ब्रिक्स सम्मेलन 2024, किस संभावना का संकेत दे रहा है ?

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रूस की मेजबानी में, उसके शहर कजान में 22-24 अक्टूबर 2024 को ब्रिक्स देशों का 16 वां वार्षिक सम्मेलन आयोजित हो रहा है। इस सम्मलेन में ब्रिक्स समूह में शामिल सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल होंगे। हम जानते हैं कि ब्रिक्स दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है।

इसके अतीत के पन्नों को पलटें तो 2001 में ‘गोल्डमैन सैक्स (एक अमरीकी निवेश बैंक व बहुराष्ट्रीय वित्तीय सेवा कंपनी)’ के अर्थशास्त्री जिम ओ’नील ने पहली बार उस समय तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं (ब्राजील, रूस, भारत और चीन) को मिलाकर ब्रिक (BRIC) बनाने का प्रस्ताव रखा था।

इसी क्रम में 2006 में रूस की पहल पर सेंटपीटसबर्ग में रूस, भारत और चीन के नेताओं की बैठक के बाद से ब्रिक्स के अस्तित्व में आने की शुरूआत हुई। चारों देशों ने मिलकर 2009 में पहली बार आधिकारिक तौर पर इसके शिखर सम्मेलन का आयोजन किया।

तब से यह ब्रिक के नाम से जाना जाता था। 2010 में दक्षिण अफ्रीका को इस समूह में शामिल किया गया और संगठन का नाम ब्रिक की जगह ब्रिक्स हो गया। इसके पहले इस संगठन के 15 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं और यह 16वां शिखर सम्मेलन है। 

इस बार ब्रिक्स का यह शिखर सम्मेलन ऐसी परिस्थिति में आयोजित हो रहा है जब दुनिया सर्वनाशक युद्धों के दौर से गुजर रही है। अब तो परिस्थितियां और भी भयवाह रूप लेती जा रही हैं और ये विनाशकारी युद्ध धीरे-धीरे समूची दुनिया को अपनी चपेट में लेने की दिशा में बढ़ रहे हैं।

ढ़ाई साल से भी ज्यादा अरसे से जारी रूस और युक्रेन के बीच घमासान युद्ध की विभिषिका कम होने का नाम ही नहीं ले रही। अभी तक 6 लाख के करीब लोगों की कुर्बानी लेने के बावजूद उसकी लपटें फैलती जा रही हैं। करोड़ों की आबादी बेघर हो गई है।

बच्चों-बुर्जुगों और औरतों की लाशों से युक्रेन और रूस की धरती पटी पड़ी है। पर सत्ता और वर्चस्व के भूखे युद्ध के सौदागरों की युद्ध पिपासा कहीं से भी कम नहीं हो रही। वस्तुतः यह युद्ध रूस-युक्रेन युद्ध न रहकर रूस और अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो के कुछ अहम देशों के बीच के युद्ध में रूपांतरित हो गया है। 

उधर फिलीस्तीन राष्ट्र और उसकी जनता पर इस्राइल का हमलावर युद्ध अब किसी खास सीमित दायरे तक ही सिमटा नहीं रहा है। इरान से लेकर सीरिया-लीबिया-लेबनान और यमन तक इसका विस्तार होता गया है। कहें तो इस्राइली-अमेरीकी गठजोड़ ने पूरे मध्यपूर्व पर अपने पैने दांत गड़ा दिये हैं।

उधर दक्षिणी और पूर्वी चीन सागर में तथा ताईवान में अमरीकी-यूरोप गठजोड़ और उसके ताबेदार राष्ट्रों के साथ चीनी साम्राज्यवादियों के अन्तरविरोध युद्ध की दिशा में बढ़ रहे हैं।

तो इस तरह साफ दिख रहा है कि आज दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का यह संगठन जब अपने 16वें शिखर सम्मेलन का आयोजन करने जा रहा है, तब पूरा विश्व ही करीब-करीब एक महाविनाशक महायुद्ध के मुहाने पर खड़ा है। 

इस परिस्थिति में इस शिखर सम्मेलन के आयोजन के मायने को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। आज यह साफ हो गया है कि एक बार फिर दुनिया पर वर्चस्व बनाए रखने वाली और उसके संसाधनों की बेपनाह लूट-खसोट करने वाली साम्राज्यवादी ताकतों के बीच के अन्तर्विरोध आज एक ऐसी स्थिति में चले गए हैं।

जिसमें शांतिपूर्ण तरीके से उनका हल निकालना मुश्किल हो गया है। ऐसी स्थिति में दुनिया को नए सिरे से बांटने के लिए उनके बीच एक सर्वव्यापी युद्ध की जरूरत उनके लिए बिल्कुल अपने-अपने अस्तित्व को बचाए रखने की एक अनिवार्य शर्त बन गई है।  

एक तो ऐसे ही विश्वपूंजीवाद ने, उसके सर्वाधुनिक रूप वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी पर आधारित साम्राज्यवाद ने समूची दुनिया को एक सर्वग्रासी संकट के गर्त में धकेल दिया है। मोटे तौर पर इस संकट के स्वरूप को देखें तो एक तो यह कि पूरी दुनिया आज कर्ज के भयावह बोझ से कुचली जा रही है।

साम्राज्यवादी शक्तियों सहित दुनिया की समूची अर्थव्यवस्था का कुल कर्ज पहली बार 100 ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े को पार कर गया है। यह विशाल राशि पूरी दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं की कुल जीडीपी से भी ज्यादा हो गयी है। 

दूसरे, समूची दुनिया और खासकर इसकी सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एक भयानक महामंदी की चपेट में है और आम रूप से सरल घरेलू उत्पादों की वृद्धि दरें निरंतर घटती ही जा रही हैं। इस बढ़ती जा रही महामंदी के ऊपर कोढ़ के ऊपर खाज की तरह बढ़ती जा रही मुद्रास्फीति। 

तीसरे, इस तरह बढ़ती महामंदी, बढ़ती मुद्रास्फीति और लगातार बढ़ते और विकराल होता जा रहा कर्ज समूची विश्व-अर्थव्यवस्था के कभी भी भहरा जाने की परिस्थिति पैदा कर रहा है। दूसरी तरफ, सभी क्षेत्रों के गिरती हुई मुनाफा की दरों की वजह से वित्तीय पूंजी किसी भी क्षेत्र में ठहर नहीं रही।

अभी वह बेतहाशा मुनाफे की तलाश में सट्टेबाजी के धंधे में बड़े पैमाने पर उतरती चली जा रही है। इसका एक परिणाम यह भी निकल रहा है कि बड़े पैमाने पर दुनिया भर में पूंजी के वित्तीयकरण और वित्तीय पूंजी के वैश्वीकरण की रफ्तार बढ़ रही है।

इससे वास्तविक पूंजी (real capital) और आभासीय पूंजी (virtual capital) के बीच का अंतर खतरनाक हद तक बढ़ते जा रहा है जो विश्व अर्थव्यवस्था के सामग्रिक संकट को और भी गहरा बनाये दे रहा है।

अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वह और भी ज्यादा मात्रा में संकेद्रित होती जा रही है। छोटी और मंझोली पूंजी को वह लगातार निगलती जा रही है और समूची दुनिया में भयानक लूट-खसोट मचाए हुए है।

यह समूची प्रक्रिया एक तरफ साम्राज्यवादी खेमे के बीच के अंतरविरोध को और दूसरी तरफ इस खेमे के साथ दुनिया के सभी उत्पीड़ित देशों और उसकी मेहनतकश अवाम के बीच के अंतरविरोधों को बढ़ाते चली जा रही है। इसी का नतीजा है कि आज हम एकध्रुवीय विश्व को दोध्रुवीय होते देख रहे हैं। 

आज साफ-साफ दिखने लगा है कि दुनिया में वित्तीय पूंजीखोरों के सबसे बड़े और वर्चस्वशाली अमेरिकी गुट के खिलाफ इसकी प्रतियोगी ताकतें मैदान में सीधे ताल ठोकने लगी है।

इसके खिलाफ चीन-रूस गठजोड़ अभी मजबूती से उभरा है और इसने दुनिया को नये सिरे में बांटने और अपना हिस्सा और भी बढ़ाने की कवायद शुरू कर दी है। यही कवायद आज के युद्ध की इस फैलती विभीषिका के रूप में सामने आ रही है।   

इस शिखर सम्मेलन को हमें आज अमरीकी और पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ एक विश्व ताकत के रूप में उभर रही चीन-रूस साम्राज्यवादी गठजोड़ द्वारा अपनी ताकत को और भी ध्रुवीकृत करने, और भी सुदृढ़ तथा और संगठित करने के एक महत्त्वपूर्ण प्रयास के रूप में देखना होगा। 

यह शिखर सम्मेलन और अभी इसके आयोजन की समूची कवायद यह दिखाती है कि अब दुनिया दोध्रुवीय हो चुकी है और यह सम्मलेन दूसरे ध्रुव की ताकतों को गोलबंद और संगठित करने के उद्देश्य से आयोजित हो रहा है। 

इसके पूर्व के प्रयासों को एक देखें तो यह चीज और भी सुस्पष्ट दिखती है। जैसे –

1. इन राष्ट्रों के समूह द्वारा विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के चंगुल से खुद को निकालने के लिए और उनके खिलाफ एक प्रतिद्वंदी वित्तीय संस्था के रूप में 2014 में न्यू डेवलपमेंट बैंक, जिसे ब्रिक्स बैंक भी कहा जाता है, का गठन।

2. ब्रिक्स द्वारा डिडॉलराईजेशन यानी, विश्व-मुद्रा के रूप में अमरीकी डॉलर को अपदस्थ करने के पहले से जारी प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए अपनी स्वतंत्र व समनांतर विश्व मुद्रा को सामने लाना और उसी में विश्व व्यापार को तरजीह देना। इसी क्रम में इसी शिखर सम्मेलन से संयुक्त रूप से ब्रिक्स की डिजिटल मुद्रा को सामने लाने की योजना है। 

3. ब्रिक्स की सदस्यता का विस्तार करते हुए अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ सभी संभवतम ताकतों को गोलबंद करना। इसके तहत इसी शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स की सदस्यता को पांच से बढ़ाकर दस किया जा रहा है।

इरान, मिस्र, इथोपिया, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को इस समूह में शामिल होने का अनुमोदन किया जाना है। वैसे सऊदी अरब को छोड़कर बाकी चारों की सदस्यता तो जनवरी 2024 में ही दे दी गयी थी। 

यह ध्रुवीकरण यहीं तक सीमित नहीं है। दिलचस्प तो यह देखना है कि 18 फरवरी 1952 से ही नाटो के सदस्य रहे तुर्की ने सितम्बर, 2024 में इस समूह में शामिल होने के लिए आवेदन दिया है और सिर्फ तुर्की ही क्यों, अब तो जो जानकारी आ रही है, दुनिया के और भी तकरीबन 30 देश इसमें शामिल होने की लाईन में लगे हैं। 

स्पष्ट है कि दुनिया फिर से शीतयुद्ध की चपेट में जा रही है और यह शीतयुद्ध पिछले शीतयुद्ध, यानी रूस-अमेरीका के बीच पिछली टकराहटों से ज्यादा ही गर्म और विध्वंसक होने जा रहा है। हमें बहुत ताज्जुब नहीं होगा यदि दुनिया को फिर एक नए विश्वव्यापी महायुद्ध का सामना करना पड़े। 

वैसे पूरी दुनिया में अमेरिका  के नेतृत्ववाली साम्राज्यवादी ताकतों के लूट और वर्चस्व के उपकरण के रूप में वर्ल्ड बैंक/अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, नाटो और जी7 जैसी संस्थाएं पहले से ही हैं। पर अब उनके खिलाफ और समानांतर न्यू डेवलपमेंट बैंक, एससीओ और ब्रिक्स जैसी विश्व संस्थाएं उभर रही हैं।

यह ध्रुवीकरण और एक-दूसरे के खिलाफ इनकी कवायदें आने वाले दिनों में दुनिया को किस तरह एक सर्वग्रासी, सर्वध्वंसक महायुद्ध की तरफ ले जाएंगी, इसका सही आकलन करने के लिए सरसरी तौर पर इन दोनों गठजोड़ों की तुलनात्मक शक्तियों पर एक निगाह डाली जा सकती है। 

आज की स्थिति में ब्रिक्स में जो नए सदस्य देश शामिल हो रहे हैं, उन्हें भी मिलाकर देखा जाए तो इस समूह का कुल (जीडीपी) सकल घरेलू उत्पाद 30.7 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगा। यह दुनिया के कुल जीडीपी का लगभग 29% होगा। जबकि जी7 के देशों का कुल जीडीपी अभी 45.9 ट्रिलियन डॉलर है।

यह दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 43% होता है। यहां गौरतलब है कि ब्रिक्स देशों की जीडीपी की वृद्धि दर जहां 4 प्रतिशत के करीब है, वहीं जी 7 के देशों की वृद्धि दर 1.7% को देखते हुए यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि 2030 तक आते-आते जीडीपी के क्षेत्र में ब्रिक्स देश, जी7 देशों को पछाड़ देंगे।

और परचेजिंग पॉवर पैरिटी के हिसाब से यदि जीडीपी को देखें तो ब्रिक्स देश अभी ही जी7 के देशों से आगे निकल गए हैं। जी7 के देश जहां इस आधार पर दुनिया की जीडीपी में 30% का योगदान करते हैं, वहीं ब्रिक्स देश 35%। इसके साथ-साथ कुछ और तथ्यों पर भी गौर कर सकते हैं। मसलन,

1. ब्रिक्स में शामिल देश दुनिया के कच्चे तेल के 47% का प्रतिनिधित्व करते हैं।

2. दुनिया की आधी आबादी इन्हीं देशों से आती है और अभी ही विश्व व्यापार में इनका हिस्सा 40% से ज्यादा हो गया है। 

3. ब्रिक्स के ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ और चीन के भी ‘एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट बैंक’ का विभिन्न क्षेत्रों में निवेश 71 बिलियन डॉलर तक पहुंचने वाला है और अकेले ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ का पूंजीकरण ही करीब 100 बिलियन डॉलर है। 

4. विश्व व्यापार, टेक्नोलॉजी, वित्त और यहां तक कि रक्षा के क्षेत्र में भी इनकी प्रगति, इन्हें अमरीकी साम्राज्यवादी खेमे के एक प्रबल प्रतिद्वन्दी के रूप में सामने ला रही है। जी7 के देशों ने 2023 में सैन्य मामलों पर 1.2 ट्रिलियन डॉलर की रकम खर्च की है, जो दुनिया में होने वाले सैन्य खर्चों का 51.6 % है, वहीं ब्रिक्स के देशों ने 2023 में सैन्य मामलों में 676.6  बिलियन डॉलर  खर्च किए हैं।

जो दुनिया की सैन्य खर्चों का 28 % है। पर ये देश भी तेजी से अपने सैन्य खर्च बढ़ा रहे हैं। उधर जी7 व नाटो के देश और भी युद्ध को उकसाते जा रहे हैं और अपने सैन्य खर्चों व सैन्य अर्थव्यवस्था के बोझ से दुहरे होते जा रहे हैं।

ऐसे में ज्यादा समय नहीं लगेगा जबकि ब्रिक्स, जी7 के देशों को और रूसी-चीनी सैन्य गठबंधन- एससीओ, नाटो को जबरदस्त टक्कर देने की स्थिति में पहुंच जाएगा, इसके संकेत अभी से ही दिखने लगे हैं। 

5. इस बैठक से पूरे विश्व व्यापार में डॉलर को चुनौती देने वाली डिडॉलराइजेशन की प्रक्रिया के भी तेज होने की उम्मीद है। इसी बीच वैश्विक भंडार में डॉलर का हिस्सा 70% से गिरकर आज 59% रह गया है। 

उपरोक्त तथ्यों के अलावा भी यदि गहराई में जाकर देखें तो साफ दिखेगा कि ब्रिक्स के इस 16वें शिखर सम्मेलन के बाद दुनिया और भी तेजी से दो खेमों में बंटती चली जाएगी। ये खेमे और भी ज्यादा गलाकाट प्रतियोगिता में फंसते चले जाएंगे और दुनिया की लूट-खसोट एवं अपने वर्चस्व के लिए लगातार स्थानीय युद्धों में लिप्त होते चले जाएंगे।

धीरे-धीरे इन युद्धों का दायरा बढ़ेगा, इनकी तीव्रता और व्यापकता भी बढ़ेगी। यह भी साफ है कि इन युद्धों के खर्चों का ज्यादातर बोझ पिछड़े और गरीब मुल्कों और उनकी जनता पर पड़ेगा। हालांकि विकसित देशों की मेहतनतकश अवाम भी इस युद्ध संकट की तबाही का शिकार बनेगी।

जैसे-जैसे युद्ध बढ़ेगा, तानाशाहियां बढ़ेंगी, फासिज्म बढ़ेगा, जनवाद का हनन बढ़ेगा, साथ ही बढ़ेंगे तबाही, भूखमरी और चौमुखी संकट। इस सबके नतीजे के बतौर पूरी दुनिया में युद्ध के खिलाफ शांति के लिए, तानाशाही और फासिज्म व खिलाफ जनवाद के लिए और जीविका के संसाधनों की लूट-खसोट और तबाही व बर्बादी के विरूद्ध रोटी और जीविका के लिए जनआंदोलन भी बढ़ेगा। स्थानीय जन उभारों का सिलसिला भी तेज होगा। 

साम्राज्यवादी खेमे के बीच के अन्तरविरोधों का बढ़ते-बढ़ते युद्ध का रूप ले लेने की वजह से साम्राज्यवाद-पूंजीवाद और देश-दुनिया में फैले उनके नेटवर्क के खिलाफ समवेत और संयुक्त संघर्ष की स्थितियां भी आएंगी।

इन अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर परिवर्तनकामी ताकतों के लिए अपनी शक्ति को संचित व कदम-ब-कदम सुदृढ़ बनाते जाने के मामले में परिस्थितियां आज के मुकाबले कुछ ज्यादा अनुकूल भी होंगी। 

आज एक बार फिर इन साम्राज्यवादी लुटेरे युद्धों के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्षों के निर्माण और विकास की चुनौतियां प्रत्यक्ष रूप में सामने आ हाजिर हुई हैं। ऐसे में तय है कि जनवाद, स्वतंत्रता व समाजवाद के लिए संघर्षरत परिवर्तनकामी ताकतें अवश्य ही इस चुनौती को स्वीकार करेंगी और इसके मद्देनजर अपनी चौतरफा तैयारियों को आगे बढ़ाएंगी।

(बच्चा प्रसाद सिंह लेखक और एक्टिविस्ट हैं। और आजकल बनारस में रहते हैं।)                                                                                                                          

                                                                                                                        

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