Thursday, April 25, 2024

क्या न्यायपालिका अब व्हिसिल ब्लोवरों को दंडित करेगी?

एक और उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ जज कह रहे हैं कि हाल के सालों में जजों पर हमले का ट्रेंड देश भर में दिखा है और सॉफ्ट टारगेट होने के कारण जजों पर हमले हो रहे हैं वहीं उच्चतम न्यायालय न्याय मांगने पर वादियों से बदला ले रहा है। पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर आरोप लगते रहे हैं कि ये बदले की राजनीति करते है लेकिन जकिया जाफ़री के मामले में बिना किसी जज के नाम के लिखे फैसले में जिस तरह न्याय के लिए प्रयास करने वालों से बदला लेने का आह्वान किया गया है वह अपने आप में ऐतिहासिक है और गुलामी के दिनों की अंग्रेज अदालतों की याद दिला रहा है, जो इतने नीचे स्तर पर नहीं उतरते थे। फैसले में सरकार के खिलाफ अदालतों में लड़ी गई न्याय की लंबी लड़ाई को कडाही को उबलते रखने की संज्ञा से नवाजा गया है और वादकारियों को सबक सिखाने के लिए दंडित करने को कहा गया है।

उच्चतम न्यायालय शायद भूल गया है कि आजतक सिख विरोधी दंगे की फाइलें हों या बोफोर्स की या फिर वर्षों पहले हुए तमाम घपले ,घोटालों, जघन्य अपराधों या फिर उच्चतम न्यायालय के निर्णय द्वारा उकसाए गये मी टू जैसे मामले हों क्या ये कड़ाही को लगातार उबलते रहने जैसे मामले नहीं हैं, जिन्हें राजनीतिक लाभ के लिए समय समय पर झाड़ पोंछ कर न्यायालय या जाँच एजेंसियों के माध्यम से कूड़ेदान से निकला जाता रहा है और टार्गेटेड उत्पीड़न किया जाता है जैसे नेशनल हेराल्ड मामले में अभी पिछले ही हफ्ते पूरे देश ने देखा है।

क्या उच्चतम न्यायालय को संवैधानिक सर्वाधिकार मिला है कि वह राज्यसत्ता की आपराधिक लापरवाही से ध्वस्त कानून व्यवस्था की मशीनरी के कारण तीन दिन तक साम्प्रदायिक दंगे की आग में झुलसते गुजरात में  बड़े पैमाने पर नरसंहार, जिसमें एक पूर्व सांसद को जिन्दा जला दिया गया, के मामले में वादकारियों को इसलिए दंडित करने का आदेश दे क्योंकि उन्होंने कानून के प्रावधानों के तहत निष्पक्ष न्याय पाने के अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग किया। क्या न्यायपालिका अब जघन्य आपराधिक मामलों में पैरवी करने वालों को दंडित करेगी? क्या यह कानून का शासन है?

प्रसंगवश बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना के आरोप में एक वकील को दी गई 15 दिन कैद की सजा देने वाला मद्रास हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए सुनवाई के दौरान जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हाल के सालों में जजों पर हमले का ट्रेंड देश भर में दिखा है। उन्होंने कहा, जजों पर हमले हो रहे हैं।

इसी तरह दो वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के दूसरे वरिष्ठतम जज जस्टिस एनवी रमना ने शनिवार को न्यायाधीशों को आलोचना के लिए सॉफ्ट टारगेट बनाए जाने के बढ़ते चलन पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को आत्मसंयम का पालन करना पड़ता है और खुद का बचाव करने का उनके पास कोई उपाय नहीं होता।

एक अन्य मामले में तत्कालीन चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस बीआर गवई और सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि देश में ऐसे अनगिनत लोग हैं, जो सस्ती लोकप्रियता के लिए न्यायपालिका की छवि को धूमिल करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। ऐसे लोगों से बार के असंतुष्ट सदस्य भी अकसर हाथ मिला लेते हैं। जज उनके लिए आसान टारगेट होते हैं। 

गुजरात दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री) की भूमिका को लेकर जाकिया जाफ़री ने सर्वोच्च न्यायालय में एक अर्जी दाखिल की थी। जिसे 24 जून, 2022 को खारिज कर दिया गया। 2002 में गोधरा में साबरमती ट्रेन में आग लगने के कारण अयोध्या से लौट रहे 59 श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी। 27 फरवरी 2002 को घटी इस दुर्घटना के अगले दिन से ही गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगे शुरू हो गए। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे। 28 फरवरी को गुलबर्ग सोसाइटी में हुए हत्याकांड में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की निर्ममता से हत्या कर दी गई। तब से लेकर आज तक उनकी 82 वर्षीय पत्नी जकिया जाफ़री न्याय के लिए संघर्षरत हैं।

उच्चतम न्यायालय ने 2008 में गुजरात सरकार से गुजरात दंगों को लेकर एसआईटी बनाने का निर्देश दिया था। इस एसआईटी ने 2012 में अपनी क्लोजर रिपोर्ट में नरेंद्र मोदी समेत 64 अन्य लोगों को क्लीन चिट दे दी थी। जकिया इसके खिलाफ गुजरात उच्च न्यायालय गईं लेकिन वहाँ उनकी याचिका खारिज कर दी गई। अंत में जकिया उच्चतम न्यायालय पहुंचीं ताकि एसआईटी की रिपोर्ट को चैलेंज कर सकें। लेकिन जस्टिस खानविलकर की पीठ ने न सिर्फ उनकी याचिका खारिज कर दी बल्कि कुछ ऐसी टिप्पणियाँ भी कीं जिनकी अपेक्षा न्यायपालिका से तो नहीं रहती है।

न्यायमूर्ति खानविलकर की पीठ ने दिसंबर 2021 में ही जकिया जाफरी के मामले की सुनवाई पूरी करके अपना निर्णय रिजर्व कर लिया था। 24 जून 2022 को 452 पेज के अपने निर्णय को सुनाते हुए जस्टिस खानविलकर ने जकिया जाफरी की “वृहद् षड्यंत्र’ (लार्जर कॉन्सपिरेसी) की याचिका पर कहा कि यदि गुजरात दंगों में वृहद् षड्यंत्र के तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो क्या गोधरा में ट्रेन के जलने को भी वृहद् षड्यंत्र के दायरे में ले आना चाहिए? न्यायमूर्ति खानविलकर ने एक खास किस्म के तर्क को प्रवेश देकर स्वयं ही स्वयं के निर्णय पर प्रश्न उठा दिया। यदि उन्हें कहीं से भी लगता है कि गोधरा ट्रेन कांड एक लार्जर कॉन्सपिरेसी का हिस्सा है तो उन्हें इस कांड की दोबारा जाँच के आदेश दे देने चाहिए थे। इस मामले में आखिर सर्वोच्च न्यायालय से अधिक सक्षम कौन सी संस्था है? क्या किसी एक संशय को दूर करने के लिए दूसरे संशय को प्रश्रय देना न्यायसंगत लगता है?

न्यायमूर्ति खानविलकर ने एसआईटी की रिपोर्ट पर विश्वास जताते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता जिससे उनके खिलाफ़ कोई मुक़दमा चलाया जाए। उन्होंने कहा कि एसआईटी की जांच सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में तथा एमिकस क्यूरी के कठोर सुपरविजन में हुई है। लेकिन तथ्य यह है कि SIT की नियुक्ति और कार्य प्रक्रिया पर शुरुआत से ही आरोप लगते रहे हैं। 2008 में सर्वोच्च न्यायालय के तीन जज, न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत, न्यायमूर्ति सताशिवम और न्यायमूर्ति आफताब आलम की पीठ ने गुजरात सरकार से, गुजरात सरकार के ही खिलाफ एसआईटी बनाने को कहा। मुझे नहीं पता कि न्याय का कौन सा सिद्धांत आरोपी को स्वयं की जांच का अधिकार देता है लेकिन प्रथम दृष्ट्या यह गलत प्रतीत होता है। इतना ही नहीं, जिन 5 लोगों को मिलाकर एसआईटी बनाई गई उनमें से 3 गुजरात पुलिस के ही अधिकारी थे। ये तीनों ही अधिकारी तत्कालीन गुजरात सरकार के अंतर्गत ही कार्यरत थे। ऐसे में क्या गुजरात पुलिस के द्वारा गुजरात पुलिस की अक्षमता की जांच करना उचित था, खासकर तब जब राज्य के मुख्यमंत्री के ऊपर भी आरोप लग रहे हों? आगे चलकर एसआईटी की रूपरेखा लगातार बदलती रही, बहुत से पुराने सदस्य चले गए और कई नए सदस्य आ गए।

जहां तक सवाल एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन का है तो उन्होंने 2012 में अपनी रिपोर्ट, जो कि एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट का ही एक हिस्सा थी, में कहा था कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 A (1)(a) व (b), 153 B (1)(c), 166 और 505 (2) के तहत मुक़दमा चलाया जा सकता है। द हिन्दू की एक रिपोर्ट के अनुसार राजू रामचंद्रन ने कहा कि प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि उन्होंने (मुख्यमंत्री) पुलिस वालों को आदेश दिए थे कि हिन्दू दंगाइयों पर कार्रवाई थोड़ी नर्म हो।

यहाँ तक कि राजू रामचंद्रन की रिपोर्ट के अनुसार उनके दंगे को संभालने के तरीकों और अप्रिय मीडिया भाषणों की वजह से स्थिति बिगड़ गई। यह अलग बात है कि एसआईटी ने एमिकस क्यूरी के सभी दावों को खारिज कर दिया। शायद यह न्यायिक विषय ही है कि न्यायपालिका ने एमिकस क्यूरी के दावों को तवज्जो न देकर एसआईटी को तवज्जो दी।

गुजरात दंगों के प्रकरण में कम से कम तीन लोग ऐसे सामने आए जिन्होंने तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बोला और बयान दिए। ये तीन लोग थे- गुजरात कैडर के आईपीएस संजीव भट्ट, गुजरात के पूर्व गृहमंत्री हरेन पंड्या और आईपीएस आर.बी. श्रीकुमार।

लेकिन जस्टिस खानविलकर ने अपने निर्णय में इन तीनों के बारे में लिखा कि संजीव भट्ट, हरेन पंड्या और आर.बी. श्रीकुमार की गवाही इस मुद्दे को सिर्फ सनसनीखेज बनाने और राजनैतिक रूप देने की थी, यद्यपि यह सिर्फ झूठ से परिपूर्ण थी।

गुजरात दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री) की भूमिका को लेकर जकिया जाफ़री ने उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दाखिल की थी। जिसे 24 जून, 2022 को खारिज कर दिया गया। 2002 में गोधरा में साबरमती ट्रेन में आग लगने के कारण अयोध्या से लौट रहे 59 श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी। 27 फरवरी 2002 को घटी इस दुर्घटना के अगले दिन से ही गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगे शुरू हो गए। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे। 28 फरवरी को गुलबर्ग सोसाइटी में हुए हत्याकांड में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की निर्ममता से हत्या कर दी गई। तब से लेकर आजतक उनकी 82 वर्षीय पत्नी जकिया जाफ़री न्याय के लिए संघर्षरत हैं।

उच्चतम न्यायालय ने 2008 में गुजरात सरकार से गुजरात दंगों को लेकर एसआईटी बनाने का निर्देश दिया था। इस एसआईटी ने 2012 में अपनी क्लोजर रिपोर्ट में नरेंद्र मोदी समेत 64 अन्य लोगों को क्लीन चिट दे दी थी।

जकिया इसके खिलाफ गुजरात उच्च न्यायालय गईं लेकिन वहाँ उनकी याचिका खारिज कर दी गई। अंत में जकिया भारत के सर्वोच्च न्यायालय पहुंचीं ताकि एसआईटी की रिपोर्ट को चैलेंज कर सकें। लेकिन जस्टिस खानविलकर की पीठ ने न सिर्फ उनकी याचिका खारिज कर दी बल्कि कुछ ऐसी टिप्पणियाँ भी कीं जिनकी अपेक्षा न्यायपालिका से नहीं  रहती है।

 न्यायमूर्ति खानविलकर की पीठ ने दिसंबर 2021 में ही जकिया जाफरी के मामले की सुनवाई पूरी करके अपना निर्णय रिजर्व कर लिया था। 24 जून 2022 को 452 पेज के अपने निर्णय को सुनाते हुए जस्टिस खानविलकर ने जकिया जाफरी की “वृहद् षड्यंत्र’ (लार्जर कॉन्सपिरेसी) की याचिका पर कहा कि यदि गुजरात दंगों में वृहद् षड्यंत्र के तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो क्या गोधरा में ट्रेन के जलने को भी वृहद् षड्यंत्र के दायरे में ले आना चाहिए? न्यायमूर्ति खानविलकर ने एक खास किस्म के तर्क को प्रवेश देकर स्वयं ही स्वयं के निर्णय पर प्रश्न उठा दिया। यदि उन्हें कहीं से भी लगता है कि गोधरा ट्रेन कांड एक लार्जर कॉन्सपिरेसी का हिस्सा है तो उन्हें इस कांड की दोबारा जाँच के आदेश दे देने चाहिए थे। इस मामले में आखिर सर्वोच्च न्यायालय से अधिक सक्षम कौन सी संस्था है? क्या किसी एक संशय को दूर करने के लिए दूसरे संशय को प्रश्रय देना न्यायसंगत लगता है?

न्यायमूर्ति खानविलकर ने एसआईटी की रिपोर्ट पर विश्वास जताते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता जिससे उनके खिलाफ़ कोई मुक़दमा चलाया जाए। उन्होंने कहा कि SIT की जांच सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में तथा एमिकस क्यूरी के कठोर सुपरविजन में हुई है। लेकिन तथ्य यह है कि एसआईटी की नियुक्ति और कार्य प्रक्रिया पर शुरुआत से ही आरोप लगते रहे हैं। 2008 में उच्चतम न्यायालय के तीन जज, न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत, न्यायमूर्ति सतैशिवम और न्यायमूर्ति आफताब आलम की पीठ ने गुजरात सरकार से, गुजरात सरकार के ही खिलाफ एसआईटी बनाने को कहा।

अब गडबडी यहीं से शुरू हो गयी। न्याय का कोई सिद्धांत आरोपी को स्वयं की जांच का अधिकार नहीं देता देता है । इतना ही नहीं, जिन 5 लोगों को मिलाकर एसआईटी बनाई गई उनमें से 3 गुजरात पुलिस के ही अधिकारी थे। ये तीनों ही अधिकारी तत्कालीन गुजरात सरकार के अंतर्गत ही कार्यरत थे। सवाल है कि ऐसे में क्या गुजरात पुलिस के द्वारा गुजरात पुलिस की अक्षमता की जांच करना उचित था, खासकर तब जब राज्य के मुख्यमंत्री के ऊपर भी आरोप लग रहे हों? आगे चलकर एसआईटी की रूपरेखा लगातार बदलती रही, बहुत से पुराने सदस्य चले गए और कई नए सदस्य आ गए।

जिन तीन जजों ने एसआईटी गठित  आदेश दिया था, उनमें से एक जज को रिटायरमेंट के बाद काले धन पर गठित की गई दो सदस्यीय समिति का उपाध्यक्ष बनाया गया था, जबकि उन न्यायमूर्ति के खिलाफ स्वयं आयकर विभाग ने 2019 में कहा कि उन्होंने 2017-18 वर्ष के लिए 1.06 करोड़ रुपये तक की आय को छिपाया था। अर्थात उन्होंने इस पर टैक्स नहीं दिया था। अंततः उन्होंने “विवाद से विश्वास एक्ट, 2020” के तहत लाई गई स्कीम के माध्यम से अपने प्रत्यक्ष कर विवाद को सुलझाया ताकि उन्हें किसी कानूनी कार्यवाही में न फंसना पड़े। 2008 की बेंच के दूसरे जज, जो कि भारत के मुख्य न्यायाधीश भी बने, उनको उनके रिटायरमेंट के बाद मोदी सरकार द्वारा एक राज्य का राज्यपाल बनाया गया।

जो लोग गुजरात दंगों के लिए बनी एसआईटी में शामिल हुए उन्हें बेहतरीन पद प्रदान किए गए। उदाहरण के लिए एसआईटी में शामिल शिवानंद झा (आईपीएस) गुजरात पुलिस के डीजीपी बनकर रिटायर हुए तो उनके साथ ही एसआईटी में शामिल आशीष भाटिया, आईपीएस, वर्तमान में गुजरात के डीजीपी हैं। बाद के दिनों में एसआईटी में शामिल हुए वाई.सी. मोदी (आईपीएस) को 2017 में नेशनल इंवेस्टिगेटिव एजेंसी (एनआईए) का मुखिया बनाया गया और एसआईटी के प्रमुख व पूर्व सीबीआई निदेशक आर.के. राघवन; जिन्होंने 2017 में एसआईटी के चीफ के पद से स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दे दिया था उन्हें उसी वर्ष नवंबर में साइप्रस का उच्चायुक्त बना दिया गया। यह सब क्या है मीलार्ड!

इस फैसले के बाद गुजरात के डीजीपी आशीष भाटिया ने पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार, पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट और कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ जालसाजी और साजिश के आरोपों की जांच के लिए एक एसआईटी का गठन किया है। एसआईटी की कमान डीआईजी दीपन भद्रन को दी गई है।

ये तीन लोग आरबी श्रीकुमार, संजीव भट्ट और तीस्ता सीतलवाड़ वहीं हैं, जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों को लेकर सबसे पहले आवाज उठाई थी। सवाल है कि क्या बदले की भावना से काम करने वाली एक ताकतवर सरकार का विरोध कोई आसान काम है।उत्तर है नहीं । सरकार के साथ टकराने वाले नागरिकों और नागरिक संगठनों को सिर्फ न्यायपालिका का ही सहारा होता है।लेकिन न्यायपालिका भी पार्टी एक्टिविस्ट की तरह व्हिसिल  ब्लोवरों को ही दंडित कराने पर उतारू हो जाय तो लोकतंत्र कैसे बचेगा, संविधान का क्या होगा?

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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