया की इस चारित्रिक दुर्बलता को 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ही भांप चुके थे और यह भी समझ चुके थे कि इस मीडिया को कैसे नाथना है। उन्होंने उस समय विभिन्न टीवी चैनलों को दिए इंटरव्यू के दौरान ही नहीं बल्कि अपनी कई चुनावी रैलियों में भी मीडिया के प्रति आक्रामक रवैया अपनाते हुए उसे बिकाऊ, न्यूज ट्रेडर्स, दलाल आदि विशेषणों से नवाजा था। 

बहरहाल, उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के घटनाक्रम के दौरान अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके टीवी चैनलों और अखबारों को सधे हुए अंदाज में एक संदेश दिया है। अगर पारंपरिक मीडिया ने अपना चाल-चलन नहीं सुधारा और उद्धव ठाकरे की तरह अन्य विपक्षी दलों और उनके नेताओं ने भी अपनी बात कहने के लिए पूरी तरह सोशल और वैकल्पिक मीडिया को अपना लिया तो सरकार के पिछलग्गू टीवी चैनलों और अखबारों के लिए वजूद का संकट पैदा हो जाएगा। वैसे भी वैश्विक स्तर पर तो भारतीय मीडिया की साख पूरी तरह चौपट हो ही चुकी है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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