Saturday, April 20, 2024

प्रतिबद्ध से पिछलग्गू न्यायपालिका में तब्दील हो गया है सुप्रीम कोर्ट!

सुप्रीम कोर्ट के बारे में कुछ भी कहने के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 142 में सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम अधिकार प्राप्त हैं। यहां तक कि अगर किसी मामले में कोई कानून नहीं है और सुप्रीम कोर्ट किसी कानून की आवश्यकता महसूस करता है तो, वह गाइडलाइंस भी बना सकता है जो उस विषय में संसद द्वारा कोई कानून बनाने तक प्रभावी भी रह सकता है, और उसने ऐसी गाइडलाइंस बनायी भी हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय और निश्चय पर अटल है तो, चाह कर भी, न तो विधायिका और न ही कार्यपालिका, सुप्रीम कोर्ट की मर्ज़ी के विपरीत जा सकती हैं। मैं कानूनी या वैधानिक स्वरुप की बात कर रहा हूँ, किसी जज विशेष के प्रति षड्यंत्र या अन्य छल या दबाव की बात नहीं कर रहा हूँ।

उदाहरण के लिये आप हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिये वर्तमान में गठित कॉलेजियम सिस्टम को ले सकते हैं। अक्टूबर 1998 में कॉलेजियम सिस्टम के लागू होने के पहले कार्यपालिका या सरकार का प्रभाव जजों की नियुक्ति में होता था। लेकिन जब नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की भनक मिलने लगी तो सुप्रीम कोर्ट ने एक नया तंत्र बनाया जिसमें वरिष्ठतम जजों की एक कमेटी जिसकी अध्यक्षता सीजेआई करते हैं को गठित किया गया और यह तंत्र कॉलेजियम कहलाया। यही तंत्र हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले की संस्तुति सरकार को करता है जो, राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद इसे नोटिफाई करती है।

सरकार का प्रत्यक्ष रूप से इन जजों की नियुक्ति में कोई हाथ नहीं होता है, पर यह हो सकता है कि सरकार प्रक्षन्न रूप से कुछ सिफारिश या दबाव सुप्रीम कोर्ट पर बनाये। लेकिन सरकार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा भेजे गए सभी नामों पर अपनी सहमति देने के लिये बाध्य नहीं है और वह पुनर्विचार के लिये पुनः कॉलेजियम को वह नाम भेज सकती है। पर पुनर्विचार के बाद अगर कॉलेजियम वही नाम दुबारा भेजता है तो सरकार को बाध्य होकर यह निर्णय मानना पड़ता है। मेरे कहने का आशय यह है कि न्यायपालिका का शीर्ष किसी भी प्रकार, विधायिका और कार्यपालिका से, प्रभाव और संवैधानिक शक्ति के रूप में कमतर नहीं है।

इधर हाल के कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट की गंभीर आलोचनाएं हुई हैं। यह आलोचना न केवल बड़े वकीलों ने की है बल्कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों और पूर्व सीजेआई ने भी की है। सबसे अधिक आलोचना तब हुई जब पूर्व सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई को अवकाशग्रहण के बाद राज्यसभा के लिये मनोनीत किया गया। यह निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट का एक ग्रहण काल माना गया। जस्टिस एके पटनायक, जस्टिस एपी शाह, जस्टिस मार्कण्डेय काटजू सहित अनेक जजों ने अखबारों में लेख लिखे और ट्वीट कर के अपनी बात कही। मैं यहां जस्टिस मार्कण्डेय काटजू जो सुप्रीम कोर्ट के जज रह चुके हैं का ट्वीट उद्धृत कर रहा हूँ, जो संभवतः किसी भी सीजेआई की अब तक की सबसे कठोर आलोचना है। ट्वीट इस प्रकार है, 

” मैं 20 वर्ष अधिवक्ता और 20 वर्ष जज रहा। मैं कई अच्छे जजों और कई बुरे जजों को जानता हूं। लेकिन मैंने कभी भी भारतीय न्यायपालिका में किसी भी जज को इस यौन विकृत रंजन गोगोई जैसा बेशर्म और लज्जास्पद नहीं पाया। शायद ही कोई ऐसा दुर्गुण है जो इस आदमी में नहीं था। और अब यह दुर्जन और धूर्त व्यक्ति भारतीय संसद की शोभा बढ़ाने वाला है। हरिओम।“

सुप्रीम कोर्ट आजकल आलोचना के केंद में है। सोशल मीडिया पर अक्सर कठोर आलोचनाएं दिखती हैं। लोगों के मन मस्तिष्क में अब न्याय का यह शीर्ष, अनिंद्य नहीं रह गया है। हर फैसले की आलोचना होती है और लोग सवाल उठाते हैं। कुछ इसे यह भी कह सकते हैं कि, यह अदालत की मानहानि है और कुछ इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान सकते हैं। पर सुप्रीम कोर्ट के ही एक जज न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने राज्य की संस्थाओं/निकायों की वैध आलोचना के खिलाफ राजद्रोह कानून के उपयोग के कारण उत्पन्न प्रभाव के बारे में विस्तार से बात की है। उन्होंने न्यायपालिका की निष्पक्ष आलोचना के सापेक्ष अवमानना कार्रवाई के खतरों का भी उल्लेख किया। उन्हीं के शब्दों में, 

“न्यायपालिका आलोचना से ऊपर नहीं है। यदि उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश उनके द्वारा प्राप्त सभी अवमानना संचारों पर ध्यान देने लगें, तो अवमानना कार्यवाही के अलावा अदालतों में कोई काम नहीं हो सकेगा। वास्तव में, मैं न्यायपालिका की आलोचना का स्वागत करता हूं क्योंकि यदि आलोचना होगी, तभी सुधार होगा। न केवल आलोचना होनी चाहिए, बल्कि आत्ममंथन भी होना चाहिए। जब हम आत्ममंथन करेंगे, तो हम पाएंगे कि हमारे द्वारा लिए गए कई फैसलों को सुधारने की आवश्यकता है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही या सशस्त्र बलों की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता। यदि हम विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका या राज्य के अन्य निकायों की आलोचना को रोकने का प्रयास करते हैं, तो हम एक लोकतंत्र के बजाय एक पुलिस राज्य बन जाएंगे और हमारे देश के संस्थापकों ने इस देश से कभी यह उम्मीद नहीं की थी।” 

न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता, अहमदाबाद में प्रलीन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में भाषण देते हुए यह बात कही थी।

इधर हाल ही में एक ऐसा मामला आया है जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट की तीखी आलोचना हुई है। वह मामला है, रिपब्लिक टीवी के पत्रकार अर्णब गोस्वामी की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा त्वरित सुनवाई करना। महाराष्ट्र के पालघर जिले में एक आदिवासी बहुल गांव के पास दो साधुओं और एक ड्राइवर की एक भीड़ द्वारा पीट पीट कर हत्या कर दी जाती है। हत्या के दो दिन बाद सोशल मीडिया पर जब शोर मचता है तो देश की मेनस्ट्रीम मीडिया का भी ध्यान उधर जाता है। चूंकि हत्या साधुओं की हुई है तो तुरन्त ही कुछ बड़े पत्रकारों और टीवी चैनल्स का ध्यान हत्यारों के धर्म की ओर जाता है। बिना तथ्यों की पुष्टि किये ही कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने इसे साम्प्रदायिक रंग देना शुरू कर दिया। लेकिन महाराष्ट्र पुलिस की सतर्कता से तुरन्त ही 110 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया और चौबीस घँटे के भीतर ही यह तथ्य देश के सामने आ गया कि भीड़ और मृतक दोनों एक ही धर्म के थे और घटना का कारण बच्चा चोरी की अफवाह थी।

इसके बारे में रिपब्लिक टीवी पर अर्णब गोस्वामी एक प्रोग्राम चलाते हैं जिन्होंने इस घटना को सांप्रदायिक कोण से देखा और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की चुप्पी पर सवाल उठाए और यह कहा कि अगर इस घटना में मुस्लिम और ईसाई होते तो क्या वे चुप रहतीं। अर्णब की पत्रकारिता का अपना मॉडल है और उनकी शैली बेहद आक्रामक और कभी कभी वे अशिष्ट और बेहद अमर्यादित भी हो जाती है। इस प्रोग्राम की कठोर प्रतिक्रिया हुई और पुलिस ने अर्णब गोस्वामी के खिलाफ आईपीसी की धारा 153, 505, 469, 471, 499, 500, 120 बी तथा धारा 51, 52 आपदा प्रबंधन अधिनियम एवं 66 ए आईटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया। महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में लगभग 100 मुक़दमे दर्ज हुए। यह सभी मुक़दमे संज्ञेय अपराध के हैं और कुछ धारायें अजमानतीय हैं।

अब इन मुकदमों में पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिये अर्णब गोस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। अर्णब गोस्वामी ने अपने खिलाफ दर्ज हुईं एफआईआर को रद्द कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की। याचिका 23 अप्रैल की रात 8 बजकर 10 मिनट पर दाखिल होती है और, सुप्रीम कोर्ट इसे सुनवायी के लिये, अगले ही दिन, सुबह 10.30, का समय भी नियत कर देती है ! अब याचिका में सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला दे, यह तो अदालत की अपनी बात है, पर इतनी त्वरित सुनवाई का अवसर देना भी एक राहत ही है।

सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब गोस्वामी की याचिका पर निम्न आदेश दिए। 

● अर्णब गोस्वामी को तीन हफ़्ते का प्रोटेक्शन 

● अर्णब गोस्वामी के टीवी कार्यक्रम में किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई गई, क्योंकि यह प्रेस की आज़दी के विरुद्ध निर्णय होता।  

● अर्णब गोस्वामी, निचली अदालतों में एंटीसिपेटरी बेल / प्रोटेक्शन ट्राई करें और पुलिस जाँच में सहयोग करें। 

● महाराष्ट्र पुलिस अर्णब गोस्वामी के चैनल और स्टाफ़ की किसी संभावित हमले के प्रति सुरक्षा करे। 

● सभी राज्यों, जहां जहां मुक़दमे दर्ज हैं, को अपना पक्ष रखने के लिये नोटिस दी गयी है।

सुनवाई की इस प्राथमिकता पर तुरन्त ही सवाल उठने लगे और यह एक प्रकार से प्रत्यक्ष पक्षपात की तरह से देखा जाने लगा। सुप्रीम कोर्ट के ही वकील प्रशांत भूषण ने ट्विटर पर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता की आलोचना करते हुए लिखा, 

” लॉकडाउन की वजह से राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को लेकर जगदीप एस छोकर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी इसे कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा।”

पालघर लिचिंग को लेकर टीवी शो के दौरान रिपब्लिक टीवी के पत्रकार अर्णब गोस्वामी के आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करने को लेकर उनकी गिरफ्तारी की मांग के मामले की सुनवाई पर वकील प्रशांत भूषण ने यह तंज किया है। भूषण का कहना है कि कोरोना के कहर के मारे मजदूरों को लेकर दायर की गई याचिका से ज्यादा जरूरी कोर्ट को अर्णब की याचिका लगी। प्रशांत भूषण का पूरा ट्वीट इस प्रकार है, 

” लॉकडाउन की वजह से राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को लेकर जगदीप एस छोकर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी इसे कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा। एक हफ्ते तक इसे सुनवाई के लिए शामिल नहीं किया गया। लेकिन एफआईआर निरस्त करने के लिए अर्णब गोस्वामी द्वारा दायर की गई याचिका पर कोर्ट ने अगले दिन ही सुनवाई के लिए शामिल कर लिया।”

उल्लेखनीय है कि, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के पूर्व प्रोफेसर और संस्थापक ट्रस्टी जगदीप एस छोकर और अधिवक्ता गौरव जैन की ओर से वकील प्रशांत भूषण द्वारा कोरोना निगेटिव मजदूरों को उनको अपने घरों की तरफ जाने की इजाजत मांगी गई थी। इस याचिका में कहा गया था कि उन प्रवासी मजदूरों को घर जाने की इजाजत दी जाए, जिनका कोरोना टेस्ट निगेटिव आया है। साथ ही यह मांग भी की गई थी कि राज्य सरकारों को इन लोगों को घर, गांव तक जाने की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए। लेकिन इस याचिका की सुनवाई नहीं हुई। अर्णब इन हज़ारों मज़दूरों की व्यथा पर अदालत की नज़र में महत्वपूर्ण साबित हुए।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही एक आदेश से सुनवाई हेतु अपनी प्राथमिकताएं 20 अप्रैल 2020 को जारी एक आदेश में जो रजिस्ट्री द्वारा जारी किया गया है में तय की है। सुनवाई में प्राथमिकता क्या होगी इसे संक्षेप में यहां देखें। 

● बेदखली के ज़रूरी मामले, जिसमें किरायेदारी और मकान आदि की अपीलें होंगी।

● मुआवजा के मामले, जिसमें वाहन दुर्घटना के वे मामले जिनमें मृत्यु हो गयी है या गंभीर विकलांगता है। 

● ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु या गंभीर विकलांगता के संबंध में मुआवजे के मामले। 

● अन्य प्रकार के दुर्घटना के मामलों में मुआवजों के प्रकरण। 

● बिजली और टेलीफोन से जुड़े मामले।

● 125 सीआरपीसी के अंतर्गत मामले जो भरण पोषण से सम्बंधित हैं। 

● जमानत, अग्रिम जमानत और अंतरिम जमानत के मामले। 

● संविधान के अनुच्छेद 139 (A)(2) से जुड़े मामले। 

● सीआरपीसी की धारा 406 के अंतर्गत मामले। 

● धारा 25 सीपीसी के अंतर्गत के प्रकरण।

अर्णब गोस्वामी का मामला आपराधिक श्रेणी में आता है और सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही यह तय किया है कि वह जमानत, अग्रिम जमानत और अंतरिम जमानत के ही मामले प्राथमिकता के आधार पर सुनेगी, जबकि अर्णब का मामला न तो जमानत का है, न ही अग्रिम जमानत का और न ही अंतरिम जमानत का। सुप्रीम कोर्ट खुद ही 20 अप्रैल को अपनी प्राथमिकता तय करती है कि वह किन मामलों की सुनवाई करेगा और फिर तीसरे ही दिन उसने अर्णब गोस्वामी की याचिका जो आपराधिक मुकदमों से प्रोटेक्शन के लिये थी सुनवाई के लिए स्वीकार कर लेती है तो फिर इसे किस दृष्टि से देखा जाना चाहिए ? क्या यह स्पष्ट तौर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया अनुग्रह नहीं प्रतीत होता है ?

ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के इस त्वरित सुनवाई के निर्णय पर केवल एडवोकेट प्रशांत भूषण ने ही सवाल उठाए हैं, बल्कि एक अन्य एडवोकेट रीपक कंसल ने भी सवाल उठाए हैं। एडवोकेट कंसल ने अपनी शिकायत भी सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को दर्ज कराई है और इसकी प्रतिलिपि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन को भी दी है। कंसल ने अपनी शिकायत में कहा है कि, 23 अप्रैल 2020 को रात 8 बजे, अर्णब गोस्वामी की याचिका सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री में दाखिल होती है, और 24 अप्रैल को सुबह 10.30 बजे वह बिना किसी त्रुटि निवारण की प्रक्रिया अपनाए जो अन्य सभी याचिकाओं में आवश्यक रूप से अपनाई जाती है, स्वीकार कर ली गयी।

जिस श्रेणी में यह याचिका स्वीकार की गयी है, वह श्रेणी सुप्रीम कोर्ट द्वारा खुद ही तय की गई प्राथमिकताओं की कोटि में आती भी नहीं है। कंसल ने यह भी कहा है कि 17 अप्रैल को दाखिल की गई याचिका के बारे में अभी तक कोई निर्णय लिया भी नहीं गया जबकि 23 अप्रैल को दाखिल होने के कुछ ही घण्टों के भीतर सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने उस मुक़दमे की सुनवाई भी नियत कर दी ?

प्रशांत भूषण का कहना है कि, 

‘मैंने आपातकाल के बाद से सुप्रीम कोर्ट को देखा है। जिस तरह से आज सरकार के सामने दीन-हीन होकर आत्मसमर्पण कर रहा है ऐसा हमने आपातकाल के दौरान भी नहीं देखा था। अधिकांश जज संविधान और लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी शपथ पूरी तरह से भूल गए हैं। दयनीय।’

सुप्रीम कोर्ट में पारदर्शिता को लेकर भी अक्सर सवाल उठते रहते हैं। भारत के मुख्य न्यायधीश के कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाने के मुद्दे पर अक्सर सवाल उठते हैं। प्रशान्त भूषण ‘सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति और ट्रांसफ़र की प्रक्रिया को रहस्यमय बताते है। और कहते हैं कि, इसके बारे सिर्फ़ मुट्ठी भर लोगों को ही पता होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फ़ैसलों में पारदर्शिता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है लेकिन जब अपने यहां पारदर्शिता की बात आती है तो अदालत का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं रहता।’ सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति से लेकर तबादले जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं जिनमें पारदर्शिता की सख़्त ज़रूरत है और इसके लिए सीजेआई कार्यालय को आरटीआई एक्ट के दायरे में आना होगा। हालांकि नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अब सीजेआई कार्यालय भी आरटीआई के दायरे में होगा।

अर्णब का रिपब्लिक टीवी पर किया गया प्रोग्राम एक राजनीतिक पत्रकारिता थी और उन पर जो मुक़दमे दर्ज हुए हैं उनका भी कारण राजनीतिक है। राजनीतिक प्रतिबद्धता से पत्रकारिता किये जाने पर भी कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन जिस प्रकार से सुप्रीम कोर्ट ने रात भर में ही अर्णब गोस्वामी की याचिका को इतना महत्वपूर्ण मान लिया कि उसकी सुनवाई अत्यंत प्राथमिकता के आधार पर कर ली, अगर इसमें भी राजनीति खोज ली जाय तो हैरान नहीं होना चाहिए। अर्णब का स्टैंड भाजपा के पक्ष में था और पालघर के मामले को उन्होंने किसी अपराध या मॉब लिंचिंग के रूप मे नहीं कवर किया बल्कि इसके माध्यम से उन्होंने अपना राजनीतिक स्टैंड लिया तो विवाद उठना ही था।

अर्णब ने चीखती और शोर मचाने वाली पत्रकारिता की आड़ में जो कुछ भी कहा या किया है, उस पर लोगों ने मुक़दमे दर्ज कराये हैं और अब यह काम पुलिस का है, कि वह अपनी कानूनी कार्यवाही करे। पत्रकारिता के मानदंडों और उसके गिरने उठने पर बहस होती रहती है। नैतिकता पर बहस और नसीहतें हमारी विशेषता हैं। यह हम वैदिक काल से करते आये हैं और आज तक यह जारी है। अर्णब आज इतने अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपना सारा काम धाम और प्राथमिकताएं त्याग कर सबसे पहले उन्हें ही राहत देने को तत्पर हो जाता है !

आज न केवल अर्णब गोस्वामी के ही अत्यंत प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई करने के कारण सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि  पिछले तीन चार सालों में भी कुछ उदाहरण ऐसे हैं जब कि सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका जनहित के मुद्दों पर खामोश बनी रही और उसकी यह खामोशी न केवल अखरी है बल्कि उन सब लोगों को जिन्हें न्यायपालिका अंतिम आश्रय के रूप में दिखती है, दुखी, निराश और कुंठित भी करती है। उदाहरण के लिये, 

● अनुच्छेद 370 के हटाने के मामले में संवैधानिक सवालों पर सुनवाई जानबूझकर टाली गयी।

● कश्मीर के नागरिक अधिकारों की पाबंदी की याचिका पर भी देर से सुनवायी शुरू की गई। 

● सीएए के सम्बंध में सीजेआई ने कहा कि ” देश मुश्किल वक्त से गुजर रहा देश, आप याचिका नहीं शांति बहाली पर ध्यान दें! जब तक प्रदर्शन नहीं रुकते, हिंसा नहीं रुकती, किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं होगी।” 

● दिल्ली हिंसा पर चुप्पी थी और जब दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज ने सक्रियता दिखाई तो उसका रातोंरात तबादला हो गया और आने वाले जज ने लम्बी तारीख दे दी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर हस्तक्षेप किया।

देश की न्यायपालिका के बारे में यह कुछ उदाहरण हैं, जो सुप्रीम कोर्ट पर गम्भीर सवाल उठाते हैं। संसद तो, राजनीतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहती ही है और सरकार अपने दल के राजनीतिक घोषणापत्र के प्रति निष्ठावान रहेगी ही, पर न्यायपालिका की ऐसी कोई मज़बूरी नहीं है कि वह सरकार या संसद के प्रति प्रतिबद्ध हो। उसे बस संविधान और विधि में वर्णित प्रावधानों के प्रति प्रतिबद्ध रहना है। यह लोकतंत्र औऱ लोक कल्याणकारी राज्य का अंतिम आशादीप है और यह प्रज्वलित रहे, तमस दूर करता रहे, यह दायित्व केवल न्यायपालिका का है और अब देखना है कि संविधान की संरक्षक माने जाने वाली संस्था कैसे इस आलोक को बचाये रखती है।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)


जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।