दिल्ली विधानसभा के चुनाव का घमासान जोरों पर है। चुनाव लोकतंत्र की साधारण प्रक्रिया है। साधारण लोगों की सामान्य बुद्धि तो यही कहती है कि लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है। साधारण लोगों की सामान्य बुद्धि सही कहती है, लेकिन किसी भी देश के जीवन में कभी-कभी ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं जब साधारण लोगों को अपनी असाधारण बुद्धि से हालात का जायजा लेना पड़ता है, अपने सामने उपस्थित असाधारण लड़ाई की चुनौतियों के मर्म को समझना होता है।
ऐसे हालात हों तो चुनावों को हार कर भी लोकतंत्र के प्रण और प्राण को बचाना और जिताना अधिक जरूरी हो जाता है। यही वह दौर होता है जब जीतनेवाला अक्सर हार जाता है और हारनेवाला जीत जाता है। जीवन में कभी-कभी ऐसे मकाम भी आते हैं जब जीत-हार की समझ और संवेदना का रुख अपने असाधारण रूप में प्रकट होता है।
यही कारण है कि वाटरलू इसलिए जाना जाता है कि वहां हुए युद्ध में नेपोलियन बोनापार्ट हार गया था, लेकिन कलिंग युद्ध को अशोक के जीतने के कारण याद किया जाता है! कहना न होगा कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया इस समय ऐसे ही असाधारण दौर में है।
पिछली दौर-तीन शताब्दियों से वैश्विक पटल पर अमेरिका की उपस्थिति और उसकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद अब यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अमेरिका के रुख से दुनिया की दिशा और दशा तय होती रही है।
इस बार डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका के महामहिम राष्ट्रपति बनते ही दुनिया के विभिन्न ‘संप्रभुता संपन्न राष्ट्रों’ की जमीन, कम-से-कम आर्थिक बुनियाद, हिलने लगी है। हालांकि नई परिस्थिति में चीन की उपस्थिति और गति से खुद अमेरिका के रुख पर भी निर्णायक असर पड़ रहा है।
बावजूद इन बातों के जिस प्रकार से अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और पेरिस समझौता जैसी संस्थाओं से हाथ खींच रहा है, ब्रिक्स (BRICS) के मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिशों में लगा हुआ है, टैरिफ-टैरिफ खेल रहा है उसके संकेत काफी खतरनाक हैं। ऐसे संकेत के वास्तविक अर्थ को गहराई से समझने के लिए भले ही विशेषज्ञता की जरूरत हो लेकिन लगातार कर्कश होती जा रही उस की धमक तो जल्दी ही बहरों के कान के परदों को थरथरा देगी। पलटते हुए भूमंडलीकरण की तरंगों का असर अभी देखा जाना बाकी है।
‘हम भारत के लोगों’ के बीच भी आज-कल लोकतंत्र, संविधान और विचारधारा की काफी चर्चा है। इस चर्चा को दिल्ली विधानसभा के चुनाव से सीमित मानना सही नहीं हो सकता है। इन मुद्दों को जनता के बीच ले जाने में राहुल गांधी कई महत्वपूर्ण भूमिका है।
जाहिर है कि इस प्रक्रिया में बार-बार डॉ. आंबेडकर, बाबासाहेब का उल्लेख होता है। बाबासाहेब की विचारधारा का भारत की राजनीति और निर्मिति पर बहुत गहरा और निर्णायक प्रभाव है। कहना न होगा कि आज के भारत, भारत के लोकतंत्र और संविधान को समझने के लिए हमें बार-बार डॉ. आंबेडकर के पास जाना होगा।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर अंबेडकर की समझ बिल्कुल साफ थी, उन के विचार से इस देश के दो दुश्मनों हैं, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद। इन दोनों दुश्मनों से कामगारों को निपटना होगा। ब्राह्मणवाद का अर्थ स्वतंत्रता, समता और भाईचारा की भावनाओं के निषेध है। बाबासाहेब यह मानते थे कि ब्राह्मणवाद ब्राह्मणों तक ही सीमित न होकर सभी जातियों में है। इसलिए वे हिंदू धर्म के आवरण में भेद-भावमूलक ब्राह्मणवाद की सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन के महत्व को रेखांकित और प्रेरित किया था।
पूंजीवाद के सामने तो हम पहले ही नतमस्तक हो चुके थे। अब ब्राह्मणवाद के सामने भी हमें नतमस्तक किया जा रहा है। आज की वैश्विक परिस्थिति में खासकर तब, जब सोवियत संघ है नहीं और दुनिया के नये भाग्य विधाता के रूप में डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के महामहिम राष्ट्रपति बन गये हैं।
डॉ. आंबेडकर ने जिन दो बड़े खतरों से खासकर सावधान किया था, देखते-ही-देखते उन खतरों ने हमारे प्यारे वतन और हमारे प्यारे हमवतनों को जैसे दबोच ही लिया है। इन खतरों से दबोचे जाने में हमारी अपनी घरेलू राजनीति की भूमिका भी कोई कम जवाबदेह नहीं है। इतनी बड़ी आबादीवाला यह देश बाहरी-भीतरी से खतरों से घिर गया है! भारत ही नहीं पूरी दुनिया की बहुत बड़ी आबादी गरीब और वंचित आबादी पूंजीवाद और भेद-भाव का ग्रास बनने के कगार पर पहुंच गया प्रतीत होता है।
बाहर-भीतर किसी की आंख में बीसवीं सदी का पानी नहीं है! क्या मनुष्य की सभ्यता किसी अवश्यंभावी विनाश के सामने खड़ी है। ऐसा लगता है कि लड़ाई राजनीति और विचारधारा से आगे बढ़कर सभ्यता को बचाने की लड़ाई है। तय करना ही होगा कि हम सभ्यता विघटन के कारोबार में लगे आततायी के साथ हैं, या उस से जूझती हुई मनुष्यता के साथ हैं!
अन्य किसी भी भारतीय नेताओं से अलग और अधिक गहरे स्तर पर अंबेडकर लोकतंत्र के सवाल को देखते थे, उनकी चुनौती बड़ी थी। उनके सामने ब्रिटिश साम्राज्य की बाहरी औपनिवेशिकता से ही नहीं भारत की आंतरिक औपनिवेशिकता से भी मुक्ति का सवाल था, बल्कि आंतरिक औपनिवेशिकता सवाल अधिक महत्त्वपूर्ण और प्राथमिक था।
इसी दोहरी, बल्कि तिहरी बाहरी उपनिवेश, ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद की चुनौतियों का सामना करते हुए ही स्वतंत्रता आंदोलन की गरिमामय भूमिका और भारत के लोकतंत्र में कल्याणकारी अवधारणाओं का स्वरूप गठित हुआ था; यह कोई सपना नहीं, संघर्ष था।
स्वतंत्रता आंदोलन में खून-पसीना बहानेवाले हमारे पुरखों पर ब्रिटिश हुकूमत और उच्च जाति के राष्ट्रवाद का दबाव बना हुआ था। कहना न होगा कि उच्च जाति के राष्ट्रवाद का संबंध कांग्रेस के ही अंदर सक्रिय एक भावधारा से था, हालांकि कांग्रेस की मुख्य और मूल विचारधारा उस भावधारा के खिलाफ संघर्ष निरंतर संघर्ष कर रही थी। दो-दो मोर्चों एक साथ लड़ना कितना मुश्किल होगा यह आसानी से समझ में आने लायक बात है।
डॉ. आंबेडकर का राष्ट्रवाद उच्च जाति के राष्ट्रवाद से बिल्कुल भिन्न था। वे पुरानी पहचान के हर संदर्भ को अर्थहीन मानते थे, वे बार-बार सिर्फ भारतीय होने की एक पहचान को अपनाने का महत्व जान रहे थे। विभिन्न पहचानों के बीच निष्ठा-संघर्ष की किसी भी परिस्थिति से बचने के लिए इस ‘एक पहचान’ के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है।
इस एकल पहचान की बुनियाद पर ही राष्ट्रवाद के उभार को डॉ. आंबेडकर उचित मानते थे। लोकतंत्र राज्य से जुड़ता है। राज्य राष्ट्र से प्राण पाता है। स्वाभाविक है कि लोकतंत्र में राष्ट्र की जगह राज्य ले लेता है। इससे राष्ट्रवाद के नाम पर राज्यवाद जगह घेर लेता है।
देखा जा सकता है कि क्रिया-प्रतिक्रिया के बीच किस प्रकार से ‘राष्ट्र प्रथम’ के नाम पर ‘हिंदू प्रथम’ का बहुसंख्यकवाद का ‘कर्म-कांडी’ माहौल बनाया जा रहा इसलिए बाबासाहेब ध्यान दिलाते थे, “कुछ लोग कहते हैं कि मैं पहले भारतीय हूं, बाद में हिंदू, मुस्लिम बाद में हूं। मैं इस बात से संतुष्ट नहीं हूं। मैं नहीं चाहता कि भारतीय के रूप में हमारी वफादारी किसी भी अन्य तरह की जरा-सी भी प्रतियोगी वफादारी, चाहे वह हमारे धर्म, हमारी संस्कृति, हमारी भाषा से ही जुड़ी हुई क्यों न हो। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भारतीय, आखिर में भारतीय, और कुछ भी नहीं बस भारतीय।”
ऐसा इसलिए कि विभिन्न जातियों, धर्मों, परंपराओं में जी रहे लोगों के एक साथ रहने तथा राजनीति में किसी तरह के पक्षपात, पक्षपात, गोलबंदी, ध्रुवीकरण की आशंकाओं को समाप्त किए बिना सामाजिक लोकतंत्र की कोई संभावना नहीं बन सकती है।
इसलिए वे जोर देते हैं, “हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र के रूप में ढालना है। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसकी आधारशिला के रूप में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जीवन की वह राह जो स्वाधीनता, समानता एवं भ्रातृत्व को जीवन के सिद्धांत के रूप में मान्यता दे।“
भारतीय समाज व्यवस्था की अंदरूनी और दुखद हकीकत को न सिर्फ जानते थे, बल्कि उसके व्यावहारिक नतीजों के भुक्तभोगी भी थे।“भारतीय समाज में दो बातों का पूर्णत: अभाव है। इनमें से एक समानता है। सामाजिक क्षेत्र में हमारे भारत का समाज वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ है, कुछ लोगों के लिए उत्थान एवं अन्यों की अवनति।
आर्थिक क्षेत्र में हम देखते हैं कि समाज में कुछ लोगों के पास अथाह संपत्ति है जबकि दूसरी ओर असंख्य लोग घोर दरिद्रता के शिकार हैं। 26 जनवरी, 1950 को हमलोग एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हमारे बीच समानता होगी। राजनीति में हम एक-व्यक्ति एक-मत एवं एक-मत एक-मूल्य के सिद्धांत को स्वीकृति देंगे। पर अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में वर्तमान सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के चलते एक-व्यक्ति एक-मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करना जारी रखेंगे।
हम कब तक इस विरोधाभासी जीवन को जीते रहेंगे, अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में समानता को अस्वीकार करते रहेंगे? समझा जा सकता है कि क्यों ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी ‘जय बापू , जय भीम, जय संविधान’ के साथ अपनी मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं।
आज-कल खास रंग-ढंग के नेताओं में भारत को ‘विश्व-गुरु’ बनाने की भारत-भक्ति का फेनिल उफान जोर मार रहा है। डॉ. आंबेडकर ने भविष्य के खतरों को समझ लिया था। वे साफ-साफ चेतावनी के स्वर में समझदारी विकसित करते हुए कहते हैं कि धर्म के संबंध में ‘भक्ति से आत्मा को मोक्ष मिल सकता है परंतु राजनीति में भक्ति निश्चय ही पतन और अंतत: तानाशाही का कारण है।’
उन्होंने यह तर्क दिया कि नया भारतीय समाज, एक ऐसे सामाजिक लोकतंत्र पर आधारित हो जिसमें जीवनयापन के तौर-तरीक़ों में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी विशेषताओं को मान्यता प्रदान की गई हो। महसूस किया जा सकता है कि भारतीय समाज में समानता का अभाव है और जब तक राजनीतिक जीवन में सामाजिक असमानता बनी रहेगी तब तक लोकतंत्र ख़तरे में रहेगा। उन्होंने प्रस्ताव किया कि ‘हमें इन अवरोधकों को यथाशीघ्र दूर करना होगा, अन्यथा जो असमानता से पीड़ित होंगे वे राजनीतिक लोकतंत्र के उस ढांचे को ध्वस्त कर देंगे जिसे इस सभा ने अपनी कड़ी मेहनत से बनाया है।’
राहुल गांधी समानता के अवरोधकों से लगातार लड़ रहे हैं। पिछले दिनों ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी वंचित समाज के कार्यक्रम में बोलते हुए ‘बहुत कुछ’ ऐसा कहा जो ऊपर से तो बहुत ही सहज और स्वाभाविक लग रहा था लेकिन भीतर से पुराने कांग्रेसियों को असहज कर देनेवाला है।
राहुल गांधी कांग्रेस की मौलिक विचारधारा को लागू किये जाने की कार्य-नीति में कोताही करते-करते कांग्रेस के बेदम हो जाने की बात को बिना किसी लाग-लपेट के सीधी-सरल भाषा में सीधे-सरल तरीके से रख दिया। कांग्रेस को होनेवाली राजनीतिक क्षति की आशंका को जानते हुए भी कह दिया, यह कम बड़ी बात नहीं है।
असल में राहुल गांधी न सिर्फ समानता के बाहरी अवरोधकों से लड़ रहे हैं बल्कि अपने दल में जड़ीभूत समानता के अवरोधकों से भी लड़ रहे हैं। बाहर-भीतर जहां भी हैं समानता के अवरोधक, राहुल गांधी उसके साथ एक वृहत्तर राजनीतिक लड़ाई में दलीय-निष्ठा से बाहर निकलकर देश के दलित, अति-पिछड़े, पिछड़े और अल्पसंख्यक की अगुआई करते देखे जा सकते हैं।
दलीय-निष्ठा से बाहर जा कर सामाजिक और कुछ हद तक आर्थिक समानता के अवरोधकों के खिलाफ जारी यह ईमानदार लड़ाई राहुल गांधी को ‘न्याय योद्धा’ का खिताब देती है। चुनावों में कांग्रेस की जीत हो या हार, इस की परवाह किये बिना महात्मा गांधी की नैतिक-शक्ति, बाबासाहेब की गहरी समाज-आर्थिक समझदारी और संविधान की लचीली दृढ़ता के साथ राहुल गांधी ‘हम भारत के लोगों’ को लामबंद कर रहे हैं।
जाहिर है कि राहुल गांधी की राजनीतिक ताकत का स्रोत राजनीतिक दलों या घटक दलों के भीतर न हो कर त्राहि-त्राहि कर रही आम लोगों की आत्मा में है। यह बात तो बिल्कुल साफ-साफ समझी जा सकती है कि जो निरंतर आजादी की लड़ाई में शामिल रहता है, वही आजादी की रक्षा कर सकता है, इतिहास में पुरखों की चमकती पंक्ति में जगह बना लेता है।
बाहर-भीतर की परिस्थिति जितना भी कठोर और निष्ठुर क्यों न हो आवाम की आत्मा में अपने लिए ईमानदारी से लड़नेवाले नेताओं के लिए करुणा का अक्षय स्रोत होता है। राहुल गांधी ने इस लड़ाई को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि अब यह, यह राज्य-शक्ति में साझेदारी और सेवा की हकदारी की दोहरी लड़ाई बन गई है। बहुत हुआ लोकतंत्र में हकमारी का प्रपंच, अब लड़ाई हकदारी की है, क्या कहते हैं!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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