कल मैंने मोदी के एकाएक चीन के मामले में यू-टर्न पर लिखा था। भारत और चीन दोनों ने बॉर्डर के मुद्दे पर कुछ समझौते पर पहुंचने की पुष्टि की थी। दोनों पक्षों द्वारा जारी किए गए बयानों में बहुत अंतर था। चीनी बयान में बहुत अस्पष्टता थी और वह केवल यही कहता है कि कुछ प्रस्ताव पारित किए गये हैं जबकि भारतीय बयान उससे और आगे जाता है और वास्तव में इस बात का दावा करता है कि भारत सीमा इलाके में पेट्रोलिंग के मामले में 2020 के पहले की स्थिति में जाएगा। जैसा कि उस समय हुआ करता था।
कम से कम भारतीय दावे पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि चीन की इच्छा भारत से छीने गए हिस्से को लौटाने की नहीं है। भारत चीन से कोई फायदा नहीं उठा सकता है। सीमा पर तनाव खत्म करने की मंशा से और ज्यादा मुफीद लगने वाली बात यह है कि भारत ने मौजूदा जमीनी स्थिति को ही नई यथास्थिति के तौर पर स्वीकार कर लिया है। चूंकि वहां किसी पत्रकार को जाने की इजाजत नहीं है इसलिए कोई उसकी जांच भी नहीं कर सकता है।
यह रूस के कजान में ब्रिक्स की बैठक से ठीक पहले घटित हुआ जहां मोदी जी जिनपिंग और पुतिन के साथ बहुत चार्मिंग तरीके से मिल-जुल रहे थे। कुछ दिनों पहले विदेश मंत्री जयशंकर पाकिस्तान गए थे जहां उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी कहा कि भारत और पाकिस्तान को इतिहास को भूल जाना चाहिए और उन्हें अब स्थाई शांति के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए।
यह यू-टर्न क्यों? मेरा मानना है कि ऐसा अमेरिका और क्रमश: कनाडा में कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या और अमेरिकी नागरिक गुरपतवंत सिंह पन्नू के हत्या के प्रयास में जारी जांच के चलते हुआ। इसने सार्वजनिक तरीके से इस बात की आशंका जाहिर कर दी है कि दोनों कहानियां आखिर में गृहमंत्री अमित शाह को ही मास्टरमाइंड के तौर पर स्थापित करने की दिशा में जाती हैं।
अगर अमेरिका को इस बात का यकीन हो जाता है कि यही मामला है तो वह एफबीआई से पूछताछ के लिए शाह को भारत से मांग भी सकता है। निश्चित तौर पर मोदी इस तरह के किसी आवेदन को खारिज कर देंगे क्योंकि शाह बहुत कुछ जानते हैं। अगर मोदी शाह को बस से बाहर फेंकते हैं तो शाह भी मोदी को भारत की कई घरेलू जांचों में शानदार खुलासों के जरिये अपने साथ नीचे खींच लेंगे।
अगर मोदी इंकार करते हैं तो पूरा पश्चिम भारत पर आर्थिक पाबंदियां लगाना शुरू कर देगा। यह भारतीय व्यवसाय को चोट पहुंचाने के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद नुकसानदायक साबित होगा। ऐसे मौके पर मोदी को किन्हीं दूसरी जगहों पर मित्र की जरूरत है। इसी का नतीजा है कि वह चीन, पाकिस्तान और रूस के साथ रिश्तों को फिर से सुधार रहे हैं।
वाशिंगटन कजान में मोदी की देह भाषा पर बेहद नजदीकी से निगाह रखे हुए था। उसको उम्मीद है कि क्वैड को इस्तेमाल करते हुए भारत चीन विरोधी और इंडो-पैसिफिक रणनीति का मुख्य हिस्सा होगा। लेकिन अब लग रहा है कि भारत उससे फिसल रहा है।
मैंने सुझाव दिया था कि भारत चीन और रूस से और ज्यादा नजदीकी संबंध बनाएगा और इस तरह से आने वाले दिनों में एससीओ, ब्रिक्स और बीआरआई का मुख्य हिस्सा बनेगा।
उसके बाद हमने कल इस पर संध्या श्रीनिवासन और अनिर्बन मित्रा से विचार-विमर्श किया और फिर हम एक दूसरे नतीजे पर पहुंचे।
भारतीय का व्यावसायिक रिश्ता अमेरिका और यूरोप के साथ बहुत नजदीकी का है। वह पश्चिम की आर्थिक पाबंदी को झेल नहीं सकेगा। सोचिए रूस से हासिल किए गए कच्चे तेल को पेट्रोल और डीजल के तौर पर अंबानी यूरोप को निर्यात कर रहे हैं। या फिर अडानी क्वींसलैंड में कोयले का खनन कर रहे हैं। या फिर आर्सेलर मित्तल का स्टील आपरेशन जारी है, या टाटा कोरस स्टील आपरेशन हो या फिर यूरोप में जगुआर लैंडरोवर सबके हित पश्चिम से ही जुड़े हैं।
इसलिए अगर अमेरिका भारत पर आर्थिक पाबंदी लगाता है तो ए2 यानि (अंबानी-अडानी) , टाटा, महिंद्रा और बाकी भारत के कारपोरेट सरकार को गिरा देंगे और फिर कांग्रेस को सत्ता में ले आएंगे और एकाएक मोदी और शाह दोनों से किनारा कर लेंगे। और फिर कांपते हाथों से दोनों को एफबीआई को सौंप देंगे।
मोदी एक भीषण चट्टान और ढेर सारे पत्थरी ढेरों के बीच घिर गए हैं। हम एक दिलचस्प दौर में पहुंच गए हैं। मेरा एक अच्छा मित्र जो अब उस सूची में नहीं है, एक बार बताया था कि जब राजनीति में चीजें असंभव दिखती हैं, जब लगता है कि एक नेता को हराया ही नहीं जा सकता है, एकाएक कुछ ऐसा होता है जो उसे खत्म कर देता है।
इसी तरह की चीज क्या पता भारत में हो रहा हो। ऐसा लगता है कि गृहमंत्री ने कुछ ऐसा खा लिया है जिसे वह पचा नहीं सकते। उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्योंकि ज्यादातर भारतीयों की तरह वह भी यह नहीं समझे थे कि अमेरिका में कुछ लाल रेखाएं हैं। यहां तक कि आज भी कुछ लोग मुझे बता रहे हैं कि यह पूरा मामला हवा की तरह उड़ जाएगा। भारत अमेरिका से ढेर सारे हथियार खरीदने के लिए तैयार हो जाएगा और फिर अमेरिका पन्नू के बारे में भूल जाएगा।
वो इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि अमेरिकियों के लिए पन्नू का मामला कितना गंभीर है। अमेरिकी सैन्य योजनाकर्ता रात में निश्चिंत होकर इसलिए सोते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि उनकी दो तरफ से दो बड़े महासागरों एटलांटिक और पैसिफिक के जरिये रक्षा हो रही है। उत्तरी दिशा में उनके पास मित्रवत कनाडा है जो तकरीबन अमेरिका का 51वां स्टेट है। दक्षिण में उनके पास मैक्सिको है जिसको उन्होंने मैक्सिकन-अमेरिकी युद्ध के दौरान इतना पीटा है कि वो अमेरिका का फिर से विरोध करने की हिम्मत ही नहीं कर सकेगा। कैरेबियाई और लैटिन अमेरिकी देशों के साथ वो बेहद अपमानजनक व्यवहार करते हैं। उनका कोई भी नेता अगर अमेरिका के खिलाफ जाता है तो उसको प्रतिस्थापित कर देते हैं।
यह वही दिमाग की शांति है जिसे भारत ने पन्नू की हत्या के प्रयास और निज्जर की सफलतापूर्वक हत्या के जरिये भंग कर दिया है। जब क्यूबा ने अपनी धरती पर रूसी नाभिकीय हथियारों का स्वागत करके उसकी दिमागी शांति को खतरे में डाल दिया था तो उस समय तब के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी इस मसले पर रूस के साथ नाभिकीय युद्ध में जाने के लिए तैयार हो गए थे। और वास्तव में 9/11 को न्यूयार्क पर हमला जिसने 20 सालों के आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का रास्ता साफ किया उसी का हिस्सा था। जब अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला सामने आता है तो अमेरिका कैदियों को नहीं लेता है। और अमेरिकी धरती पर अमेरिकी की हत्या लाल रेखाओं से भी ज्यादा लाल है।
इसलिए शाह, दोभाल एंड कंपनी ने जो करने का प्रयास किया है वह कोई छोटा मामला नहीं है। अमेरिका के लिए यह अस्तित्व का मुद्दा है। अगर वो भारत को इसके लिए माफ कर देते हैं तो कल कोई भी टाम, डिक और हैरी अमेरिकी नागरिकों और संपत्तियों पर अमेरिका में हमला करना शुरू कर देगा। अमेरिका भारत को एक मजबूत संदेश देना चाहेगा। हम इसका ख्याल नहीं करते हैं कि वह गृहमंत्री है या फिर आप के देश का प्रधानमंत्री: अगर उसने मेरे साथ कुछ गलत किया है तो उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। अमेरिका निश्चित तौर पर पूरी दुनिया पर नजर रखने वालों को भी यह संदेश देना चाहेगा कि किसी को भी ऐसा करने की इजाजत नहीं है।
वरना उनकी ताकत धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। बहुत सारे लोग गलती से निज्जर की हत्या की तुलना अमेरिका द्वारा की गयी बिन लादेन की हत्या से कर रहे हैं। वह एक गलत तुलना है। क्योंकि पाकिस्तान यह दावा नहीं कर रहा था कि लादेन पाकिस्तानी नागरिक था। वह सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार कर रहा था कि बिन लादेन आतंकवादी था। वास्तव में कोई उससे इंकार भी नहीं कर सकता था। इसके साथ ही बिन लादेन ने खुद ही इस बात की घोषणा की थी कि 9/11 के पीछे वही था। यहां तक कि पाकिस्तान ने दावा किया था कि उसे उसके ठिकाने की कोई जानकारी नहीं थी। यह पन्नू और निज्जर से बिल्कुल अलग है।
दोनों अपने-अपने देशों के नागरिक हैं और उनका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है। वो अपनी सरकारों से छुप नहीं रहे थे। दूसरी तुलना सऊदी राजकुमार एमबीएस द्वारा पत्रकार जमाल खाशोगी की तुर्की में की गयी हत्या से की जा रही है। पहली चीज जो याद करने की है वह यह कि खाशोगी अमेरिका में केवल ग्रीन कार्ड होल्डर थे। वह अभी भी सऊदी नागरिक थे। उनकी हत्या सऊदी दूतावास में हुई थी जो तकनीकी तौर पर संप्रभु सऊदी क्षेत्र का हिस्सा है। इसलिए सऊदी लोगों ने एक सऊदी की सऊदी धरती पर हत्या की।
अगले कुछ महीने बेहद दिलचस्प होने जा रहे हैं। अगर हमारे व्यवसायी अमेरिका के साथ अपने आर्थिक रिश्तों को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो हम एक साल के भीतर सरकार में बदलाव देख सकते हैं। भारत सरकार इस बात को समझ सकेगी कि अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट कितना कड़ा हो सकता है। निश्चित तौर पर इस बात की कोई सीमा नहीं है कि अमेरिकी पावर प्रोजेक्शन को महफूज रखने के लिए वो किस हद तक जा सकते हैं।
(शेषाद्रि कुमार का यह लेख उनके ब्लॉग पर अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है।)
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