क्या कोई कह सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी गंभीर और शालीन वक्ता हैं?

Estimated read time 2 min read

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए पांचवें चरण के मतदान के बीच 27 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्र बनारस पहुंचे। वहां उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए राजनीति में भाषा के गिरते स्तर पर नाराजगी जताई और अपने विरोधियों को खूब आड़े हाथों लिया। इस सिलसिले में उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के तीन महीने पुराने एक बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए कहा कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से काशी में मेरी मृत्यु की कामना की थी।   

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान राजनीतिक विमर्श में भाषा का स्तर बहुत ज्यादा गिरा है, लेकिन इसकी शिकायत प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से सुनना बहुत हास्यास्पद लगता है। बनारस में अपने भाषण के दौरान बेहद मासूमियत से यह दावा भी किया, ”मैं किसी की व्यक्तिगत आलोचना करना पसंद नहीं करता और न ही किसी की आलोचना करना चाहता हूँ।’’ हकीकत यह है कि मोदी हर अवसर पर अपने राजनीतिक विरोधियों पर न सिर्फ व्यक्तिगत हमले करते हैं बल्कि वे ऐसा करते हुए अपने पद की मर्यादा और न्यूनतम नैतिकता की हदों को भी लांघ जाते हैं।

एक राजनेता के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘ख्याति’ भले ही मजमा जुटाऊ एक कामयाब भाषणबाज के तौर पर रही हो, लेकिन उन पर यह ‘आरोप’ कतई नहीं लग सकता है कि वे एक शालीन और गंभीर वक्ता हैं! चुनावी रैली हो या संसद, सरकारी कार्यक्रम हो या पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच संबोधन, लालकिले की प्राचीर हो या फिर विदेशी धरती, मोदी की भाषण शैली आमतौर पर एक जैसी रहती है- वही भाषा, वही अहंकारयुक्त हाव-भाव, राजनीतिक विरोधियों पर वही छिछले कटाक्ष, वही स्तरहीन मुहावरे, आधी-अधूरी या हास्यास्पद जानकारी के आधार पर गलत बयानी, तथ्यों की मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़, सांप्रदायिक तल्खी, नफरत से भरे जुमलों और आत्म प्रशंसा का भी उनके भाषणों में भरपूर शुमार रहता है।

इस सिलसिले में बतौर प्रधानमंत्री उनके पिछले करीब आठ साल के और उससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दिए गए उनके ज्यादातर भाषणों को देखा जा सकता है। उनके किसी भी भाषण में न तो न्यूनतम संसदीय मर्यादा का समावेश होता है और न ही शालीनता का। अपने राजनीतिक विरोधियों पर आरोप लगाने या कटाक्ष करने में तो वे प्रधानमंत्री पद की गरिमा और मर्यादा को लांघने से भी परहेज नहीं करते।

वैसे संसद हो या संसद के बाहर, भारतीय राजनीति में भाषा का पतन कोई नई परिघटना नहीं है। इसलिए इसका ‘श्रेय’ अकेले मोदी को नहीं दिया जा सकता। उनसे भी पहले कई नेता हो चुके हैं जो राजनीतिक विमर्श या संवाद का स्तर गिराने में अपना ‘योगदान’ दे चुके हैं। लेकिन मोदी उन सबको पीछे छोड़ कर उस सिलसिले को तेजी से आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

दरअसल नरेंद्र मोदी बोलते वक्त यह भूल जाते हैं कि वे भाजपा नेता के साथ-साथ देश के प्रधानमंत्री भी हैं। अभी पिछले दिनों संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए उन्होंने कांग्रेस को देश में कोरोना फैलाने के लिए जिम्मेदार और टुकड़े-टुकड़े गैंग की सरगना तक करार दे दिया था। इस समय पांच राज्यों में जारी चुनाव प्रचार में भी वे अपने भाषणों में स्तर की गिरावट के पुराने सारे रिकॉर्डों को ध्वस्त कर नए रिकॉर्ड बना रहे हैं। वे अपनी चुनावी रैलियों में खुलेआम हिंदुओं को एकजुट होने का आह्वान कर रहे हैं। विपक्ष को आतंकवादियों का मददगार बता रहे हैं। विपक्षी नेताओं को चोर-लुटेरा कह रहे हैं। उनकी राजनीतिक गिरावट का शर्मनाक चरम तो यह है कि 2008 में अहमदाबाद में हुए बम धमाकों को भी उन्होंने समाजवादी पार्टी से जोड़ दिया। उन्होंने कहा, ”गुजरात के बम धमाकों में आतंकवादियों ने समाजवादी पार्टी के चुनाव चिह्न ‘साइकिल’ पर बम रखे थे। मैं हैरान हूँ कि आतंकवादियों ने साइकिल को ही क्यों पसंद किया।’’

प्रधानमंत्री मोदी ने समाजवादी पार्टी पर यह स्तरहीन टिप्पणी करने में भी आदतन झूठ का सहारा लिया, क्योंकि सब जानते हैं और उस आतंकवादी हमले की अदालत में दाखिल जांच रिपोर्ट में भी यह दर्ज है कि लाल और सफेद कारों में विस्फोटक फिट किया गया था। जांच रिपोर्ट में कहीं साइकिल का जिक्र नहीं है। साइकिल को आतंकवाद से जोड़ते वक्त मोदी यह भी भूल गए कि उनकी अपनी पार्टी की साध्वी कही जाने वाली सांसद प्रज्ञा ठाकुर भी आतंकवादी वारदातों की आरोपी हैं और जिस एक वारदात में 6 लोग मारे गए थे, उसमें बम ब्लास्ट करने के लिए प्रज्ञा ठाकुर की मोटरबाइक का इस्तेमाल किया था। जाहिर है कि मोदी ने समाजवादी पार्टी को निशाना बनाने के साइकिल को आतंकवाद से जोड़ कर देश के गरीब और निम्न मध्यवर्ग के करोड़ों लोगों की साइकिल रूपी जीवनरेखा का अपमान किया।

दरअसल प्रधानमंत्री के ये निम्न स्तरीय बयान एक तरह से उनकी बौखलाहट की झलक दिखा रहे हैं। उन्हें अहसास हो गया है कि पांचों राज्यों में जनता उनकी पार्टी को बुरी तरह नकार रही है। इसीलिए वे चुनाव जीतने के अपने प्रिय और पारंपरिक ‘हथियार’ यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा ले रहे हैं। वे इतने अधिक हताश हो गए हैं कि सरकारी योजना के तहत गरीब परिवारों को बांटे जा रहे राशन में दिए जा रहे नमक का वास्ता देकर भी लोगों से वोट देने की अपील कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री के इस तरह के आपत्तिजनक और शर्मनाक भाषणों के संदर्भ में चुनाव आयोग का जिक्र करना बेमानी है। एक समय था जब चुनाव आयोग देश में चुनाव कराने के लिए जाना जाता था। वह चुनाव प्रचार के दौरान दिए जाने वाले आपत्तिजनक बयानों का संज्ञान लेता था और बयान देने वालों को चेतावनी देता था या उनके चुनाव प्रचार करने पर रोक लगाता था। लेकिन अब चुनाव आयोग एक तरह केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के गठबंधन का सहयोगी बन कर खुद भी एक तरह से चुनाव लड़ने लगा है। इसलिए प्रधानमंत्री बेखौफ होकर मनचाहे बयान दे रहे हैं और उनकी पार्टी के नेता भी इस मामले में पूरी तरह उनका अनुसरण कर रहे हैं।

हालांकि ऐसा नहीं कि मोदी ने यह काम प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू किया हो, गुजरात में अपने मुख्यमंत्रित्वकाल के दौरान भी कॉरपोरेटी क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से तैयार अपने राजनीतिक शब्दकोष का इस्तेमाल वे अपने राजनीतिक विरोधियों और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए बड़े मुग्ध भाव से करते रहे।

2007 के विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने ‘पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद’ पर अपने भाषणों में अपनी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ को तराज़ू के एक ही पलड़े पर रखते हुए ऐसा माहौल बना दिया था मानो विधानसभा का चुनाव नहीं बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच युध्द हो रहा हो। उसी दौरान उन्होंने 2002 की भीषणतम सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के राहत शिविरों को ‘बच्चे पैदा करने के कारखाने’ और मुस्लिम महिलाओं को उस कारखाने की मशीन बताने जैसे बेहद घृणित बयानों से भी परहेज नहीं किया था। गुजरात के उसी चुनाव में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को ‘इटालियन जरसी गाय’ और राहुल गांधी को ‘क्रास ब्रीड’ कह कर संघ की संस्कार शाला से मिले अपने संस्कारों का परिचय दिया था।

अपने ऐसे ही नफ़रत भरे ज़हरीले बयानों के दम पर मोदी गुजरात में ‘हिंदू हृदय सम्राट’ बनने में तो कामयाब हो गए मगर गांधी और सरदार पटेल के गुजरात का भाईचारा और गौरवमयी चेहरा तहस-नहस हो गया। अपनी इसी नफ़रतपरस्त राजनीति और बड़े पूंजीपति घरानों के सहारे वे 2013 आते-आते भाजपा के पोस्टर ब्वॉय और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बन गए, लेकिन उनकी भाषा और लहज़े में गिरावट का सिलसिला तब भी नहीं थमा। शिमला की एक सभा में कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी के लिए उनके मुंह से निकली ‘पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड’ जैसी भद्दी टिप्पणी को कौन भूल सकता है!

उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद कई लोगों को उम्मीद थी कि अब शायद उनकी राजनीतिक विमर्श की भाषा में कुछ संयम और संतुलन आ जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। शायद भीषण आत्ममुग्धता से ग्रस्त मोदी अपनी कर्कश-फूहड़ भाषा और भाषण शैली को ही अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी और अपनी सफलता का सूत्र मानते हैं।

यही वजह है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके भाषिक विचलन में और तेजी आ गई। 2014 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उन्होंने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को नक्सलियों की जमात, केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट, एके 47 और उपद्रवी गोत्र का बताया था। उसके एक साल बाद हुए बिहार के चुनाव में तो उन्होंने नीतीश कुमार के डीएनए में भी गड़बड़ी ढूंढ़ ली थी। राजस्थान विधानसभा के चुनाव में उन्होंने सोनिया गांधी को ‘कांग्रेस की विधवा’ कहा था तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने राजीव गांधी को ‘भ्रष्टाचारी नंबर एक’ कहा। झारखंड के चुनाव में उन्होंने दंगा करने वालों को उनके कपड़ों से पहचानने की बात कही तो पश्चिम बंगाल के चुनाव में वे पूरे समय अपनी सभाओं में ममता बनर्जी को अभद्र तरीक से ‘दीदी ओ दीदी’ कह कर संबोधित करते रहे।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले कभी देखने-सुनने और पढ़ने में नहीं आया कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी चुनाव में अपनी जाति का उल्लेख करते हुए किसी जाति विशेष से वोट मांगे हो, लेकिन मोदी ने बिहार के चुनाव मे यह ‘महान’ काम भी बिना संकोच किया था। किसी सभा में उन्होंने अपने को पिछड़ी जाति का तो किसी सभा में अति पिछड़ी जाति का बताया था। यहां तक कि एक दलित बहुल चुनाव क्षेत्र में वे दलित मां की कोख़ से पैदा हुए बेटे भी बन गए थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में तो वे मथुरा (उत्तर प्रदेश) से द्वारका (गुजरात) का रिश्ता बताते हुए एक जाति विशेष को आकर्षित करने के लिए खुद को कृष्ण का कलियुगी अवतार बताने से भी नहीं चूके थे।

उत्तर प्रदेश के उस चुनाव में मोदी का हर भाषण राजनीतिक विमर्श के पतन का नया कीर्तिमान रच रहा था। मसलन एक रैली में उन्होंने कहा था कि उत्तर प्रदेश के हर गांव में कब्रिस्तान तो है मगर श्मशान नहीं है, जो कि होना चाहिए। चुनाव को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने की भौंडी कोशिश के तहत वे यहीं नहीं रुके थे। उन्होंने कहा था कि सूबे के लोगों को अगर रमज़ान और ईद के मौके पर बिना रुकावट के बिजली मिलती है तो दीपावली और होली पर भी मिलनी चाहिए।

गुजरात विधानसभा के ही पिछले चुनाव में उन्होंने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं पर पाकिस्तान के साथ मिल कर भाजपा को हराने की साजिश रचने का आरोप तक लगा दिया था, जिसके लिए बाद में अरुण जेटली को संसद में खेद व्यक्त करना पड़ा था।

मोदी अपने इन विभाजनकारी सस्ते संवादों पर आई हुई और लाई गई भीड़ के बीच बैठे अपने समर्थकों की तालियां भले ही बटोर लेते हों और दरबारी मीडिया उसे मास्टर स्ट्रोक या विपक्ष पर करारा हमला बता देता हो और लेकिन आमतौर पर इससे संदेश यही जाता है कि चुनावी बाज़ी जीतने के लिए व्याकुल प्रधानमंत्री का यह एक हताशा भरा बयान है।

चुनावी रैलियों से अलग देश-विदेश में अन्य कार्यक्रमों में भी मोदी की भाषाई दरिद्रता के दिग्दर्शन होते रहते हैं। याद नहीं आता कि विदेशी धरती पर जाकर अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों और राजनीतिक विरोधियों को कोसने या उनकी खिल्ली उड़ाने का काम मोदी से पहले किसी और प्रधानमंत्री ने किया हो। कोई भी प्रधानमंत्री अपने कामकाज को लेकर आलोचना से परे नहीं रहा है, मोदी भी नहीं हो सकते। लेकिन नोटबंदी के फैसले से देशभर मे फैली आर्थिक अफरा-तफरी और आम आदमी को हुई तकलीफों को लेकर जब उनकी चौतरफा आलोचना हुई तो जरा देखिए कि उन्होंने अलग-अलग मौकों पर किस अंदाज में और किस भाषा में उन आलोचनाओं का जवाब दिया?

उन्होंने कहा- ‘मुझ पर ज़ुल्म हो रहे हैं’, ‘मेरे विरोधी मुझे बर्बाद करने पर तुले हैं’, ‘मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा, मैं तो फक़ीर हूं’, ‘वे मुझे मार डालेंगे, मुझे थप्पड़ मार देना’, ‘मुझे लात मार कर सत्ता से हटा देना’, ‘मुझे फांसी पर चढ़ा देना’, ‘मुझे उलटा लटका देना’, ‘मुझे चौराहे पर जूते मारना’ आदि-आदि।

गौरक्षा के नाम पर जब देश भर में कई जगह दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं हुईं तो उन्होंने राज्य सरकारों को ऐसी घटनाओं पर सख्ती बरतने का निर्देश देने के बजाय बेहद भौंड़े नाटकीय अंदाज में कहा, ”मेरे दलित भाइयों को मत मारो, भले ही मुझे गोली मार दो।’’ चापलूस मंत्रियों-पार्टी नेताओं, भांड़ मीडिया और फ़ेसबुकिया भक्तों के समूह के अलावा कोई नहीं कह सकता कि यह देश के प्रधानमंत्री की भाषा है।

कितना अच्छा होता अगर मोदी भाषा और संवाद के मामले में भी उतने ही नफासत पसंद या सुरुचिपूर्ण होते, जितने वे पहनने-ओढ़ने के मामले में हैं। एक देश अपने प्रधानमंत्री से इतनी सामान्य और जायज़ अपेक्षा तो रख ही सकता है। उनका बाकी अंदाज़-ए-हुक़ूमत तो एक अलग बहस की दरकार रखता ही है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author