Saturday, April 20, 2024

यूपी: क्या सचमुच में बीएसपी चुनावी लड़ाई से बाहर है?

“मीडिया के जो साथी पूछते हैं कि बहनजी कहां हैं? तो मैं कहना चाहती हूं कि बहनजी अपनी पार्टी को मजबूत करने में बिजी थी। बसपा बोलने में कम और करने में ज्यादा विश्वास रखती है।…….चुनावों में बीएसपी को लेकर ग़लतफ़हमी है और उनकी पार्टी चुनावों में सरकार बनाने लायक पर्याप्त सीटें जीतेगी।”

उपरोक्त बातें 2 फरवरी को आगरा के कोठी मीना बाज़ार में एक जनसभा को संबोधित करते हुये बसपा अध्यक्ष मायावती ने कहा है। आखिर मायवती को चुनावी सभा में सफाई क्यों देनी पड़ी कि वो कहाँ थीं। इसके लिये हमें पिछले दो महीनों से चल रहे तमाम मीडिया विमर्शों में जाना होगा। दरअसल इस समय और कुछ समय पहले से भी मीडिया में एक विमर्श चलाया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में कमजोर होती बसपा का वोटबैंक किसके साथ जायेगा। भाजपा की आक्रामक शोर शराबे वाली राजनीति के आदी हो चुके राजनीतिक विश्लेषक और कार्पोरेट मीडिया बहुजन समाज पार्टी और मायावती के चुपचाप काम करने के तरीके को ‘चुप्पी’, ‘साइलेंट मोड’ का नाम देकर बहुजन समाज पार्टी के कोर वोटरों के भाजपा के साथ जाने की बात कर रहे हैं।

गौरतलब है कि बसपा अध्यक्ष मायावती ने कांशीराम की पुण्यतिथि 9 अक्टूबर, 2021 में लखनऊ में हुई एक मात्र रैली को संबोधित किया था। दूसरे वर्ग और जाति के मतदाताओं को बसपा संग जोड़ने के लिये यह ज़रूरी था कि बसपा की सबसे बड़ी नेता मायावती की रैलियां होतीं।

क्या कहते हैं दलित बुद्धिजीवी

इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर विक्रम कहते हैं कि “यह सब मनुवादी मीडिया का दुष्प्रचार है। बसपा का मतदाता हमेशा साइलेंट रहता है। बसपा का वोटर साइलेंट रहता है वो किसी उकसावे में नहीं आता। उसके साइलेंट होने के पीछे कई वजहें हैं। वो समाज के लोगों की नब्ज़ अच्छी तरह से टटोल लेता है। उसे अच्छी तरह से पता है कि यदि वो कहेगा हाथी को वोट दिया तो उसे मारा काटा जा सकता है।

इस तरह की कई घटनायें अतीत में हुई हैं। पिछले चुनाव में हाथी को वोट देने के बाद बसपा के वोटर का मर्डर हुआ है। 1984 में गठन के बाद से बसपा लगातार अस्तित्व में है। जबकि कितनी पार्टियां आईं और अस्तित्वहीन हो गईं। बसपा को हल्के में लेने की सोच गलत सोच है। विधानसभा चुनाव त्रिकोणीय होगा। और यदि बसपा 150 सीट भी ले लेगी तो मायावती मुख्यमंत्री बनेंगी”।

उन्होंने आगे कहा कि युवा मतदाता पर लाठीचार्ज हुआ है वो भाजपा से नाराज़ है। ब्राह्मण नाराज़ है। भाजपा को कुछ गेन नहीं होगा। सपा भले ही अपने पक्ष में हवा बनने की बात कह रही है लेकिन वो वोट में ट्रांसफर नहीं होगा। स्वामी प्रसाद मौर्या या ओम प्रकाश राजभर भाजपा में थे तो 15-85 की बात नहीं की आज यह बात कर रहे हैं। बसपा नेता बनाने की फैक्ट्री है।

सोनेलाल पटेल, ओम प्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्या जितने भी बहुजन आंदोलन के नेता हैं बसपा की देन हैं। बहन जी के मतदाता अच्छी तरह से जानते हैं कि बहन जी क्या चीज हैं। बसपा का जो कैडर कैंप होता है, जो वन टू वन टॉक होता है वो प्रचार ही तो होता है। तीन चार मीटिंग दिन भर में वो करती हैं लेकिन मनुवादी मीडिया इसे नहीं दिखाती है। 

दलित राजनीति के विशेषज्ञ व भीमराव एकता विचार मंच के अध्यक्ष राम सिंह कहते हैं, “जो लोग इस बात को कह रहे हैं कि बसपा कमजोर है इस चुनाव में, कहीं नहीं है वो लोग भ्रम में हैं। पिछले तीन चुनावों में, और इस चुनाव में भी आप देखियेगा बसपा का वोट और वोट प्रतिशत कम नहीं होगा। बसपा का वोट बैंक कोई तोड़ नहीं पा रहा है, न ही तोड़ सकता है। सवाल यहां यह है कि बसपा दूसरे वोटबैंक अपने साथ ले सकती है कि नहीं। जो कह रहे हैं कहीं दिख नहीं रही है, कहीं है नहीं वो गलत हैं। बसपा के 22 प्रतिशत वोट फिक्स सॉलिड वोट हैं वो तो बसपा को मिलेगा ही। जो कैंडिडेट बसपा के टिकट पर लड़ रहे हैं। वो कितना वोटबैंक अपने साथ जोड़ेंगे ये देखना है”।

राम सिंह।

बता दें कि 2017 विधानसभा चुनाव में भाजपा क़रीब 41 फीसदी वोट हासिल करके सत्ता में आई  थी और समाजवादी पार्टी को 21.8 फीसदी वोट मिले थे और उसे 47 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन महज 19 सीटें जीतने वाली बसपा के खाते में 22.2 फीसदी वोट गए थे। बसपा को 22.2 प्रतिशत मत तब मिले थे जबकि गैरजाटव दलित और ब्राह्मण मतदाता भाजपा के साथ चला गया था।

मीडिया विमर्श और बसपा मतदाता

लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और दलित राजनीति विश्लेषक रविकांत चंदन इस मुद्दे पर कुछ यूं टिप्पणी करते हैं, “इस चुनाव में एक सप्ताह पहले तक बीएसपी को कहीं लड़ाई में ही नहीं माना जा रहा था। इसलिये बहुजन विचारकों को मीडिया द्वारा उस तरह से टीवी पर नहीं बैठाया जा रहा था। ऐसा पहली बार हुआ है कि बसपा ने तीन प्रवक्ताओं को नियुक्त किया है। और दो दिन पहले सुप्रीमकोर्ट की अधिवक्ता सीमा समृद्धि कुशवाहा को अपना राष्ट्रीय प्रवक्ता नियुक्त किया है। 16 अगस्त, 2021 को बसपा ने चुनाव से पहले बड़ा बदलाव करते हुये धर्मवीर चौधरी, एमएच ख़ान, और फैजान ख़ान आधिकारिक तौर पर बसपा का पक्ष रखने के लिये नियुक्त किये गये। गौरतलब है बसपा बिना प्रवक्ताओं वाली पार्टी के तौर पर जानी जाती है”।

उन्होंने आगे कहा कि “आम तौर पर इससे पहले धर्मवीर चौधरी व एमएच खान, बसपा समर्थक के तौर पर टीवी बहसों में हिस्सा लेते थे। इससे पहले बसपा ने आधिकारिक प्रवक्ता कभी नहीं रखे”। बकौल रविकांत चंदन, “मायावती का मानना है कि बसपा मतदाताओं को टेलीविजन देखने की फुर्सत नहीं है। वो दिन भर काम करता है और शाम को जो कुछ मिला खाकर सो जाता है। इसलिये वो कहती हैं हमें टेलीविजन की बहस में नहीं पड़ना है। एक दूसरी रणनीति उनकी यह भी है कि उनको लगता है कि कहीं कोई बैकफॉयर न हो जाये”।

रविकांत के मुताबिक साल 1984 में गठन के बाद कांशीराम युग से मायावती युग तक बसपा मीडिया में अपनी बात रखने के लिये प्रवक्ताओं के बजाय कैडर का सहारा लेती है और ग्राउंड स्तर तक अपनी बात संगठन के जरिये पहुंचाती है। चुनाव के दौरान यह बूथ स्तर तक होता है जिसे अलग-अलग क्षेत्र के कोआर्डिनेटर देखते हैं। और इन सब पर मायावती नज़र रखती हैं।

यह पूछे जाने पर कि बीजेपी के कुछ सीटों से पीछे रहने पर मायावती उसे समर्थन दे देंगी रविकांत ने कहा कि “मायावती ने कभी सपोर्ट किया नहीं है बल्कि लिया है। अगर हंग असेंबली होती है और उन्हें 70-80 सीट हासिल होती हैं तो अखिलेश पर उन्हें समर्थन देने का दबाव बढ़ जाएगा। तब बीजेपी सीन में नहीं आएगी”। उन्होंने बीजेपी को मायावती द्वारा समर्थन न दिए जाने का एक दूसरा तर्क भी दिया, “बीएसपी के जो मुस्लिम विधायक होंगे। अगर मायावती बीजेपी के साथ कोशिश करेंगी तो वो सभी स्वतंत्र रास्ता अख्तियार कर सकते हैं”। उन्होंने इस तर्क को भोथरा करार देते हुए कहा कि “अगर कोई ऐसी स्थिति आती है तो उसमें जयंत चौधरी और ओम प्रकाश राजभर भी तो जा सकते हैं। फिर मायावती पर ही यह आरोप क्यों कि वह बीजेपी को समर्थन दे देंगी। ऐसा नहीं होने जा रहा है”।

बसपा से मुक़ाबला होने पर सांप्रदायिक एंगल खत्म हो जायेगा

दलित रंगकर्मी अवधू आज़ाद इससे अलग नजरिया नहीं रखते लेकिन वह एक दूसरे पक्ष को भी लाते हैं, “ मीडिया के नैरेटिव पर मत जाइये। मीडिया तो सत्ताधारी वर्ग ब्राह्मणों की नाराज़गी का फर्जी नैरेटिव रचकर सारे बुनियादी मुद्दे ही ग़ायब कर देती है।

सच यह है कि बसपा के मुक़ाबले में बताने पर भाजपा सांप्रदायिक राजनीति नहीं कर पायेगी। इस बात को बसपा भी ख़ूब समझती है। यही कारण है कि 9 जनवरी को मायावती ने निर्वाचन आयोग से अपील की थी कि धार्मिक रंग देकर राजनीति करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कदम उठायें। बसपा को चुनावी लड़ाई से बाहर बताने की भाजपा की एक रणनीति तो यही है कि प्रदेश की 10 प्रतिशत ब्राह्मण मतदाता जो भाजपा से नाराज़ हैं उसे बसपा का विकल्प न मिले।

भाजपा ये चाहती है कि चुनाव जब सीधे-सीधे भाजपा और सपा के बीच नज़र आने लगेगा तो ब्राह्मण मतदाता या ग़ैर यादव ओबीसी और ग़ैर जाटव दलित मतदाता के पास जब बसपा का विकल्प खत्म हो जाएगा। और उसे जब लगेगा कि अगर हमें सपा और भाजपा में से किसी एक को ही वोट करना है तो फिर भाजपा ही सही। वहीं समाजवादी पार्टी की भी कोशिश यही है कि मुक़ाबला द्विपक्षीय ही रहे, ताकि मुस्लिम मतदाता और भाजपा से नाराज़ जाट मतदाता उसके साथ आयें”।

दलित मतदाताओं का पक्ष

अंबेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता अशोक चौधरी कहते हैं बसपा ने ज़मीन पर काम करना बहुत पहले से शुरु कर दिया था। आपको अगर याद हो तो बहन जी ने यूपी में जिला पंचायत चुनावों में बसपा के लोगों को ऊर्जा और संसाधन न जाया करने और विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट जाने के लिये कहा था। बसपा कार्यकर्ता तभी से विधानसभा के प्रचार में लग गये थे।

अशोक चौधरी कहते हैं कि बसपा के कार्यकर्ता बहुत मेहनती हैं और रात दिन काम कर रहे हैं। बहन जी ने पिछले चार महीनों में ज़मीनी स्तर पर काम किया है। उन्होंने अपने सेक्टर प्रभारियों को मज़बूत किया, कार्यकर्ताओं को मुस्तैद किया और अपने प्रभारी बनाये। क्योंकि ज़मीन पर चुनाव इनके सहारे ही लड़े जाते हैं।

फूलपुर विधानसभा के मतदाता लल्लू जाटव कहते हैं हाथी चलती है तो कुत्ते भौंकते ही हैं। लेकिन हाथी चलती चली जाती है। कोई क्या कह रहा है इससे हमें बहुत फर्क नहीं पड़ता। दलित मतदाताओं को पता है कि उन्हें कहां मतदाता करना है। 

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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