साप्ताहिकी: बुलेट के बजाय जब बुलेटिन को दी भगत सिंह ने तरजीह

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(हासिल करने के सत्तर साल बाद आज जब आज़ादी ख़तरे में है और देश की सत्ता में बैठी एक हुकूमत उसके सभी मूल्यों को ही ख़त्म करने पर आमादा है। ऐसे में आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाली शख़्सियतें एक बार फिर बेहद प्रासंगिक हो जाती हैं। इस कड़ी में शहीद-ए-आजम भगत सिंह का नाम उन चंद लोगों में शुमार हैं जो न केवल अपने दौर में लोगों के आकर्षण के केंद्र थे बल्कि आज भी लोगों की जेहनियत में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए हैं। देश और दुनिया में अभी तक भगत सिंह को आज़ादी के एक रोमांटिक नायक के तौर पर देखा और जाना जाता रहा है। लेकिन पिछले दिनों उनसे जुड़ी तमाम जानकारियों, लेख और चिंतन के सामने आने के बाद से लोगों की धारणा में गुणात्मक बदलाव आया है। जिसमें यह बात बिल्कुल स्पष्ट होकर सामने आयी है कि भगत सिंह न केवल साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ थे बल्कि आज़ादी मिलने के बाद देश और समाज का क्या ढाँचा और रूप होगा उसको लेकर उनके पास एक सुसंगत विचार था।

समाज में दलितों और महिलाओं की स्थिति से लेकर पत्रकारिता, सांप्रदायिकता जैसे हर महत्वपूर्ण विषय पर उनकी एक स्पष्ट राय थी। और इन सब चीजों को उन्होंने बाक़ायदा कलमबद्ध किया था। कल 23 मार्च भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत दिवस है। ऐसे में जनचौक ने अगले पूरे सप्ताह को ‘शहादत सप्ताह’ के तौर पर मनाने का फ़ैसला किया है। इस दौरान भगत सिंह और उनके विचारों से जुड़े तमाम लेख दिए जाएंगे। शहादत सप्ताह का समापन 31 मार्च को जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की शहादत दिवस के मौक़े पर होगा। आप को बता दें कि चंद्रशेखर ने भगत सिंह के ही बताए रास्ते पर चलते हुए अपनी जान क़ुर्बान कर दी थी। वह मौजूदा युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत के तौर पर उभरे हैं। इसकी शुरुआत शहादत दिवस की पूर्व संध्या पर वरिष्ठ पत्रकार चंद्रप्रकाश झा के एक लेख से करते हैं-संपादक)

23 मार्च 1931 को भगत सिंह अपने साथी सुखदेव और राजगुरु के साथ फाँसी पर चढ़ गए। ये तीनों भारत में ब्रिटिश राज के दौरान , ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ संगठन में शामिल थे। ब्रिटिश हुक्मरानी की दासता के खिलाफ अवामी संघर्ष में शहीद हुए भगत सिंह (1907 -1931) को अविभाजित भारत के एक प्रमुख सूबा, पंजाब की राजधानी लाहौर की जेल में फांसी पर चढ़ाया गया था।  उन्होंने लाहौर में ही अपने सहयोगी, शिवराम राजगुरू के संग मिलकर ब्रिटिश पुलिस अफसर, जॉन सैंडर्स को यह सोच गोलियों से भून दिया था कि वही ब्रिटिश पुलिस अधीक्षक, जेम्स स्कॉट है जिसके आदेश पर लाठी चार्ज में घायल होने के उपरान्त लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी। इन क्रांतिकारियों ने पोस्टर लगा कर खुली घोषणा की थी कि उन्होंने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया है ।

भगत सिंह के हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल और चर्चित  ” लाहौर कांस्पिरेसी केस -2″  में  अंडमान निकोबार द्वीप समूह के सेलुलर जेल में ‘ कालापानी ‘ की सज़ा भुगत कर जीवित बचे अंतिम स्वतन्त्रता संग्रामी शिव वर्मा (1904-1997) ने अपने निधन से एक वर्ष  पूर्व लख़नऊ में 9 मार्च 1996 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल  मोतीलाल वोरा की उपस्थिति में  ‘यूनाइटेड न्यूज ऑफ़ इण्डिया एम्प्लॉयीज फेडरेशन ‘ के सातवें राष्ट्रीय सम्मलेन के लिखित उद्घाटन सम्बोधन में  यह खुलासा किया था कि उनके संगठन ने आज़ादी की लड़ाई के नए दौर में ‘बुलेट के बजाय बुलेटिन’ का इस्तेमाल करने का निर्णय किया था।

इसी निर्णय के तहत भगत सिंह को 1929 में दिल्ली की सेंट्रल असेंबली की दर्शक दीर्घा से बम-पर्चे फेंकने के बाद नारे लगाकर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया था।  यह कदम इसलिए लिया गया था कि भगत सिंह के कोर्ट-ट्रायल से स्वतन्त्रता संग्राम के उद्देश्यों की जानकारी पूरी दुनिया को मिल सके। ये क्रांतिकारी , भारत को सिर्फ़ आज़ाद नहीं कराना चाहते थे बल्कि एक शोषण मुक्त-समाजवादी -समाज भी कायम करना चाहते थे। भगत सिंह इस क्रांतिकारी स्वतन्त्रता संग्राम के वैचारिक नेता थे।

कामरेड शिव वर्मा  के अनुसार भगत सिंह ने कहा था कि “फांसी पर चढ़ना आसान है। संगठन बनाना और चलाना बेहद  मुश्किल  है।” उक्त सम्मलेन में वह खुद आये थे लेकिन उनकी अस्वस्थता के कारण उनका लिखित उद्बोधन सम्मेलन के  आयोजक फेडरेशन के महासचिव को पढ़ने का निर्देश दिया गया था।  कामरेड शिव वर्मा के शब्द थे , ” हमारे क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम के  समय  हमें, अपने विचार और उद्देश्य आम जनता तक पहुंचाने के लिए मीडिया के समर्थन का अभाव प्रतीत हुआ था। शहीदे आजम  भगत सिंह को इसी अभाव के तहत आत्मसमर्पण कराने का निर्णय लिया गया था जिससे कि हमारे विचार एवं उद्देश्य आम लोगों तक पहुंच सकें।

15 अगस्त 1947 को हमें विदेशी शासकों से स्वतन्त्रता तो मिल गयी। किन्तु आज भी वैचारिक स्वतंत्रता नहीं मिल सकी है। क्योंकि हमारे अख़बार तथा मीडिया पर चंद पूंजीवादी घरानों का एकाधिकार है। अब समय आ गया जबकि हमारे तरुण पत्रकारों को इसकी आज़ादी के लिए मुहिम छेड़ कर वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त करनी होगी। क्योंकि आज के युग में मीडिया ही कारगर शस्त्र है। किसी पत्रकार ने लिखा था कि सोवियत रूस में बोल्शेविकों ने बुलेट का कम तथा बुलेटिन का प्रयोग अधिक किया था। हमारे भारतीय क्रांतिकारियों ने भी भगत सिंह के बाद अपनी अपनी आजादी की लड़ाई में बुलेट का प्रयोग कम करके बुलेटिन का प्रयोग बढ़ा दिया था।

अब हमें जो लड़ाई लड़नी है वह शारीरिक न होकर वैचारिक होगी जिसमें हमें मीडिया रूपी ब्रह्मास्त्र क़ी आवश्यकता होगी। विचारों क़ी स्वतंत्रता के लिए  तथ्यात्मक समाचार आम जनता तक पहुंचाने का दायित्व अवामी  संगठनों  पर है। अखबारों को पूंजीवादी घराने से मुक्त करा कर जनवादी बनाया जाये। जिससे वह आर्थिक बंधनों से मुक्त होकर जनता के प्रति अपनी वफादारी निभा सके। मैं नयी पीढ़ी को वैचारिक स्वतंत्रता लाने के लिए प्रेरित करते हुए स्वतंत्रता-संग्राम पीढ़ी की ओर से शुभकामनाएं देते हुए विश्वास  करता हूं कि हमारे तरुण पत्रकार अपना दायित्व निर्वाह करने में निश्चय ही सफल होंगे। ”  

उन्होंने बाद में यह भी कहा था कि मौजूदा हालात में हम देख रहे हैं कि संगठन तो बहुत हैं, सुसंगठित कम ही हैं। समय की कसौटी पर खरी उतरी बात यह है कि बिना सांगठनिक हस्तक्षेप कोई व्यक्ति कुछ ख़ास नहीं कर सकता है। संगठन जितने भी बने अच्छा है। लेकिन वे सुसंगठित हों और सभी समविचारी संगठनों के बीच कार्यशील सामंजस्य कायम हो सके तो और भी बेहतर होगा। 

गौरतलब है कि हाल में लम्पट पूंजीवाद के घोटाले बाजों का शिकार हुआ पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) अविभाजित भारत का सर्वप्रथम स्वदेशी बैंक है जिसकी स्थापना स्वतंत्रता सेनानी, लाला लाजपत राय (1865 -1928) की पहल पर वर्ष 1895 में लाहौर के ही अनारकली बाज़ार में की गई थी। उन दिनों  लाहौर, एशिया महादेश का प्रमुख शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक और वाणिज्यिक केंद्र भी था।

इस बीच प्रामाणिक दस्तावेजों के हवाले से खबरें मिली हैं कि शहीदे-आज़म और स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक, लेनिन के बड़े कायल थे। ट्रिब्यून (लाहौर ) के 26 जनवरी 1930 अंक में प्रकाशित एक दस्तावेज के अनुसार 24 जनवरी, 1930 को लेनिन-दिवस के अवसर पर ” लाहौर षड्यन्त्र केस ” के विचाराधीन क़ैदी के रूप में भगत सिंह अपनी गरदन में लाल रूमाल बांधकर अदालत आये। वे काकोरी-गीत गा रहे थे। मजिस्ट्रेट के आने पर उन्होंने समाजवादी क्रान्ति–ज़िन्दाबाद ’ और ‘साम्राज्यवाद – मुर्दाबाद ’ के नारे लगाये।

फिर भगत सिंह ने निम्नलिखित तार तीसरे इण्टरनेशनल (मास्को) के अध्यक्ष के नाम प्रेषित करने के लिए मजिस्ट्रेट को दिया। तार था “ लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं। मज़दूर-राज की जीत हो। सरमायादारी का नाश हो। साम्राज्यवाद – मुर्दाबाद!!”  विचाराधीन क़ैदी,  24 जनवरी, 1930 , लाहौर षड्यन्त्र केस।

जब 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल की काल कोठरी में जेलर ने आवाज लगाई कि भगत फांसी का समय हो गया है, चलना पड़ेगा  तो जो हुआ वह इतिहास है। काल कोठरी के अंदर से 23 वर्ष के भगत सिंह ने जोर से कहा, ” रुको। एक क्रांतिकारी, दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।” दरअसल वह कामरेड लेनिन की एक किताब पढ़ रहे थे।

(चंद्रप्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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