उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के मंगटा गांव में हाल ही में अंबेडकर-बुद्ध (भीम कथा) कथा का आयोजन किया गया। इस कथा में अंबेडकर की बाइस शिक्षाओं, उनके जन्म, जीवन चरित्र समेत गौतम बुद्ध के जन्म, जीवन-चरित्र आदि को ठीक उसी तरह से एक आलौकिक अवतारी पुरुष के रूप में चित्रित किया गया जैसा कि हिंदू धर्म के अवतारवादी आख्यानों में देवताओं के अवतरण के बारे में लिखा मिलता है।
गांव के दलितों द्वारा यह पूरा आयोजन ठीक उसी पैटर्न पर आयोजित किया गया था जिस तरह से हिंदू धर्म में श्रीमद् भागवत कथा का साप्ताहिक आयोजन किया जाता है। पूरा आयोजन भी सात दिनों का था और कार्यक्रम के बाद सामूहिक भोज की भी व्यवस्था थी। गांव की दलित बस्ती ने सामूहिक रूप से इसका आयोजन किया था। इस पर गांव के ही ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने आपत्ति जताई। आयोजन के पूरा होने के बाद इन दलितों के खिलाफ स्थानीय सवर्णों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई, लेकिन पुलिस ने ठोस कानूनी कार्रवाई तक नहीं की।
वैसे भी, यहां पर इस आयोजन के खिलाफ हुई हिंसा हमारे विमर्श का विषय नहीं है। यह योगी सरकार, पुलिस और कानून का विषय है। प्रत्येक समाज को अपनी मान्यताओं के मुताबिक कार्यक्रम आयोजन का पूरा अधिकार है, लेकिन, इस आयोजन की प्रकृति को लेकर गंभीर बहस की आवश्यकता है। सवाल यह है कि क्या दलितों के बीच का यह आयोजन किसी ब्राह्मणवादी समाज के धार्मिक आयोजन के समानान्तर एक दलित ब्राह्मणवाद की स्थापना का प्रयास है? चूंकि आयोजन का पूरा कलेवर ब्राह्मणवादी था, इसलिए इस पर बात होना बहुत जरूरी है।
क्या यह माना जाए कि जिस तरह से हिंदुत्व के लिए हिंदू धर्म की कई मान्यताएं उसकी वैधता की बहस का आधारभूत ‘मैटेरियल’ देती हैं, ठीक उसी तरह से यह आयोजन भी किसी नए किस्म के दलितवाद के उत्थान का एक संकेत है? क्या यह आयोजन, जब पूरी तरह से ब्राह्मणवाद के कलेवर में रंगा गया हो, ब्राह्मणवादी कर्मकांड के विरोधी और संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर और ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी-विद्रोही गौतम बुद्ध जैसी शख्सियत को भागवत कथा आयोजन जैसे ‘गेटअप’ में रंगने की कोशिश करना किसी नई राजनीतिक संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास है?
आखिर बुद्ध और अंबेडकर को ब्राम्हणवादी मान्यताओं जैसे ‘गेटअप’ में रंगने की कोशिश से हिंदुत्व की राजनीति को कितना फायदा होगा? इस तरह के आयोजन से किस राजनीति को लाभ होगा? इस आयोजन के लिए एक ब्राह्मणवादी ‘गेटअप’ किस प्रेरणा से या फिर क्यों चुना गया और इसके पीछे कौन सी सोच काम कर रही थी?
गौरतलब है कि आज अंबेडकर और उनके धार्मिक आराध्य गौतम बुद्ध को पूजने और महान मानने, उसे प्रदर्शित करने की होड़ सत्ता और विपक्ष दोनों में है। इस होड़ के कई रंग हैं। भाजपा जहां इसे हिंदुत्व और राष्ट्र निर्माण का एक ‘माध्यम’ मानती है वहीं यह कांग्रेस और वामदल के लिए लोकतंत्र और जातिविहीन समतामूलक समाज का एक वैचारिक दर्शन है। सपा-बसपा के लिए अंबेडकर और उनका दर्शन जातीय अस्मिता के नाम पर जातिगत वोट को इकट्ठा करके ‘हिन्दुत्व और कारपोरेट की सेवा का एक ‘टूल’ है। यह बात अलग है कि उनकी शिक्षाओं पर बात करने या उन्हें पढ़ने का साहस बहुत कम दलों में है।
दरअसल जाति अस्मिता केंद्रित पहिचान की राजनीति के इस दौर में आज अंबेडकर को अपना लेने की होड़ इसलिए मची हुई है, क्योंकि सबको दलित समुदाय के बाइस फीसद वोट को अपने साथ करने की ‘जल्दी’ है, लेकिन क्या हम अंबेडकर और बुद्ध को पूजकर, उन्हें मूर्तियों और प्रतीकों में कैद करके भारतीय समाज के बुनियादी सवालों जैसे जातिगत उत्पीड़न और गैरबराबरी से लड़ सकते हैं? क्या हिंदूधर्म के पूरे ‘गेटअप’ में सात दिन की इस कथा का आयोजन करके हम राजनीति के मूलभूत सवालों को हल कर पाएंगे या फिर इस तरह के आयोजन से ‘फासीवाद’ की गोद में बैठने वाला एक नया अस्मितावादी ‘चेहरा’ पैदा करेंगे?
इस सवाल पर बात करने से पहले उत्तर भारत में अंबेडकर के आगमन और उनके दलित नेता के बतौर स्थापित होने से लेकर उनके वारिस होने का दावा करने वाले लोगों की फासीवाद के साथ खड़े होने की राजनीतिक यात्रा पर एक गंभीर नजर डालना जरूरी है। दरअसल उत्तर भारत या हिंदी भाषी क्षेत्र में अंबेडकर और उनकी शिक्षाओं को सामने लाने का श्रेय उदारवाद और अंग्रेजी के प्रसार वाले दौर को जाता है। अंबेडकर की रचनाओं से गंभीरता से यह समाज तब तक परिचित नहीं हुआ जब तक कि इस क्षेत्र में अंग्रेजी का प्रसार नहीं बढ़ा और ‘जाति’ को सियासत में स्थापित करने की राजनीति नहीं आई।
जब दलितों ने राजनीति में अपनी जाति के आधार पर संगठित होना शुरू किया तब इस समाज से नायक खोजे गए, लेकिन अपने स्थापना काल से ही इस किस्म की राजनीति के ‘मदारियों’ ने अंबेडकर को एक दलित आइकॉन से ज्यादा स्थापित नहीं होने दिया। इस राजनीति ने अपने लाभ के लिए समय के मुताबिक अंबेडकर की अलग-अलग व्याख्याएं कीं। उनके अध्ययन से इतर उत्तर भारत में उनके चेहरे पर राजनीति की गई और उसका बड़ा फायदा ‘हिन्दुत्व’ की राजनीति को मिला। मायावती और कांशीराम की पूरी राजनीति यही थी।
बसपा की पूरी राजनीति ने अंबेडकर को दलितों का मसीहा भले बताया, लेकिन किसी को भी उनके लेखन के बारे में अध्ययन नहीं करने दिया। अंबेडकर को मूर्तियों में बंद करने का दौर उत्तर भारत में बसपा ले आई। आज जब बसपा ‘हिन्दुत्व’ के एजेंडे के लिए कमजोर और अप्रासंगिक हो गई है तब दलितों के इस राजनीतिक शून्य को भरने के लिए ‘हिन्दुत्व’ ने फिर से नए प्रयोग शुरू किए हैं।
एक बात और है कि जब से वामपंथ ने अंबेडकर को देश में लोकतंत्र और जाति उन्मूलक हीरो के रूप में स्पेस देना शुरू किया है तब से संघ भी उन्हें अवतारी पुरुष बताने और देवत्व के नदजीक ले जाने पर आमादा है। संघ उन्हें एक ऐसे महामानव में तब्दील करना चाहता है जो बहस से परे हो जाए। जब हम अंबेडकर को केंद्र में रखकर ऐसे किसी आयोजन को होते हुए देखते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने मूल में संघ और भाजपा अंबेडकर और उनके अनुयायियों पर कब्जा करके अपने ‘एजेंडे’ पर दलितों को गोलबंद करना चाहते हैं। इसीलिए अंबेडकर को अवतारी पुरुष के रूप में चित्रित करने का अभियान चलाया जा रहा है। ऐसे आयोजन इसी अभियान का हिस्सा हैं।
इन आयोजनों के पीछे हिंदू धर्म का लचीलापन संघ के लिए बहुत उपयोगी होता है। जब बुद्धवाद से हिंदू धर्म की क्रूर प्रतिस्थापनाओं को खतरा महसूस हुआ तब ‘बुद्ध’ भी हिंदू धर्म में एक अवतार बन गए। अब अंबेडकर को भी अवतारी पुरुष बनाने का कुत्सित खेल चल रहा है। यही वजह है कि श्रीमद भागवत कथा के ‘गेटअप’ में अंबेडकर के चेहरे को समाज में स्थापित किया जा रहा है ताकि दलितों की तरफ से ‘हिंदू राष्ट्र’ को मिलने वाली किसी चुनौती को खत्म किया जा सके। इस आयोजन के पीछे संघ का यही प्रायोजित ‘खेल’ है, जिसे बहुत चालाकी से दलितों के सौजन्य से ही अंजाम दिया जा रहा है।
हरे राम मिश्र