जब कर्ज़ लेने और देने वाले, दोनों भयभीत हों तो कोरोना पैकेज़ से क्या होगा?

Estimated read time 2 min read

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘आत्मनिर्भर बनो’ वाले 12 मई के नारे के बाद वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने पाँच दिनों तक देश के आगे ‘आओ, कर्ज़ा लो’ वाली नारेबाज़ी की। दोनों नारों के प्रति जब उद्यमियों में कोई उत्साह नहीं दिखा तो 22 मई को वित्तमंत्री ने सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के CEOs और MDs को स्पष्ट निर्देश दिये कि कोरोना पैकेज़ में जिन सेक्टरों के लिए सरकार ने सौ फ़ीसदी वाली गारंटी दी है, उसे लेकर बैंकों को किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें तो बस धड़ल्ले से कर्ज़ बाँटते जाना है। 

बैंकों को हिदायतें देने के अगले दिन वित्तमंत्री ने इसके प्रचार की ठानी। चटपट एक ऑनलाइन वीडियो इंटरव्यू को बीजेपी के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर करने की रणनीति बनी। इसमें वित्तमंत्री ने बैंकों में बैठे डर को ख़त्म करने के बाबत साफ़ किया कि ‘यदि लोन देने का फ़ैसला आगे चलकर ग़लत साबित हुआ और इससे बैंकों को नुकसान हुआ, तो इस नुक़सान की भरपाई सरकार करेगी। किसी भी बैंक अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया जाएगा। इसीलिए वो निडर होकर योग्य ग्राहकों को ‘अतिरिक्त टर्म लोन या अतिरिक्त वर्किंग कैपिटल लोन’ जिसके लिए भी वो सुपात्र हों, उन्हें लोन देते जाएँ।’

दरअसल, बैंकों की दो बड़ी दिक्कतें हैं। पहला, कर्ज़ लेने वाले उत्साह नहीं दिखा रहे और दूसरा, यदि अनाप-शनाप ढंग से कर्ज़ बाँटा गया तो थोड़े समय बाद केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (CBI), केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CVC) और भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) जैसी संस्थाएँ उनका जीना हराम कर देंगी। बैंक ऐसे ‘दबंग सरकारी लठैतों’ से डरे हुए हैं। ये भय नया नहीं है। वित्तमंत्री ने एक बार फिर से बैंकों के डर की पुष्टि की है। वो बताती हैं कि “बीते 7-8 महीने के दौरान मैंने ख़ुद भयभीत बैंक अफ़सरों से कहा कि वो ‘3-Cs’ यानी CBI, CVC और CAG से बेख़ौफ़ होकर ‘योग्य ग्राहकों’ को स्वचालित ढंग से कर्ज़ बाँटते जाएँ।”

जिस उत्साह से ‘आओ, कर्ज़ा लो’ वाले कोरोना पैकेज़ का ऐलान हुआ था, वैसा उत्साह जब ग्राहकों में ही नहीं उमड़ा तो बैंकों में कहाँ से नज़र आएगा? याद रहे कि 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज़ में लघु, छोटे और मझोले उद्यमियों (MSME) के लिए 3 लाख करोड़ रुपये की इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम (ECLGS) शामिल है। इस स्कीम में यदि किसी कम्पनी ने बैंक से एक निश्चित सीमा तक कर्ज़ लिया है, या उसमें एक निश्चित सीमा तक निवेश हुआ है, या उसका एक निश्चित टर्नओवर है, तो लॉकडाउन के बाद अपने कारोबार को फिर से चालू ऐसी कम्पनियाँ ‘अतिरिक्त टर्म लोन’ या ‘वर्किंग कैपिटल’ ले सकते हैं।

बैंक जानते हैं कि सरकार जैसी कम्पनियों को जिस ढंग से कर्ज़ बाँटने को कह रही है, उससे उनका NPA (डूबा कर्ज़) संकट और गहराने वाला है। क्योंकि सरकार सिर्फ़ मौजूदा पैकेज़ वाले फंड को लेकर ही तो गारंटी दे रही है। जबकि बैंक अपने पुराने कर्ज़ों को लेकर मातम मना रहे हैं। इसकी सीधी वजह है कि NPA बढ़ने से बैंकों की साख गिरती है। सरकारें आम जनता के टैक्स के पैसों से बैंकों के नुक़सान की भरपाई देर-सबेर करती ही रही हैं। लेकिन अपनी गिरी हुई साख को सँवारने में बैंकों को बहुत वक़्त लगता है और बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। बैंक इसलिए भी डरते हैं कि सरकारें जब NPA बढ़ाने वाले कर्ज़ों की योजनाएँ बनाती हैं, तब इनका नारियल बैंकों के अफ़सरों के सिर पर ही फोड़ा जाता है।

इसी प्रसंग में ये समझना ज़रूरी है कि 21 लाख करोड़ रुपये के कोरोना पैकेज़ में 19 लाख करोड़ रुपये की ऐसी पेशकश हैं जिन्हें विशुद्ध रूप से कर्ज़ की योजनाएँ ही कहा जाएगा। अभी सरकार ने सिर्फ़ कर्ज़ के लिए फंड बनाये हैं। इन्हें आकर्षक बनाने के लिए ब्याज़ दरों में कोई ख़ास रियायत नहीं दी है। इसीलिए, उद्यमियों की ओर से कर्ज़ लेकर अर्थव्यवस्था में नयी जान फूँकने की कोशिशों में भारी ढीलापन नज़र आ रहा है। लॉकडाउन अब भी जारी है। मज़दूर पलायन कर रहे हैं। माँग-पक्ष बेहद कमज़ोर है। समाज के हरेक तबके की आमदनी में भारी गिरावट आयी है। नौकरियों में हुई छँटनी और बेहिसाब बेरोज़गारी ‘कोढ़ में खाज़ का काम’ कर रही है। 

इन सभी परिस्थितियों के बीच बहुत गहरा आन्तरिक सम्बन्ध है। इसीलिए कर्ज़ लेकर अपनी गाड़ी को पटरी पर लाने वाली मनोदशा कमज़ोर पड़ी हुई है। इसीलिए भले ही बैंक निडर होकर कर्ज़ बाँटने की तैयारी करें लेकिन मन्दी के दौर में कर्ज़दार भी कहाँ मिलते हैं? कोरोना से पहले तीन साल लगातार गहराती जा रही मन्दी के दौर में भी बैंक कर्ज़दारों के लिए तरस रहे थे। दरअसल, कर्ज़ लेकर उसे चुकाने वाली कमाई भी तभी हो पाती है जबकि अर्थव्यवस्था में जान हो, इसकी विकास दर ऊँची हो। माँग में तेज़ी हो। लेकिन अभी तेज़ी तो बहुत दूर की कौड़ी है। फ़िलहाल तो सब सफ़ाचट है। अर्थव्यवस्था डूब चुकी है। इसीलिए, ‘आत्मनिर्भर भारत’ तो छोड़िए, ‘आओ, कर्ज़ा ले लो’ वाले नारे के साकार होने में भी भारी सन्देह है।

दूसरी ओर, देश के संवैधानिक, क़ानूनी और सरकारी ढाँचे के जानकार बख़ूबी जानते हैं कि CBI, CVC और CAG जैसी शीर्ष संस्थाएँ मुद्दतों से केन्द्र सरकार की कठपुतली बनी हुई हैं। इनकी निष्पक्षता और स्वायत्तता ‘हाथी के दिखाने वाले दाँतों’ की तरह ही रही हैं। सरकारी दबंगों की इस बिरादरी में ही पुलिस, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय (IT & ED) का नाम भी शुमार रहा है। इसीलिए वित्तमंत्री अच्छी तरह से जानती हैं कि बैंक अधिकारी ‘तेज़ी से सही फ़ैसले’ इसलिए नहीं ले पाते क्योंकि उन्हें CBI, CVC और CAG का ख़ौफ़ सताता रहता है। ज़रा सी चूक हुई नहीं कि ये तीनों संस्थाएँ उन्हें धर दबोचेंगी।

वित्तमंत्री ये तो कह नहीं सकतीं कि बैंकों के अफ़सर नाहक डरते हैं। आख़िर, बैंकों के अफ़सर भी तो दिन-रात इन तीनों संस्थाओं का रवैया और तेवर देखते ही रहे होंगे। उनकी भी कुछ आपबीती होगी, कुछ निजी तज़ुर्बा ज़रूर रहा होगा। वर्ना, ‘पक्की’ नौकरी कर रहे बैंकों के अफ़सर लोन बाँटने से भला क्यों डरते? वो इतने नादान भी नहीं हो सकते कि रस्सी को साँप समझ लें। लोन बाँटना उनका पेशेवर काम है। कर्तव्य है। इसे वो सालों-साल से करते आये हैं। इसके बावजूद यदि उनमें कोई डर समा गया है तो फिर इसकी कोई न कोई ठोस वजह ज़रूर होगी।

निर्मला सीतारमन बैंकिंग सेक्टर की अन्दर की बातों से वाफ़िक हैं। तभी तो उन्होंने सफ़ाई दी कि वित्त मंत्रालय ने अपनी कई ऐसी अधिसूचनाओं को वापस ले लिया है जिसकी वजह से बैंक अधिकारियों में CBI, CVC और CAG का डर बैठ गया था। ज़ाहिर है, बैंक के अफ़सरों का डर पूरी तरह से वाजिब था। वर्ना, सरकार अपनी ही अधिसूचनाओं को वापस क्यों लेती? मोदी सरकार न तो आसानी से क़दम पीछे खींचती है और ना ही ग़लतियाँ मानकर उन्हें सुधारने की कोशिश करती है। इसीलिए, यदि हालात सचमुच बेहद डरावने नहीं होते तो क्या बीते 7-8 महीनों के दौरान बैंकों के मन से डर निकल नहीं गया होता? सोचिए, जब इतनी ‘शक्ति सम्पन्न’ वित्तमंत्री ख़ुद अपने बैंक अफ़सरों के मन से डरावने ख़्याल नहीं निकाल पायीं तो समस्या कितनी गम्भीर होगी। 

कोरोना पैकेज़ की पूरी क़वायद का स्याह पहलू ये भी है कि बैंकों के कर्ज़ों पर वसूला जाने वाला ब्याज़ दर क़तई रियायती नहीं है। कुछेक योजनाओं के मामले में कर्ज़ की किस्तें फ़ौरन चालू नहीं होंगी। लेकिन चरमरा चुकी अर्थव्यवस्था में जब आमदनी औंधे मुँह गिरी पड़ी हो तब 9 से 12 प्रतिशत वाली ऊँची ब्याज़ दरों पर बैंकों से पैसा उठाना और फिर इसकी किस्तें भरना आसान नहीं हो सकता। इसके बावजूद वित्तमंत्री ख़ुशफ़हमी में हैं कि “पहली जून से बिना किसी कोलैटरल (यानी गिरवी या गारंटी) वाली नगदी का बैंकों से प्रवाह शुरू हो जाएगा।” बहरहाल, कर्ज़ के प्रवाह से जल्द ही पता चल जाएगा कि वास्तव में ज़मीनी स्तर पर बैंकों के अफ़सर कितना निडर हो पाये और कर्ज़दारों में सरकार नहीं बल्कि हालात कितना हौसला बढ़ा सका!

(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। तीन दशक लम्बे पेशेवर अनुभव के दौरान इन्होंने दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर और मुम्बई स्थित न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। अभी दिल्ली में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author