आखिर मोदी जर्मनी में भारतीयों को क्या बताना भूल गए?

पीएम मोदी मई, 2022 की शुरुआत में ही जर्मनी में थे। बर्लिन में उन्होंने भारतीय भाइयों से मुलाकात की और सम्बोधित भी किया। उनको बताया कि नया भारत, उदित होता भारत कैसा लगता है। उन्होंने कहा कि भारत स्वर्णिम आभा बिखेरने लगा है। उन्होंने बताया और समझाया भी कि भारत बहुत कुछ बदल चुका है। बदलाव नेतृत्व कर्ताओं में है। उनको बदलाव, भारतीयों की सोच, दशा और दिशा में भी दिखाई पड़ता है। लेकिन यह वह तबका है जो इस बदलाव से सबसे ज्यादा लाभान्वित हुआ है। लिहाजा मोदी की नीतियों का बखान वह नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा। लेकिन सवाल यह है कि मोदी के सपनों के भारत में क्या जर्मनी में बैठे वही लोग ही शामिल हैं और वे क्या भारत के जन मन का प्रतिनिधित्व कर रहे थे? निश्चय ही नहीं। तो जर्मनी में मोदी किसको भूल गए थे? कौन-कौन सी समस्याओं की पोटली को वो खोलना भूल गए थे? क्या नहीं कहा, नहीं बताया उन्होंने। आइये जानें, समझें।

वो भूलते दिखाई पड़े एक सौ चालीस करोड़ जनसँख्या की आशा और अपेक्षा को। आशा थी तीव्र विकास की, रोजगार की। वो बताना भूल गए कि उनके  शासन काल में विकास दर घटती हुई ज्यादा दिखाई देती है। 2014- 2015 में देश की विकास दर 7.4 प्रतिशत थी जो 2019- 20 में तेजी से घटी और 4.4 प्रतिशत ऱह गई। 2020-21 में  यह ऋणात्मक (-7.3%) हो गई थी। विमुद्रीकरण और जीएसटी के दंश ने डसा था विकास को। वो भूल गए अति  निर्धन हो गयी जमात को। वो भूल गए उन  नौजवानों की व्यथा को बताना जो पत्थर का सीना चीरना तो जानते हैं किन्तु शासन का नहीं और जो बेरोजगारी के पैरों तले रौदे जाने के लिए मजबूर हैं।

सीएमआईई का आँकड़ा कहता है कि सन 2018 में बेरोजगारी, पिछले 45 वर्षों में अभूतपूर्व रूप से सबसे ज्यादा रही। यह दर सन 2019, सन 2020 में क्रमश: 5.27 प्रतिशत, 7.11 प्रतिशत, सन 2021(मई) में 12 प्रतिशत और सन 2022 (मार्च) में 7.6 प्रतिशत थी। उनको याद ही नहीं रहा कि देश एक अपरिमित असमानता के  दंश को झेल रहा है। ऑक्सफेम की रिपोर्ट बताती है कि देश में खरबपतियों की संख्या सन 2021 में 102 से बढ़कर 142 हो गई। उनकी संपत्ति 23,14,000 करोड़ रुपये से बढ़ कर 53,16,000 करोड़ रुपये हो गयी। वो भूल गए  बताना  की काला धन कैसे सफ़ेद होकर उनके कार्यकाल में निकला है। विदेशों में जमा  काला धन कब वापस आएगा, बताना भूल गए। महंगाई की मार् से अधमरी  होती जनता की व्यथा कथा कहना वे भूल गए। अप्रैल, 2022 को मुद्रास्फीति  की दर 7.79 प्रतिशत रही जो मई 2014 के पश्चात सर्वाधिक है। वो भूल गए  बेसहारा होते किसानों को जो की उत्पादन वृद्धि के दबाव में दब गए। उत्पादन बढ़ाया उन्होंने तो भाव घटने की मार झेली भी उन्होंने ही।

किसानों की आय 2022 तक दुगनी हो जाएगी, उनका दिखाया सपना, सपना ही रह गया है। वे  बताना भूल गए की जीडीपी- उधार अनुपात 90 प्रतिशत तक पहुंच गया है और देश दूसरा श्रीलंका बनने की तरफ अग्रसर है। वो बताना भूल गए कि विमुद्रीकरण के कारण असंगठित क्षेत्र बेमौत मर गया ।लघु उद्योग क्षेत्र की कमर अभी भी टूटी ही है। मध्यम वर्ग कराह रहा है और गरीबी की रेखा के ऊपर-नीचे नाच रहा है। तो वे बताना भूल गए अपनी आठ साल की इन आठ  भूलों को । विश्व गुरु बनने की तमन्ना इन आठ भूलों के मकबरे पर गुम्बद  बनाने जैसा है ।

जरा इसको और विस्तार दिया जाए। तो क्या यह साबित  करने के लिए की मोदी शासन एक श्रेठ शासन है हम भी भूल जायें कि  जिन्दा रहने के लिए रोटी आवश्यक होती है? हम भूल जायें की पसीना बहाना  पुरुषार्थ की निशानी है तो पसीना बहाने के लिए रोजगार भी चाहिए। हम भूल जायें महंगाई की मार को, पेट्रोल की बेतहाशा बढ़ती कीमतों को और टैक्स के  बढ़ते बोझ को। जनता का बचाव करना सरकार की जिम्मेदारी होती है। लेकिन  प्रश्न तो यह है कि किस जनता के बचाव कि जिम्मेदारी है? उनका जो जर्मनी  के विशाल हॉल में बैठे थे और जो मोदी जी जैसे ही ज्ञानवान, धीरवान, बुद्धिमान दिख रहे थे। सम्पन्नवान तो वे हैं ही ऐसा हम मान लें तो संभवतः गलत भी नहीं होगा। यह वही वर्ग है जो नव उदारवादी, बाजारवादी  अर्थव्यवस्था के ध्वजवाहक होते हैं ।या बचाव कि आवश्यकता है उन किसान, मजदूर, नौजवानों को जो खेत- खलिहानों, दुकानों, दुर्गम स्थलों पर पसीना बहाते हैं । वस्तुतः यही वर्ग सभी श्रम का प्रदाता होता है, किन्तु आज बेसहारा है। सत्य तो यह है कि चिराग तले अँधेरा होता ही है। विकास के दौर में प्रायः इस अँधेरे की तरफ ध्यान नहीं जाता। प्रश्न तो यह है कि क्या मोदी सरकार आत्म विश्लेषण करेगी? शायद यही उस हॉल में बैठे लोग भी चाह रहे थे और ताली खुल कर नहीं बजा रहे थे। आखिर वे भी तो भारतीय जो ठहरे।

(लेखक विमल शंकर सिंह, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं।)

विमल शंकर सिंह
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विमल शंकर सिंह