Friday, March 29, 2024
No menu items!
More

    जयंती पर विशेष: जब अमेरिकी पैटन टैंकों पर भारी पड़ी अब्दुल हमीद की गन माउंटेड जीप

    वीर अब्दुल हमीद का नाम लेते ही आज भी  भारतवासियों का सीना गर्व से ऊंचा हो जाता है। उनकी वीरता की कहानियां लोगों की ज़ुबान पर आ जाती हैं। कम्पनी क्वार्टर मास्टर हवलदार शहीद 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपनी अद्भुत साहस और वीरता का परिचय दिया। वे दुश्मनों के कई शक्तिशाली अमेरिकन पैटन टैंकों को धवस्त  कर दुश्मनों को मुहतोड़ जवाब देते हुए वीर गति को प्राप्त हो गए।

    अब्दुल हमीद भारतीय सेना के अलहदा ऐसे सिपाही थे, जिनको अपने सेवा काल में सैन्य सेवा मेडल, समर सेवा मेडल, रक्षा मेडल 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में असाधारण बहादुरी के लिए महावीर चक्र और परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

    अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई, 1933 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले में स्थित धामूपुर नाम के छोटे से  गांव में एक ऐसे परिवार में हुआ, जो आर्थिक रुप से ज्यादा मजबूत नहीं था। हालांकि उनके पिता सेना में लॉन्स नायक पद पर तैनात थे बावजूद इसके उनकी माता को परिवार की आजीविका चलाने के लिए  सिलाई करनी पड़ती थी ताकि परिवार का पालन-पोषण हो सके। मां अब्दुल हमीद के भविष्य के लिए चिंतित रहती थीं इसलिए चाहती थीं कि वह सिलाई का काम सीख लें। लेकिन अब्दुल हमीद का दिल इस सिलाई के काम में बिल्कुल नहीं लगता था, उनका मन तो बस कुश्ती दंगल के दांव पेंचों में ही लगता था।

    क्योंकि पहलवानी उनके खून में थी जो विरासत के रूप में उनको मिली। उनके पिता और नाना दोनों ही पहलवान थे। उनके सिर पर कुश्ती का भूत सवार था। कुश्ती को लेकर उनकी दीवानगी कुछ ऐसी थी कि जब पूरा गांव सोता था, तो वह कुश्ती के हुनर सीखते थे। उनकी कद-काठी भी पेशेवर पहलवानों जैसी ही थी। इसके अलावा लाठी चलाना, बाढ़ में नदी को तैर कर पार करना, सोते समय फौज और जंग के सपने देखना तथा अपनी गुलेल से पक्का निशाना लगाना भी उनकी खूबियों में शामिल था। अब्दुल हमीद थोड़े बड़े हुए तो उनका दाखिला गांव के एक स्कूल में कराया गया। वह सिर्फ चौथी कक्षा तक ही स्कूल गये।

    अब्दुल हमीद का व्यवहार गांव के लोगों के लिए बहुत विनम्र था। वह अक्सर लोगों की मदद करते रहते थे। इसी कड़ी में एक दिन कुछ यूं हुआ कि वह गांव के एक चबूतरे पर बैठे थे, तभी गांव का एक युवक दौड़ते हुए उनके पास आया। उसकी सांसें फूल रही थीं। जैसे-तैसे उसने हमीद को बताया कि जमींदारों के दबंग लगभग 50 की संख्या में जबरदस्ती उसकी फसल काटने की कोशिश कर रहे हैं। युवक को परेशानी में देखकर हमीद आग बबूला हो गए। उन्होंने न आव देखा न ताव और तेजी से खेतों की तरफ दौड़ पड़े। उन्होंने दबंगों को ललकारते हुए कहा, अपनी ख़ैर चाहते हो तो भाग जाओ। शुरुआत में तो दंबगों ने सोचा कि एक अकेला व्यक्ति हमारा क्या कर लेगा। पर जब उन्होंने हमीद के रौद्र रुप को देखा तो वह अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर हो गये।

    अब्दुल हमीद का  धरमापुर गांव मगई नदी के किनारे बसा हुआ था। इस कारण अक्सर बाढ़ का खतरा बना रहता था। एक बार इस नदी का पानी अचानक बढ़ गया। पानी का बहाव इतना ज्यादा था कि नदी को पार करते समय नजदीक के गांव की दो महिलाएं उसमें डूबने लगीं। लोग चींखने लगे। डूबने वाली महिलाएं बचाओ-बचाओ कह कर मदद के लिए लोगों को बुला रहीं थीं,  मगर अफसोस लोग तमाशबीन बने देख रहे थे, लेकिन मदद के लिए कोई आगे न बढ़ सका। तभी अब्दुल हमीद का वहां से गुज़रना हुआ। भीड़ देखकर वह नदी के किनारे पर पहुंचे तो उनसे महिलाओं को डूबते हुए न देखा गया। उन्होंने झट से बिना कुछ  सोचे-समझे नदी में छलांग लगा दी। जल्द ही वह महिलाओं को नदी से निकालने में कामयाब  हो गए। हमीद के इस कारनामे ने उन्हें देखते-ही-देखते सभी का दुलारा बना दिया।

    अब्दुल हमीद की पत्नी को उनके घर पर जाकर सम्मानित करते तत्कालीन सेनाध्यक्ष।

    धीरे धीरे उनकी उम्र बढ़ती गयी और वो 21 साल के हो गए। वह अपने जीवन यापन के लिए रेलवे में भर्ती होने  के लिए गए। लेकिन उनका मन तो बस देश-प्रेम के प्रति लगा था, वह सेना में भर्ती हो  कर  सच्चे मन से देश की सेवा करना चाहते थे। आख़िरकार उनका  सपना पूरा हुआ जब सन 1954 में सेना में भर्ती  हो गये और वहां अपना कार्यभार संभाला।

    1962 में चीन का हमला भारत पर हुआ तब अब्दुल हमीद को मौका  मिला अपने  देश के लिए कुछ कर दिखाने का। उस युद्ध में भारतीय सेना का एक जत्था चीनी सैनिकों के घेरे में आ गया जिसमें हमीद भी थे। यह उनकी परीक्षा की घड़ी थी। वह लगातार मौत को चकमा देकर मुकाबले के लिए मोर्चे पर डंटे रहे,  लेकिन उनका  शरीर लगातार खून से भीगता जा रहा था, उनके साथी एक-एक कर के कम होते जा रहे थे, लेकिन इसके विपरीत अब्दुल हमीद की मशीन गन दुशमनों पर मौत के गोले बरसा रही थी, लेकिन एक समय आया जब धीरे-धीरे  उनके पास उपलब्ध गोले और गोलियां ख़त्म हो गए।  अब हमीद करें तो क्या करें  जैसी स्थिति में आ गए। और खाली हो चुकी मशीन गन  दुश्मनों के हाथ ना लगे इसलिए अपनी मशीनगन को तोड़ डाला और अपनी वीरता के साथ समझदारी दिखाते हुए बर्फ से घिरी पहाड़ियों से रेंगते हुए वहां से निकल पड़े। 

    चीन के युद्ध में वीरता और समझदारी का परिचय देने वाले  जवान अब्दुल हमीद को 12 मार्च 1962 में सेना ने  ‘लॉसनायक अब्दुल हमीद’ बना दिया। वो इसी तरह अपनी बहादुरी का परिचय देते रहे और दो से तीन वर्षों  के अन्दर हमीद को नायक हवलदारी और कम्पनी क्वार्टर मास्टरी भी प्राप्त हो गयी। 

    8 सितम्बर,1965 की रात के समय पाकिस्तान ने भारत पर हमला बोल दिया और दोनों देशों के बीच जंग शुरू हो गयी तब एक बार फिर अब्दुल हमीद को अपनी जन्म भूमि के लिए कुछ करने का मौका मिल गया।

    इस मोर्चे पर जाने से पहले अब्दुल हमीद ने अपने भाई के नाम एक ख़त लिखा और उस ख़त में उन्होंने लिखा कि,  ‘पल्टन में उनकी बहुत इज़्ज़त होती है जिनके पास कोई चक्र होता है। देखना झुन्नन हम जंग में लड़कर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर लौटेंगे.. ‘

    अब्दुल हमीद पंजाब के तरन तारन जिले के खेमकरण सेक्टर पहुंचे जहां युद्ध हो रहा था। पकिस्तान के पास उस समय सबसे घातक  हथियार के रूप में  “अमेरिकन पैटन टैंक”  थे जिसे लोहे का शैतान भी कहा जा सकता है और इन पैटन टैंकों पर पकिस्तान को बहुत नाज था। पाकिस्तान ने उन्हीं टैंकों के साथ “असल उताड़” गाँव पर ताबड़ तोड़ हमला कर दिया।

    उधर, पकिस्तान के पास अमेरिकन पैटन टैंकों का ज़खीरा था  इधर भारतीय सैनिकों के पास उन तोपों से मुकाबला करने के लिए कोई बड़े हथियार ना थे। था तो बस भारत माता की दुश्मनों से रक्षा करते हुए रणभूमि में शहीद हो जाने का हौसला और हथियार के नाम पर  साधारण “थ्री नॉट थ्री रायफल” और एलएमजी। इन्हीं हथियारों के साथ हमारे सभी वीर सैनिक दुश्मनों के छक्के छुड़ाने लगे।

    इधर वीर अब्दुल हमीद के पास अमेरिकन पैटन टैंकों के सामने खिलौने सी लगने वाली “गन माउंटेड जीप” थी। पर दुश्मनों को यह नहीं पता था उस पर सवार वीर नहीं परमवीर अब्दुल हमीद हैं। जिनका निशाना महाभारत के अर्जुन की तरह हैं। 

    जीप पर सवार दुश्मनों से मुकाबला करते हुए हमीद पैटन टैंकों के उन कमजोर हिस्सों पर अपनी बंदूक से इतना सटीक निशाना लगाते थे जिससे लौह रूपी दैत्य धवस्त हो जाता। अब्दुल हमीद ने अपनी बंदूक से एक-एक कर टैंकों को नष्ट करना शुरू कर दिया। उनका यह पराक्रम देख दुश्मन भी चकित से रह गए।  जिन टैंकों पर पकिस्तान को बहुत नाज़ था। वह साधारण सी बंदूक से  धवस्त हो रहे थे। अब्दुल हमीद को देख भारतीय सैनिकों में और जोश बढ़ गया और वो पाकिस्तानी सेना को खदेड़ने में लग गए। अब्दुल हमीद ने एक के बाद एक कर सात पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया ।

    असल उताड़ गाँव पाकिस्तानी टैंकों की कब्रगाह में बदलता चला गया। पाकिस्तानी सैनिक अपनी जान बचा कर भागने लगे लेकिन वीर हमीद मौत बन कर उनके पीछे लगे थे, और भागते हुए सैनिकों का पीछा जीप से करते हुए उन्हें मौत की नींद सुला रहे थे, तभी अचानक एक गोला हमीद के जीप पर आ गिरा जिससे वह बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए। और 9 सितम्बर, 1965 को  देश का यह जांबाज़ सिपाही वीरता और अदम्य साहस से अपने देश की आन, बान और शान की ख़ातिर दुश्मनों से लड़ते हुए हम सब को छोड़ वीरगति को प्राप्त हो गया। इसकी अधिकारिक घोषणा 10 सितम्बर, 1965 को की गई। 

    इस युद्ध में वीरता पूर्वक अद्भुत पराक्रम का परिचय देने वाले वीर अब्दुल हमीद को पहले ‘महावीर चक्र’ और फिर सेना के सर्वोच्च सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से अलंकृत किया गया।

    उसके बाद भारतीय डाक विभाग ने 28 जनवरी, 2000 को वीर अब्दुल हमीद के सम्मान में पांच डाक टिकटों के सेट में 3 रुपये का एक सचित्र डाक टिकट जारी किया, इस डाक टिकट पर  रिकाईललेस राइफल से गोली चलाते हुए जीप पर सवार वीर अब्दुल हमीद का एक रेखा चित्र बना हुआ है। शहीद वीर अब्दुल हमीद की स्मृति में उनकी क़ब्र पर एक समाधि का निर्माण किया गया। हर साल उनकी शहादत पर उनकी समाधि पर एक विशेष मेले का आयोजन किया जाता है।

    “शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।

    वतन पर मिटने वालों का ये ही बाक़ी निशाँ होगा”।।

    (शाहीन अंसारी सेन्टर फ़ॉर हार्मोनी एंड पीस की निदेशक हैं।)

    जनचौक से जुड़े

    0 0 votes
    Article Rating
    Subscribe
    Notify of
    guest
    0 Comments
    Inline Feedbacks
    View all comments

    Latest Updates

    Latest

    Related Articles