हे परमात्मा बनारस को बुरी नजर से दूर रखना: गालिब

पहले मिर्जा गालिब की लिखी यह पंक्तियां पढ़ें, तआलल्लाह बनारस चश्म ए बद’दूर बहिश्त ए खुर्रम ओ फिरदौस ए मामूर, इबादतख़ान ए नाकूसियाँ अस्त ए हमाना काबा ए हिन्दोस्तां अस्त !

अब इसका हिंदी अनुवाद, हे परमात्मा, बनारस को बुरी नजर से दूर रखना, क्योंकि यह आनन्दमय स्वर्ग है। यह घंट ध्वनि करने वालों का उपासना स्थल है। यह हिन्दोस्तान का काबा है।

बनारस के बारे में गालिब ने यह पंक्ति, ‘ त’आलल्लाह बनारस चश्मे बद’ दूर ‘ तब लिखी थी, जब वे दिल्ली से कलकत्ता, अपनी पेंशन के संबंध में, गवर्नर जनरल से फरियाद करने जा रहे थे और बनारस के सौंदर्य और मस्ती से अभिभूत हो वहीं रुक गए थे। वे दिल्ली से पहले, लखनऊ, अवध के नवाब के दरबार में कुछ आर्थिक कारणों से आए और फिर जब वहां उनका काम नहीं बना तो बांदा के नवाब के यहां एक संपर्क के द्वारा पहुंचे। बांदा से फिर वे इलाहाबाद होते हुए बनारस पहुंचे। बनारस रुकने की उनकी कोई योजना नहीं थी, पर बनारस उन्हें इतना पसंद आ गया कि वे वहां तीन हफ्ते तक रुके रहे और खूब घूमा।

मिर्ज़ा ग़ालिब की बनारस-यात्रा मशहूर है। उन्होंने बनारस में जो कुछ भी देखा था उसे अपने एक मसनवी ‘चिराग-ए-दैर’ में लिखा, यह मसनवी उन्होंने फ़ारसी में लिखी थी। बनारस पहुंचकर जब ग़ालिब ने वहां तीन चार हफ़्ते गुज़ारे और जब शहर से खूब परिचित हो गए तब उन्होंने अपने दोस्त मौलवी मोहम्मद अली खां को एक लंबा पत्र लिखा। इस पत्र में बनारस के संबंध में उनकी मन:स्थितियों का बेहद मार्मिक चित्रण मिलता है। वे लिखते हैं- 

”जब मैं बनारस में दाखिल हुआ, उस दिन पूरब की तरफ़ से जान बख़्शने वाली, जन्नत की- सी हवा चली, जिसने मेरे बदन को तवानाई अता की और दिल में एक रूह फूंक दी। उस हवा के करिश्माई असर ने मेरे जिस्म को फ़तह के झण्डे की तरह बुलंद कर दिया। ठण्डी हवा की लहरों ने मेरे बदन की कमजोरी दूर कर दी।”

यह सुबहे बनारस का जिक्र है। और जिक्र का अंदाज भी किसी और सुखनवर के अंदाज से नहीं बल्कि गालिब की अनूठी अंदाज ए बयानी से है।

ऐसा नहीं कि बनारस पर फ़ारसी भाषा में सबसे पहले ग़ालिब ने ही लिखा हो। हक़ीक़त यह है कि फ़ारसी भाषा में बनारस के विषय में लिखने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ग़ालिब ने अपनी मसनवी ‘चिराग-ए-दैर’ लिखकर उसी परंपरा का विस्तार किया। बनारस में कुछ दिन गुज़ारने और शहर के विभिन्न इलाक़ों की शैर करने के बाद उन्होंने जो अनुभव किया उसके बारे में लिखते हैं-

“बनारस शहर के क्या कहने! अगर मैं इसे दुनिया के दिल का नुक़्ता (बिंदु) कहूं तो दुरुस्त है। इसकी आबादी और इसके अतराफ़ के क्या कहने ! अगर हरियाली और फ़ूलों के ज़ोर की वजह से मैं इसे ज़मीन पर जन्नत कहूं तो बजा है। इसकी हवा मुर्दों के बदन में रूह फूंक देती है। इसकी ख़ाक के ज़र्रे (कण) मुसाफ़िरों के तलवों से कांटे खींच निकालते हैं। अगर दरिया-ए-गंगा इसके क़दमों पर अपनी पेशानी न मलता तो वह हमारी नज़रों में मोहतरम (प्रतिष्ठित) न होता, और अगर सूरज इसके दरो-दीवार के ऊपर से न गुज़रता तो वह इतना रौशन और ताबनाक न होता।”

बनारस के घाट, उत्तरवाहिनी गंगा, मंदिरों के शिखर, घंटे घड़ियालों की आवाजें, शंख ध्वनि ने उन्हें इतना मंत्रमुग्ध कर दिया कि उन्होंने यहां तक लिख दिया कि वे बनारस में ही बस जाना चाहते हैं। गालिब को अपने फक्कड़पन और बनारस की मस्ती में एक स्वाभाविक सामंजस्य दिखा। फारसी में उस मसनवी चराग ए दैर, जिसमें बनारस की खूबसूरती, मस्ती का अद्भुत वर्णन है। यह अंश उसी लंबी नज़्म का एक अंश है। आज बनारस को जिस उन्माद की बुरी नजर से बचाने का वक्त आ गया है, उसमें गालिब की यह लगभग डेढ़ सौ साल पहले की गई दुआ आज प्रासंगिक हो उठती है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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