Tuesday, April 23, 2024

रणवीर सेना: अचानक बनती सुर्खियों के क्या मायने हैं ?

पिछले दिनों उसने अपने सोशल मीडिया पेज पर भीम आर्मी के बिहार प्रमुख गौरव सिराज और एक अन्य कार्यकर्ता वेद प्रकाश को खुलेआम धमकाया है। उसने अपने ‘सैनिकों’ को आदेश दिया है कि उन्हें ‘जिन्दा या मुर्दा’ गिरफ्तार करें। बताया जाता है कि इस युवा अम्बेडकरवादी ने ब्रह्मेश्वर मुखिया – जो रणवीर सेना के प्रमुख थे और 2012 में किसी हत्यारे गिरोह के हाथों मारे गए- के बारे में जो टिप्पणी की वह रणबीर सेना के लोगों को नागवार गुजरी है।

प्रश्न उठता है कि इस तरह खुलेआम धमकाने और मारने-पीटने की बात करने के लिए क्या ‘सेना’ पर कार्रवाई होगी? अगर इतिहास को गवाह मान लिया जाए तो इसकी संभावना बहुत कम दिखती है।

महज दो साल पहले नवल किशोर कुमार, जो फारवर्ड प्रेस के साथ सक्रिय पत्रकार हैं, उन्हें उसी तरह इन्हीं लोगों द्वारा निशाना बनाया गया था, पीड़ित पत्राकार ने औपचारिक शिकायत भी दर्ज करायी, मगर इन दो सालों में मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है। (forward press news)

निश्चित ही बात यह नहीं है कि इन अत्याचारियों को दंडित करने के लिए कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। भारत की दंड संहिता ‘‘धारा 503 (आपराधिक धमकी), 505 (सार्वजनिक तौर पर हानि), 506 (आपराधिक धमकी के लिए सज़ा), धारा 153 (ए) (दो समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना)’ के तहत सोशल मीडिया पर इस किस्म के विवादास्पद पोस्ट डालना आपराधिक कर्म है।’’ इतना ही नहीं बिहार कंट्रोल ऑफ क्राइम्स एक्ट, आर्म्स एक्ट की धारा 3 और अनुसूचित जाति और जनजाति निवारण अधिनियम, 1989 के तहत भी इसे दंडनीय माना गया है।  (sabrang news)    

ऐसा कोई भी शख्स जिसने इस संगठन की यात्रा पर गौर किया होगा और उत्तर भारत के वर्चस्वशाली जाति के साथ उसके नाभिनाल बद्ध रिश्ते को देखा होगा, वह जानता है कि आज भी सत्ताधारी हलकों में उसका कितना रसूख है। यह अकारण नहीं था कि भाजपा के एक सांसद – जो पिछली मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्राी का ओहदा भी पा चुके हैं – ने हाल में ‘शहीद’ ब्रह्मेश्वर सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ट्वीट किया। आपको पता ही होगा ब्रह्मेश्वर मुखिया कुख्यात रणवीर सेना का प्रमुख था – जो कथित ऊंची जाति के भूस्वामियों की निजी सेना थी और जिसके नाम कम से कम 300 मासूमों की हत्याएं दर्ज हैं। (forward press news)    

हम जानते हैं कि सांसद गिरिराज सिंह – जिन्हें इस विवादास्पद ट्वीट को लेकर हंगामे के बाद उसे डिलीट करना पड़ा – कोई अकेले शख्स नहीं हैं जो ब्रह्मेश्वर सिंह के नाम पर आज भी सम्मोहित रहते हैं। ऊंची जातियों का अच्छा खासा हिस्सा – मुखिया के प्रति वैसी ही भावना रखता है। वर्ष 2012 में जिस ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया की हत्या हुई इस दिन को ‘शहादत दिवस’ के तौर पर मनाता है और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों को कवर करने में बिहार के अख़बारों में भी गोया प्रतियोगिता मची रहती है।  (business standard news ; forward press news

इस ट्वीट को लेकर मचे हंगामे को समझा जा सकता था क्योंकि जमींदारों की यह निजी सेना – जिस पर अब पाबंदी लगी है – उत्पीड़ित, शोषित जातियों के तमाम मासूमों के कत्लेआम में मुब्तिला रही है, और मारे गए लोग वामपंथी संगठनों के करीब कार्यकर्ता या समर्थक रहे हैं। दरअसल सेना के गठन के पीछे मकसद यही रहा है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और अन्य क्रांतिकारी वाम समूहों की अगुआई में चल रहे लड़ाकू आन्दोलनों – जो आर्थिक न्याय और सामाजिक बराबरी को हासिल करने की दिशा में बढ़ रहे थे – को कुचला जाए और इस काम के लिए उसे हर कदम पर राज्य का सहयोग भी मिलता रहा है।

आज से दो दशक पहले ह्यूमन राइट्स वॉच की तरफ से जारी इस रिपोर्ट (1999) को पलटें जिसका शीर्षक था ‘ब्रोकन पीपुल: कास्ट वायलेन्स अगेन्स्ट इंडियाज अनटचेबल्स’ में राज्य सरकार और रणबीर सेना के आपसी मेल मिलाप पर रौशनी डाली गयी थी:

”रणवीर सेना को मिल रहे राजनीतिक संरक्षण को इस बात से भी देखा जा सकता है कि जहां तमाम नक्सलवादी (पुलिस के साथ) ‘‘एनकाउंटर’  में मारे जाते हैं, अभी तक रणवीर सेना के किसी भी आदमी के साथ ऐसा सलूक नहीं हुआ है। जहां तक इन सेनाओं से निपटने का सवाल है तो प्रशासन हमेशा देर से जगता है। जहानाबाद (बाथे) कत्लेआम के कुछ दिन पहले ही रणवीर सेना ने यह ऐलान कर दिया था कि वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बनाएगा।”

— The Pioneer, December 12, 1997.106 (roundtableindia news

ब्रह्मेश्वर मुखिया।

अगर हम रणवीर सेना द्वारा अंजाम दिए गए तीस कत्लेआमों पर गौर करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘‘हमलावरों ने महिलाओं और बच्चों को ही निशाना बनाया था क्योंकि उनका मानना था कि महिलाएं नक्सलियों को जन्म देती हैं और बच्चे बड़े होने पर नक्सली बनते हैं। Table 2: Massacres carried out by Ranvir Sena, (forward press news) 1994 में अपने गठन के समय से सेना को ‘लगभग 300 लोगों की मौत का जिम्मेदार माना जाता है जिनमें से अधिकतर गरीब किसान और खेत मजदूर तबके के थे और दलित तथा पिछड़ी जातियों से सम्बद्ध थे।’  (pudr news)    

आखिर इन दो असम्बद्ध घटनाओं को आपस में जोड़ कर कैसे देखा जा सकता है ? जहां एक तरफ भीम आर्मी के नेता को दी गयी धमकी की घटना है और सेना के मारे गए मुखिया को सत्ताधारी पार्टी के सांसद द्वारा सम्मान पूर्वक याद किया जा रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार विधानसभा के आसन्न चुनावों के दिनों में – जब राज्य में सत्तासीन जद यू, लोजपा और भाजपा की साझा सरकार को जनता के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है कि उन्होंने कोविड संक्रमण के मामले को किस तरह हैण्डल किया, उन्होंने प्रवासी मजदूरों को किस तरह मरने के लिए छोड़ दिया और किस तरह अर्थव्यवस्था की हालत उनके राज में लगातार ख़राब होती जा रही है – रणवीर सेना का अचानक सुर्खियों में आना चिन्ता का मसला है।

क्या यह वर्चस्वशाली ऊंची जातियों के लिए यह संकेत है कि आने वाले चुनावों में उन्हें क्या करना है और कौन उनके हितों की हिफ़ाजत कर सकता है ?

क्या कोई भयावह प्लान रचा जा रहा है ताकि रणवीर सेना का जो व्यापक नेटवर्क और उसके हमदर्दों का जो दायरा है, उसे आने वाले चुनावों में किसी न किसी रूप में काम में लगाया जाए ?

गौर करें कि सार्वजनिक दायरे में ही ढेर सारी जानकारी उपलब्ध हैं जो बताती हैं कि कभी बेहद खतरनाक समझे जाने वाली रणबीर सेना के साथ सत्ताधारी गठबंधन के नेताओं के कितने करीबी रिश्ते रहे हैं।

वर्ष 2015 में कोबरापोस्ट नामक एक जांचकर्ता न्यूज़पोर्टल ने एक स्टिंग ऑपरेशन जारी किया था जिसमें उसने कैमरे के सामने दिखाया कि किस तरह रणवीर सेना के छह कुख्यात अपराधी इस बात को स्वीकार रहे हैं कि उन्होंने कैसे-कैसे हत्याओं को अंजाम दिया और यह भी बता रहे हैं कि किस तरह एक पूर्व प्रधानमंत्राी और भाजपा के कई अग्रणी नेताओं ने उनकी सहायता की। (the wire news)  

यह सुनना बेहद विचलित करने वाला था कि वह 144 दलितों की हत्या में – जो बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, शंकर बिगहा, मियांपुर और इकवारी जैसे स्थानों से थे – अपनी संलिप्तता को कबूल कर रहे थे और इस बात को भी उजागर कर रहे थे कि किस तरह उन्हें रिटायर्ड या सेवारत फौजियों ने प्रशिक्षण दिया। उनकी बात में अमीर दास आयोग को जिस तरह आनन-फानन में समाप्त किया गया था, उसका भी उल्लेख था, और तथ्य पर रौशनी डाली गयी थी कि किस तरह उनके खिलाफ चली जांच को अध बीच में समाप्त किया गया। 

इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि इस पर्दाफाश में नया कुछ नहीं था, इसमें उन सभी विवरणों को दोहराया गया जिनके बारे में लोग पहले से जानते थे।

हम सभी नीतीश कुमार के वर्ष 2004 में मुख्यमंत्राी बनते ही जस्टिस अमीर दास आयोग को विसर्जित करने की घटना को याद कर सकते हैं, जो अपनी रिपोर्ट को अंतिम शक्ल देने के करीब था। इस आयोग का गठन लक्ष्मणपुर बाथे जनसंहार के बाद तत्कालीन लालू प्रसाद यादव सरकार ने किया था (1997)। इस आयोग ने इस खूंखार बन चुकी सेना को मिल रहे राजनीतिक संरक्षण के बारे में भी लिखा था। याद कर सकते हैं कि वर्ष 2006 के अप्रैल माह में सीएनएन-आईबीएन ने भी एक रिपोर्ट जारी की थी जिसका फोकस विसर्जित किए गए अमीर दास आयोग पर था।(http:.www.ibnlive.com.videos.india.castearmy-has-politician-friends-234634.html)     

इस स्टोरी में यह भी दावा किया गया था कि – जिसका आधार आयोग की अधूरी रिपोर्ट की लीक कॉपी था – आयोग कम से कम 37 राजनेताओं का नाम लेने के लिए तैयार है। न्यायमूर्ति अमीर दास (रिटायर्ड) जो आज भी मानते हैं कि उन्हें इसी वजह से आयोग की कार्रवाइयों को अचानक समाप्त करने के लिए कहा गया था क्योंकि उससे कई सियासतदां लपेटे में आ जाते।  (the wire news)    

आज जबकि चुनाव के मौके पर रणवीर सेना की सादृश्यता/ विजिबिलिटी पड़ताल का विषय बनी है, इस तथ्य को भी याद कर लेना जरूरी है कि सेना और उससे जुड़े हत्यारे जिन कत्लेआमों में मुब्तिला थे, उनमें से किसी भी मामले में – एकाध व्यक्ति को छोड़ कर- किसी को कुछ सज़ा हुई हो, भले निचली अदालतों ने हत्यारों को सज़ा सुनायी थी।

अख़बार की रिपोर्ट बताती है कि किस तरह पटना उच्च न्यायालय ने मियांपुर कत्लेआम के दस में से नौ अभियुक्तों को ‘सबूत के अभाव’ में बरी कर दिया था तथा निचली अदालत के आदेशों को पलट दिया था। (जुलाई 2013) मियांपुर कत्लेआम में रणबीर सेना ने 32 लोगों को – अधिकतर दलितों को – मार डाला था। उसी साल पटना उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के एक और फैसले को पलटा जिसमें नवम्बर 1998 में सीपीआई (माले) के दस कार्यकर्ताओं को मार डाला गया था। वही हाल बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे कत्लेआम का हुआ था जिनमें इसी तरह रणवीर सेना के हत्यारों को ‘‘बाइज्जत बरी किया गया था।’’

निश्चित तौर पर इन तमाम मामलों में निचली अदालतों ने अभियुक्तों को दोषी ठहराया था – जिन्हें बाद में पलटा गया – लेकिन अगर हम इस मामले को करीब से देखें तो यह दिखता है कि फैसलों में ही कुछ ऐसे सुराग रखे गए थे कि उससे अभियुक्तों की मदद हो सके। मिसाल के तौर पर, पुलिस ने रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया को, फरार घोषित किया था जबकि उन्हीं दिनों यह शख्स वर्ष 2002 से आरा जेल में बन्द था। इस समूचे प्रसंग से खिन्न होकर स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने एक अख़बार को बताया था कि किस तरह ‘पुलिस और सरकार यह सुनिश्चित कर रही है कि मामले में न्याय न हो।’ (The Hindu, 7 th May 2010) 

एक अतिरिक्त कारक जिसे हमें ध्यान में रखना चाहिए कि अपने अंतिम दिनों में बिना दोष सिद्ध साबित हुए जब ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया बाहर आया तो उसने ‘अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन’ का निर्माण किया और अपने आप को किसानों का नेता घोषित किया।

यह संगठन आज भी अस्तित्व में है और अपनी सक्रियताओं में मुब्तिला है। 

चीज़ें आगे किस तरह विकसित होंगी इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती अलबत्ता यह तो स्पष्ट है कि एक अप्रत्याशित तत्व का आने वाले चुनावों में प्रवेश हो चुका है।

(सुभाष गाताडे लेखक और चिंतक हैं आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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