Friday, March 29, 2024

मेहनतकशों के शोषण-उत्पीड़न की वैदिक-सनातन परंपरा

    ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत:।

    उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्‍भयां शूद्रो अजायत॥

(पुरुष सूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष की चर्चा हुई और जिसमें कहा गया है कि उस विराट पुरूष (ब्रह्म ने) मुख से ब्राह्मण, बाहुं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र को पैदा किया।)

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः ।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥

(मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31)

ऋग्वेद यह पुरुष सूक्त भारत के लिखित इतिहास में पहली बार यह घोषणा करता है कि बिना किसी प्रकार के शारीरिक श्रम के जीने वाले परजीवी ब्राह्मणों को स्वयं विराट पुरूष (ब्रह्मा) ने सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है और अपने शारीरिक श्रम से सब कुछ सृजित करने वाले शूद्रों को ब्रह्मा ने अपने पैरों से पैदा करके सबसे निम्न स्थान दिया है।

जब स्वयं ब्रह्मा ही दूसरे के श्रम पर जीने वाले परजीवियों- ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों-द्विजों को श्रेष्ठ और श्रम करने वाले शूद्रों-महिलाओं को निकृष्ट घोषित कर दिया, तो उसके बाद क्या बचता है।

ब्रह्मा के इस व्यवस्था को राम और कृष्ण जैसे ईश्वर के अवतारों ने भी पूरी तरह जायज ठहराया।

सारे हिंदू धर्मग्रंथों और महाकाव्यों ने इसकी महिमा गाई। इन महाकाव्यों में रामायण और महाभारत भी शामिल हैं।

बाद में शूद्रों को दो श्रेणियां बना दी गईं, शूद्र ( किसान एवं सेवा प्रदान करने वाली जातियां) और अतिशूद्र (दलित) । सबसे जरूरी और सबसे अधिक श्रम करने वालों को अतिशूद्र (आज के दलित) बना दिया गया, लेकिन ये सभी मेहनतकश ही थे।

सबसे जरूरी और कठिन श्रम करने वालों से इतनी घृणा की गई कि उन्हें अछूत तक ठहरा दिया गया और उनकी परछाई भी अपवित्र हो गई।

याद रहे महिलाओं को भी शूद्रों का ही दर्जा दिया गया।

द्विज मर्दों की सेवा करना शूद्रों-अतिशूद्रों एवं महिलाओं का सबसे पुनीत कर्तव्य घोषित कर दिया गया।

सबसे बड़े परजीवी ब्राह्मणों को धरती देवता-भूदेवता घोषित कर दिया गया और इनकी सेवा करना सभी वर्णों का पुनीत कर्तव्य घोषित कर दिया गया।

(ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है। इसके अतिरिक्त वह शूद्र जो कुछ करता है, उसका कर्म निष्फल होता है।10/123-124, मनुस्मृति)

शूद्रों, अतिशूद्रों एवं महिलाओं का सबसे बड़ा अपराध क्या था? यही न कि ये सब किसी न किसी तरह का शारीरिक श्रम करते थे।

जिसे वर्ण-जाति व्यवस्था को पोषित करने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति की सबसे पहली बुनियादी विशेषता है- श्रम, विशेषकर शारीरिक श्रम करने वालों से घृणा। कौन कितना और किस प्रकार का शारीरिक श्रम करता है, उसी से तय हो जायेगा कि वह कितना नीच है। इस विशिष्टता का दूसरा पहलू यह है- जो व्यक्ति शारीरिक श्रम से जितना ही दूर है अर्थात् जितना बड़ा परजीवी है, वह उतना ही महान एवं श्रेष्ठ है। ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ एवं महान है क्योंकि उसके जिम्मे किसी प्रकार का शारीरिक श्रम नहीं था। मेहतर समुदाय सबसे घृणित क्योंकि वह विष्ठा एवं गन्दगी साफ करता है। विष्ठा एवं गन्दगी करने वाले महान तथा साफ करने वाले नीच। ‘दलित’ नीच क्योंकि वह हरवाही करता था अर्थात् उत्पादन-सम्बन्धी सारे श्रम वही करता था। उत्पादक नीच और बैठकर खाने वाले द्विज परजीवी, महान। कपड़ा गंदा करने वाले, महान तथा उसे साफ कर देने वाले धोबी, नीच। बाल तथा नाखून काटकर इंसान को इंसानी रूप देने वाला नाऊ नीच, वे लोग ऊँच। यही बात सभी श्रम-आधारित पेशों पर लागू होती रही है।

घर में स्त्री पुरुष से नीच, क्योंकि वह बच्चे से बूढ़ों तक की गुह-गन्दगी साफ करती है। धोबी का भी काम करती है, कपड़े धुलती है, घर की सफाई करती है, खाना बनाती है। जैविक उत्पादन(बच्चे जनती है) करती है, और ‘महान’ पुरुषों को अन्य सुख प्रदान करती है। इसलिए स्त्री, पुरुषों से नीच तथा उनके अधीन। शूद्र द्विजों से नीच तथा उनके अधीन।

इस शारीरिक श्रम के बदले में उन्हें दरिद्रता, अभाव, भूख का सामना करने के साथ ही  उन भयावह अपमानों का भी सामना करना पड़ा और पड़ रहा है, जिससे किसी की भी रूह कांप जाए।

श्रमिकों के साथ ब्राह्मणवादी व्यवस्था क्या व्यवहार करती रही है और अब भी करती है। इसके जीते-जागते सबूत गांव के दलित टोले रहे। अगर किसी ने यह जीवन देखा न हो, तो वह ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन और तुलसी राम की आत्मकथा मुर्दहिया पढ़ ले।

इसी के चलते गांवों को डॉ. आंबेडकर ने दलितों का बूचड़खाना कहा।

वर्ण-व्यवस्था-जाति व्यवस्था के सारे विधान के केंद्र में मेहनत करने वालों के श्रम की लूट ही थी। कर्मफल सिद्धांत और पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रचार करके इसकी स्वीकृति उन लोगों से भी करा ली गई, जो इसके शिकार थे।

हां यदि वे स्वीकृति नहीं देते या उसका उल्लंघन करते तो स्वयं ईश्वर, शंबूक की तरह उनका बध कर देते और गुरु द्रोणाचार्य उनका अंगूठा काट लेते।

वर्ण-जाति व्यवस्था श्रम की लूट का इतना कारगर उपाय थी कि चाहे हिंदू शासक रहे हों, मुस्लिम शासक रहे हों, या ब्रिटिश शासक रहे हों सबने देर-सबेर इसे अपना लिया। आजादी के बाद सत्ता में आए ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ ( डॉ. आंबेडकर-पेरियार) ने भी यही किया। 1990 के बाद तथाकथिक वैश्वीकरण ने भी यही किया।

आज श्रम की लूट की भारतीय ब्राह्मणवादी-सामंतवादी व्यवस्था एवं श्रम के विश्वव्यापी लूट की पूंजीवादी व्यवस्था का भारत में पूरी तरह गठजोड़ हो गया है। दोनों का पूरी तरह तालमेल हो गया। सच यह है कि दोनों को भारत में अलग-अलग करना भी मुश्किल है, दोनों इस तरह एक दूसरे में घुल-मिल गए हैं। भारतीय पूंजीवाद ने श्रम के शोषण की ब्राह्मणवादी परंपरा को पूरी तरह आत्मसात कर लिया है।

श्रम और श्रमिक से घृणा दोनों के बुनियादी लक्षण बन गए हैं। इसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति कोरोना-19 के इस दौर में हो रही है। जहां श्रमिक वर्ग ही सबसे अधिक भूख, उपेक्षा और अपमान का शिकार हो रहा है, जिसके दिल-दहला देने वाला चित्र रोज-बरोज समाने आ रहे हैं।

मेहनतकश जाति-वर्ग की मुक्ति की ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद के खात्मे के साथ ही हो सकती है।

भारतीय समाज के अब तक के सबसे गहन अध्येता डॉ. आंबेडकर ने यूं ही नहीं कहा था कि भारत के मेहनतकशों के दो दुश्मन हैं- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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