अदृश्य पानी, दिखता संकट

22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। ताजा पानी के महत्व को रेखांकित करने के लिए 1993 से यह आयोजन होता है। इस वर्ष के आयोजन का विषय भूजल है जो कम से कम भारत में पेयजल का प्रमुख स्रोत बन गया है। पेयजल ही क्यों, सिंचाई में भी बड़े पैमाने पर भूजल का उपयोग होता है। इससे भूजल का बड़ी मात्रा में बेतहाशा दोहन होने लगा है जो बहुत ही चिंताजनक है क्योंकि भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है जिसके कई नुकसानदेह प्रभाव दिखने लगे हैं।

आज भारत का हर व्यक्ति समझ रहा है कि हम गंभीर जल-संकट में हैं। हमारी ज्यादातर नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो गई हैं, या बांधों से जकड़ी हुई हैं और मर रही हैं। वर्षापात बहुत ही अनियमित हो गया है। भूजल तेजी से घट रहा है। झीलें सूख रही हैं या गंदे पानी से भर गई हैं। खासकर शहरी इलाकों की झीलों की स्थिति बहुत खराब है। देश में जलापूर्ति और मलजल निकासी की संरचनाएं काफी पुरानी हैं और उनमें अक्सर टूट-फूट होती रहती है, कई जगहों पर इस तरह की संरचनाएं मौजूद ही नहीं हैं। मोटे तौर पर कृषि,उद्योग व शहरी आबादी सभी भूजल पर निर्भर करती हैं।

भारत में सदा से भूजल का बड़े पैमाने पर उपयोग होता रहा है। हजारों वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में कलात्मक ढंग से बने कुएं प्रयोग में आते रहे हैं। इन कुओं का जुड़ाव भूगर्भ में जल-कुंडियों (एक्वाफर) से होता था, इसलिए वे भूजल भंडार का पुनर्भरण भी करते रहते थे। जल का उपयोग करने और कुओं को साफ रखने के सामाजिक नियम होते थे। पर सत्तर के दशक में नलकूपों के आगमन से भारत में भूजल के इस्तेमाल का तौर-तरीका पूरी तरह बदल गया। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि सिंचाई के काम में भूजल का इस्तेमाल बेतहाशा बढ़ गया। आंकड़ों के अनुसार, सिंचाई में भूजल का इस्तेमाल 1960 में महज एक प्रतिशत होता था, वह बढ़कर 2006-07 में 60 प्रतिशत हो गया।

विडंबना यह है कि भारत में सिंचाई के लिए नदियों पर बांध बनाने और नहरें बनाने पर सर्वाधिक निवेश होता है। भूगर्भ के पुनर्भरण की कोई परवाह नहीं की जाती। भूजल का पूरा कारोबार मोटे तौर पर निजी तौर पर किया जाता है। पेयजल के लिए पाइप लाइनें बिछाई जाती हैं। देश की अधिकतर कुएं व नलकूप निजी हैं, उनका संचालन निजी तौर पर किया जाता है। उद्योगों में भी भूजल का उपयोग होता है। भूजल के दोहन को लेकर कुछ नियम-कानून बने भी हैं तो अव्यवस्थित हैं और अप्रभावी साबित होते हैं। दुनिया के स्तर पर देखें तो भारत की स्थिति अनोखी है, भूजल का सर्वाधिक इस्तेमाल भारत में होता है। अनेक देशों में जमीन के स्वामित्व से उसके नीचे के भूजल के उपयोग को अलग रखा गया है। जल के उपयोग, मूल्य निर्धारण व अधिकार को लेकर कठोर नियम बने हुए हैं।

भारत में जल राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है। पर भूजल को लेकर केन्द्र व राज्य के अधिकार का प्रश्न हल नहीं हुआ है। इसके अनुमापन, दोहन व पुनर्भरण के बारे में सरकारी स्थिति स्पष्ट नहीं है। इसलिए किसान, उद्योग, सरकार व आमलोग अपनी मर्जी से जितना चाहें, गहरा नलकूप लगाते हैं, जितना चाहें, पानी निकालते हैं। नतीजा है कि भारत के साठ प्रतिशत जिलों में भूजल भंडार संकट में है, वह समाप्त होने वाला है या प्रदूषित हो गया है। अत्यधिक दोहन से धरती में मौजूद जहरीले रसायन-फ्लोराइड व आर्सेनिक भूजल में मिल गए हैं। हालांकि अधिकतर जगहों पर प्रामाणिक जांच कठिन है, इसलिए हम यह नहीं जानते कि जिस पानी का पीने में इस्तेमाल कर रहे हैं, वह प्रदूषित है या नहीं।

कोलकाता के यादवपुर विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार, समूची गंगा-मेघना-ब्रह्मपुत्र घाटी के 660 लाख निवासी फ्लुरोसिस के जोखिम में हैं, तो 50 करोड़ लोग आर्सेनिक जनित रोगों का शिकार होने का खतरा झेल रहे हैं। इसके साथ ही स्वच्छता के मानकों का पालन नहीं होने से विभिन्न रोगों का खतरा उठा रहे हैं क्योंकि खुले में शौच का आम चलन है और शौचालय बने भी हैं तो इस तरह से बने हैं कि भूजल के प्रदूषित होने का खतरा है। वाटरएड की एक रिपोर्ट बताती है कि इससे भारत के लगभग 3 करोड़ 70 लाख लोग सीधे तौर पर विभिन्न जलजनित रोगों के शिकार होते हैं।

अर्घ्यम ट्रस्ट की रोहिणी नीलकेणी इस स्थिति में कतिपय सार्थक पहलों की   अनिवार्यता बताती हैं जिन्हें सरकार, नागरिक संगठन व आम लोगों को तत्काल करना चाहिए। सबसे पहले तो इस मामले में व्यवस्थित जानकारियों का अभाव है। हमें जल-कुंडियों के बारे में आंकड़ा एकत्र करना और उसे सार्वजनिक करना चाहिए ताकि अदृश्य भूजल की स्थिति दिखती रहे। जिससे आम लोगों में इसका दुरुपयोग करने के खिलाफ जागरुकता आए। सरकार को जल-कुंडियों के मानचित्रण का कार्यक्रम चलाना चाहिए।

इसे तैयार करना लोगों से प्राप्त सूचनाओं और तकनीकी साधनों से तत्काल आरंभ करना चाहिए। साथ ही भूजल की मांग को व्यवस्थित करना चाहिए, जब चाहे, जहां चाहें नलकूप लगा देने की स्थिति को बदला जाना चाहिए। जल की कमी वाले इलाकों में अधिक जल की जरूरत वाली फसलों पर रोक लगा देना चाहिए। पंजाब में भूजल पर निर्भर धान की खेती या गुजरात के कच्छ में गन्ने की फसल में भूजल का इस्तेमाल पूरी तरह बंद हो। फसल-चक्र बदलने के साथ ही सतही जल के बेहतरीन इस्तेमाल का उपाय भी करना होगा। इस काम में नागरिक संगठनों की हिस्सेदारी जरूरी होगी।

जल के दोबारा इस्तेमाल व भूगर्भ भंडार के पुनर्भरण को भी बराबर महत्व देना होगा। भूगर्भ भंडार के पुनर्भरण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करना होगा। इसके लिए उपयुक्त संस्थान भी बनाना होगा जो भूगर्भ जल से समाज के संबंध को फिर से स्थापित करने में कार्य करेगा। कुछ संस्थान बने भी हैं जैसे केन्द्रीय भूजल बोर्ड उन्हें मजबूत बनाने की जरूरत है। इसके अंतर्गत शहरी क्षेत्र के भूजल की व्यवस्था को भी लाना होगा। भूजल के मामले में उपयुक्त कार्रवाई से ही समाज को बेहतर जल सुरक्षा हासिल हो सकती है।

(अमरनाथ वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल पटना में रहते हैं। नीलकर्णी की संस्था अर्घ्यम जल-प्रबंधन के क्षेत्र में काम करती हैं।)

अमरनाथ झा
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अमरनाथ झा