पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में शानदार वापसी के फलस्वरूप भारतीय जनता पार्टी के बल्लियों उछलते हौसले की बाबत ढेर सारी बातें कही जा चुकी हैं। इसलिए कुछ बातें समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी समेत उत्तर प्रदेश की छोटी-बड़ी उन पार्टियों के बारे में, करारी हार के बाद एक तरह से जिनका कलेजा ही बैठा जा रहा है।
आइये, अपनी बात सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव द्वारा लिखी गई इस बात से शुरू करते हैं: सिर्फ प्रतिस्पर्धी दल हारे हों, ऐसी बात नहीं।…दरअसल, हम, जो भारत नाम के गणराज्य पर विश्वास रखते हैं-हम, जो भारत के संविधान की प्रस्तावना की कसम उठाने वाले लोग हैं यानी वे लोग जो बापू, बाबा साहब और भगत सिंह की राह के मुसाफिर हैं-हम सबका इन चुनावों में कुछ न कुछ दांव पर लगा था और वह दांव हम हार गये हैं।
अपनी इस बात का विस्तार करते हुए यादव ने लिखा है: हम सिर्फ चुनाव हारे हों, ऐसी बात भी नहीं। दरअसल, हम चुनाव से कुछ ज्यादा हार चुके हैं।…हमारे सामने कहीं ज्यादा बड़ी, गहरी और दमदार चुनौती है। हमारा सामना एक दबंग और दुर्निवार ताकत से है। भारतीय जनता पार्टी की चुनावी दबंगई आला दर्जे की संवाद-कुशलता, सांगठनिक कार्य, मीडिया पर कब्जे और धन-बल के सहारे कायम हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निजी करिश्माई आभा इस दबंगई को जैसे अजेय बनाती है।…राजसत्ता के अप्रत्याशित दुरुपयोग और गली-मुहल्लों में हुंकार भरने वाले अजब-गजब नामों वाले शरारती दस्तों के सहारे सभी संस्थाओं को रेंगने के लिए मजबूर कर दिया गया और विरोध की तमाम आवाजों पर ताला जड़ दिया गया है।
आगे वे इससे भी बड़ी बात का जिक्र करते हैं: विचारधारा और संस्कृति के धरातल पर ऐसी दंबगई को लेकर एक स्वीकार-भाव है। भारतीय जनता पार्टी ने भारत की राजनीति के मुख्य सांस्कृतिक संसाधनों जैसे, राष्ट्रवाद, हिन्दू-धर्म और हमारी सांस्कृतिक विरासत को जैसे अपनी मुट्ठी में कर लिया है।
ऐसी बात कहने वाले योगेन्द्र यादव अकेले विश्लेषक नहीं हैं। एक अन्य विश्लेषक अपूर्वानन्द इस हार को एक बड़ी आशंका के सच्चाई में बदल जाने के रूप में देखते हैं। उन्हीं के शब्दों में लिखें तो: आशंका सच साबित हुई। आशा आकाशकुसुम बनकर रह गई। लेकिन जो एक के लिए आशंका है, वह दूसरे के लिए आशा है।…आशंका और आशा के दो समुदाय इस देश में बन चुके हैं, इसलिए इस जनादेश के एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत दो अर्थ निकाले जा रहे हैं। यह बात जनतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है। आम तौर पर जनादेश या बहुमत में समाज के सभी तबकों की आशा शामिल रहती है।….ऐसा हो कि एक तबके को वह अपने खिलाफ लगने लगे, बल्कि उसे यह बार-बार बतलाया जाए तो चुनाव भले जनतांत्रिक लगे, उसका आशय उसके ठीक उलट हो जाता है। जनादेश जब इस किस्म का हो कि मतदाताओं का एक तबका उसमें खुद को किसी तरह शामिल न कर पाए, तो उसके मायने यही होंगे कि जनता खंडित हो चुकी है।…यह जनतंत्र और देश के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं है।
निस्संदेह, जनता के खंडित होने के ही जब सपा, रालोद, कांग्रेस और बसपा जैसी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को भूलुंठित करके हासिल जनादेश को सिर पर धारण किये भाजपा मस्ती में झूम रही है, कई तबके खुद को इन भूलुंठित दलों से भी ज्यादा हारा हुआ महसूस कर रहे हैं। इस कारण कुछ ज्यादा ही कि जो जीते हैं, उनके गुरूर की सीमा यह जताने तक फैल गई है कि जनता ने उनकी सरकारों के कोरोना कुप्रबंधन को ही नहीं, लखीमपुर खीरी में मंत्री पुत्र द्वारा किसानों को कुचलने, अनेक अवसरों पर नागरिक अधिकारों के हनन, परीक्षाओं में धांधलियों और छात्रों, महिलाओं, दलितों व अल्पसंख्यकों पर किये गये अकल्पनीय अत्याचारों पर भी मुहर लगा दी है। साथ ही, अपनी सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा की सारी जिम्मेदारियों से बरी कर दिया है।
भले ही नौकरियां मांगने पर पुलिस की लाठियां खाने को मजबूर छात्रों व सालों-साल वैकेंसियों के इंतजार में बूढ़े होते जा रहे बेरोजगार युवाओं को लग रहा है कि वे अपना भविष्य हार बैठे हैं, तो खेत व फसलें बेचकर या इधर-उधर से रुपये जुटाकर उन्हें महंगी शिक्षा दिलाने वाली माताओं व पिताओं को लगता है कि सारी उम्मीदें गंवा बैठे हैं! बढ़ती महंगाई के कई-कई पाटों के बीच पिसते और आवारा पशुओं की बाढ़ व फसलों की सही कीमत के अभाव जैसी दुश्वारियां झेलते गरीबों व किसानों की हालत भी, यहां तक कि उन गृहिणियों की भी, जिनका बढ़ा हुआ मतदान भाजपा की जीत का वायस बताया जा रहा है, शिकस्त खाई हुई किश्ती जैसी ही है। सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन की आस हार गये हैं तो अनेक हैरान, परेशान व पीड़ित अपना यह विश्वास कि प्रदेश की समग्र जनता जनादेश देगी तो उनके हितों का भी खयाल रखेगी।
कह सकते हैं, जरूर रखती-बशर्तें उसे जनता रहने दिया गया होता और परपीड़ा से आनंदित होने वाली प्रजा में बदलकर उसके नागरिकबोध को जाति व धर्म के नशों के हवाले न कर दिया गया होता। तब वह आदर्शों के बजाय चालाकियों से चुनाव जीतने की पार्टियों व नेताओं की चालाकी को ठीक से समझकर उसके पार जा पाती। लेकिन अभी तो दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो उसकी बेबसी ऐसी है कि ‘जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं’ वाली अपनी नियति ही नहीं बदल पा रही।
जैसा कि अपूर्वानन्द कह रहे हैं, नेताओं और पार्टियों ने इस स्थिति को सबसे सुभीते की मानकर उसे इस तरह खंडित कर डाला है कि उसके शायद ही कोई दो तबके ऐसे रह गये हों जो परस्पर अविश्वासों और भयों के फंदे में न फंसे हों, भले ही उनके अविश्वासों व भयों का कोई आधार न हो। ऐसे में किसी एक तबके की आशा दूसरे की आशा और एक की आशंका दूसरे की आशंका कैसे हो सकती है? और नहीं हो सकती तो उनके बीच चुनाव से निकला जनादेश सच्चा जनादेश कैसे हो सकता है? अकारण नहीं कि अपूर्वानन्द यह भी पूछते हैं कि इस चुनाव परिणाम में लोकतंत्र कहां है?
उनके सवाल का एक ही जवाब हो सकता है: न सिर्फ विधानसभा चुनाव वाले राज्यों बल्कि समूचे देश में उसे आभासी बना दिया गया है। लेकिन आभासी मात्र रह जाने के बावजूद उसकी यह खूबसूरती अभी बाकी है कि चुनाव से जैसा भी जनादेश सामने आये, सबको सिर-माथे रखना और स्वीकारना पड़ता है।
अलबत्ता, उसे स्वीकारने का अर्थ यह नहीं होता कि उसके संकेतों, संदेशों व सबकों को ठीक से न पढ़ा जाये या उसे बदलवाने की कोशिशें न शुरू की जायें। जनता के बीच जाकर ऐसी कोशिशें आज और अभी से शुरू की जा सकती हैं। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी वगैरह शिकस्त खाई पार्टियां जब चाहें ऐसी कोशिशों का आगाज कर सकती हैं। हां, इसके लिए उन्हें उन तबकों के दुःखों को व तकलीफों को सम्बोधित करना होगा जो उनकी हार के साथ खुद को हारा हुआ और नाउम्मीद महसूस कर रहे हैं। जो उनके साथ दुःखी हैं, वे उनकी उम्मीद व शक्ति का स्रोत भी बन ही सकते हैं बशर्ते वे बनाना चाहें।
(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)
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