Friday, March 29, 2024

तारे कब उतरेंगे जमीन पर!

अनुराग कश्यप का ट्विटर पर लौटना साहस के नये दरवाजे खोलने की तरह है। मशहूर लोगों की चमकती दुनिया के कुछ सितारे वास्तव में सितारे हैं, क्योंकि उन्होंने माना है कि उनका प्रकाश एक विराट सार्वभौमिकता का हिस्सा है, कोई उनका अपना खज़ाना नहीं।

आज जब छात्र एकजुटता अपने असाधारण दौर में पहुंची है तो एक व्यापक नागरिक एकजुटता के तहत समाज के अन्य हिस्सों से आवाजें उठी हैं। कुछ कम कुछ ज्यादा कुछ दबी-दबी कुछ बुलंद। भारतीय समाज में सिनेमा खासकर बंबई की फिल्म नगरी की ओर अक्सर ऐसे नाज़ुक मौकों पर देखा जाता है कि वे अपने समय और अपने समाज के साथ हैं या सत्ता के इरादों के साथ। या उनमें सही और गलत का फ़र्क समझ पाने की दृष्टि और विवेक कितना बचा रह पाया है या कभी था ही नहीं या आ गया है।

अपने समय के सवालों पर कन्नी काट जाना, ‘चुप रहने में ही भलाई है’ के आलस्य में छिपे रहना, अपनी राजनीति पर या अपनी राजनीतिक समझ से सरेआम इनकार कर देना, ख़ुद को अराजनीतिक बता देना, पेशे और जीवन की विसंगतियों पर पारदर्शिता दिखाने में अटकने लगना, और सबसे बढ़कर खुलकर अपनी राय न ज़ाहिर कर पाने की कुलबुलाहट और आधी-अधूरी ग्लानि के भंवर में फंसे रहना; ये बॉलीवुडीय लक्षण हो सकते हैं।

मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा अपने कमर्शियल इंद्रजाल में इतना दयनीय, इतना विस्मृत और इतना आत्ममुग्ध हो चुका है कि लगता है कि वो सेल्फ़ी और बैक सेल्फ़ी की वंदनीयता को अपना कौशल विकास मानने लगा है। सिने सितारे आख़िर किसके लिए जगमगाते हैं? अपनी रोशनियों का इतना कॉर्पोरेटीकरण और ध्रुवीकरण करने की उन्हें भला क्या ज़रूरत? वे क्यों कृपा-पात्र और कृपा-कातर हैं? क्या ये उनकी राजनीति नहीं? या ये भी उनकी उस कथित विडंबना का हिस्सा है, जिसे वो कुछ शर्म और कुछ शान में ‘अ-राजनीति’ कहते हैं? भयंकर जगमगाहटों वाले गाढ़े अंधेरे में कुछ जीवंत रोशनियां अपनी जगह बनाए रहती हैं। वे विभूषित कृत्रिमताओं से अलग अपनी मौलिक संवेदना में दमकती हैं।

अनुराग कश्यप, अनुभव सिन्हा, जीशान अयूब, विक्रम मैसी, स्वरा भास्कर, तापसी पन्नू, सिद्धार्थ, पार्वती, कोंकणा सेन, सयानी गुप्ता, हुमा कुरैशी, ऋचा चड्ढा, दीया मिर्ज़ा, ओनिर, लीज़ा रे, अनुपम राव, मनोज वाजपेयी, राजकुमार राव, पूजा भट्ट, मुकेश भट्ट, नसीरुद्दीन शाह, रेणुका शहाणे, प्रणीति चोपड़ा। इन नामों से अंदाजा लगा सकते हैं कि ये सूची और बड़ी है। बहुत व्यापक।

समूची बिरादरी की तो ये सूची नहीं, लेकिन इतना है कि प्रतिरोध और छात्रों की तकलीफ समझने वाले लोग मशहूर होकर किनारे नहीं हो गए हैं। उनके “अंतःकरण का आयतन” अभी सिकुड़ नहीं गया है, और वे न तोते हैं न मुर्गे न गधे न भेड़। वे मनुष्य हैं। अपने आक्रोश से उन्होंने अपने होने की शिनाख़्त की है, और जो नहीं हैं वे नहीं हैं। वे शहंशाह, बादशाह, परफेक्शनिस्ट, नायक महानायक, सुल्तान, कुमार, प्रिंस, देशभक्त, आदि-आदि बहुत कुछ हैं। महिमाओं का ये कैसा अविचलित और अखंड और अटूट प्रताप है कि जरा भी आंख नहीं झपक पाती। क्या ये नींद है या डर या ये सत्ता की हिमायत में बंद विवेक के दरवाजे हैं।

ब्रांडों का गुणगान करने वाले वे, अपनी जनता के एबेंसडर कब बनेंगे, और यही हाल सिनेमा से इतर अन्य क्षेत्रों में भी देख सकते हैं। जैसे खेल को ही लीजिए। कितने भगवान, देवता, मसीहा आदि आदि वहां भी हैं, लेकिन उनकी टोपियां और नीचे खिसक आई हैं और चश्मे और ओपेक हो गए हैं। दौलतों और प्रसिद्धियों के शिखरों पर विराजमान इन देवदूतों से कोई क्या कहे। अपने समय से कितने अलग-थलग कितने उदासीन कितने बेजान और कितने चालाक।

विश्व फ़ुटबॉल के चमकते सितारे हैं, तुर्की मूल के जर्मन खिलाड़ी मेसुत ओज़िल। अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के लिए मशहूर और विवादास्पद। चीन में उईगर मुसलमानों के बारे में वो दुनिया के अकेले खिलाड़ी हैं, जिन्होंने आवाज उठाई है। चीन तिलमिलाया हुआ है। उरुग्वे के प्रसिद्ध लेखक पत्रकार एडुआर्दो गालियानो ने फुटबॉल और राजनीति और संघर्ष और साहस की एक मिलीजुली संस्कृति के बारे में विस्तार से लिखा है। लातिन अमेरिकी संदर्भों में।

मुहम्मद अली सिर्फ़ अपने मुक्कों के लिए ही मशहूर नहीं थे। पिछले साल विश्व कप फुटबॉल में सर्बिया के खिलाफ मैच में गोल दागने वाले कोसोवो अल्बानियाई मूल के दो स्विस फुटबॉल खिलाड़ियों के सांकेतिक प्रतिरोध और आक्रोश को अभिव्यक्त करती तस्वीर कैसे भुलाई जा सकती है।

ब्राजीली फुटबॉल के महान खिलाड़ियों में एक सॉक्रेटिस के एक कथन को इंडियन एक्सप्रेस ने अपने तीसरे संपादकीय में शामिल किया है कि खिलाड़ी अपने समय की राजनीतिक घटनाओं और संघर्षों से अछूते नहीं रह सकते। उनका मानना था कि जनता के दुलारे खिलाड़ियों पर समाज को बदलने की सामाजिक जवाबदेही भी होती है। इसके लिए उनके पास तीन चीजें होनी चाहिए, “सामाजिक चेतना, राजनीतिक समझ और संघर्ष की इच्छा।” ये आह्वान शायद उन सबके लिए है जो अपने-अपने क्षेत्रों के नगीने बन गए हैं, और बौद्धिक या भौतिक ऐश्वर्य में चमक रहे हैं।  

कुछ समय पूर्व विख्यात अभिनेत्री मेरिल स्ट्रीप ने खचाखच भरे गोल्डन ग्लोब सम्मान समारोह में और देश-विदेश में प्रसारित हो रहे धन्यवाद भाषण में तब के राष्ट्रपति नॉमिनी डोनल्ड ट्रंप के दुर्व्यवहार की भर्त्सना करते हुए अपने सहकर्मियों की एकजुटता और प्रेस का साथ देने की अपील की थी। कहा था कि लोगों को सत्ता के उन्माद को चुनौती देना, उन्हें फटकार देने का साहस रखना होगा। सरकार के फ़ैसलों, आदेशों और नीतियों की आलोचना करना देश से द्रोह करना नहीं है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह तथ्य न तो झुठलाया जा सकता है न ही बदला जा सकता है।

शिव प्रसाद जोशी

(शिवप्रसाद जोशी विभिन्न चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं। आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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