इंडियन कॉर्पोरेट में अब कौन 100 घंटे प्रति सप्ताह काम करने का फरमान लेकर आने वाला है ?

Estimated read time 1 min read

इंफोसिस के संस्थापक एन आर नारायण मूर्ति के 70 घंटे प्रति सप्ताह वाला बयान अभी विवादों में बना ही हुआ था कि कल लार्सेन एंड टुब्रो (एल&टी) के प्रबंध निदेशक ने नया बम फोड़ दिया। कंपनी के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक एसएन सुब्रह्मण्यन के विचार में उनके कर्मचारियों को रविवार सहित सप्ताह के सातों दिन 90 घंटे काम करना चाहिए। 

एल & टी की एक आंतरिक वेबिनार में जब एक स्टाफ ने सवाल उठाया कि कंपनी विश्व की जानी-मानी कंपनियों में से एक है, और इस लिहाज से कंपनी में सप्ताह में 5 दिन काम के होने चाहिए। इसके जवाब में सुब्रह्मण्यन साहब का कहना था कि उनका वश चले तो वे कंपनी में सभी को रविवार के दिन भी काम पर आने का निर्देश दे दें। 

इसके आगे उन्होंने जो कुछ कहा, उस पर तो बॉलीवुड से लेकर हर तरफ से लानत-मलामत का सिलसिला शुरू हो चुका है। चेयरमैन साहब का कहना था कि आखिर घर पर कितने समय तक आप अपनी पत्नी को घूरते रहेंगे, या पत्नी अपने पति को घूरेगी? 

इसके लिए उन्होंने एक चीनी प्रोफेशनल का उद्धरण दे डाला, जिसका मानना था कि उनका देश अमेरिका को इसलिए पछाड़ सकने में सक्षम है क्योंकि अमेरिकी सप्ताह में 50 घंटे काम करते हैं, जबकि चीनी 90 घंटे काम कर सकते हैं। 

कल तक सिने जगत से दीपिका पादुकोण सहित उद्योगपति हर्ष गोयनका ने एसएन सुब्रह्मण्यन के बयान पर आपत्ति दर्ज की थी, लेकिन आज सोशल मीडिया सहित उद्योग जगत से भी कई प्रमुख हस्तियों ने इस बयान की आलोचना की है। एक्टू और एटक जैसे ट्रेड यूनियनों की ओर से भी इस बयान पर तीखी टिप्पणियां आने लगी हैं। 

इतने बड़े पैमाने पर लानत-मलामत के सिलसिले को देखकर एकबारगी लग सकता है कि कॉर्पोरेट जगत और भारतीय मध्य वर्ग की नाराजगी से नारायण मूर्ति और सुब्रह्मण्यन जैसे कॉर्पोरेट दिग्गज अपनी सोच को लेकर पुनर्विचार करने को मजबूर हो रहे होंगे, लेकिन भारत की जमीनी हकीकत को भी देखें तो असल में ऐसा कुछ भी नहीं है। 

पूंजीवाद को खुलकर खेलने का मौका तब मिलता है जब डिमांड और सप्लाई में उसके पास खेलने के लिए मौके होते हैं। भारत में तो उसे यह मौका केंद्र सरकार की नीतियों के माध्यम से थाली में सजाकर परोसा जा चुका है। देश में छोटे और मझौले उद्योगों को पहले ही नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना महामारी की आड़ में कुचला जा चुका है। भारतीय अर्थव्यवस्था कमोबेश पूरी तरह से औपचारिक अर्थव्यवस्था पर निर्भर हो चुकी है।

देश में पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं की संख्या में हर साल डेढ़ करोड़ का इजाफ़ा हो रहा है, जबकि संगठित क्षेत्र पर कुछ दर्जन भर कॉर्पोरेट समूह का एकाधिकार पूरी तरह से स्थापित हो चुका है। इसके बाहर न तो काम है और यदि है भी तो आगे चलकर उन उद्योगों के भी इन बड़े कॉर्पोरेट के द्वारा उदरस्थ कर लिए जाने की पूरी-पूरी संभावना बनी हुई है। 

ऐसे में नियोक्ताओं के पास तानाशाहीपूर्ण रवैये को अख्तियार करने के पूरे-पूरे मौके उपलब्ध हैं। ऊपर से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 18-18 घंटे काम करने की वाचालता को मुखर स्वर देना इन कॉरपोरेट्स के लिए अपने एजेंडे को बढ़ाने के ही काम आता है।

सुब्रह्मण्यन साहब ने 2023 में एल&टी का कार्यभार संभाला था, जिनका पारिश्रमिक 2024 में 51 करोड़ रुपये वार्षिक रहा। इतना ही नहीं एक वर्ष में उनके पारिश्रमिक में 41% की भारी वृद्धि हुई है। वहीं एलएंडटी कर्मचारियों की औसत आय को देखें तो वह सालाना 9.55 लाख रुपये है। यानि एलएंडटी के चेयरमैन और कंपनी की औसत सैलरी में 534 गुने का अंतर है। 

तुलसीदास की चौपाई में एक जगह कहा गया है कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जिसका अर्थ है कि दूसरों को उपदेश देना काफी आसान है। यहां पर 534 गुना कमाई करने वाला उपदेश दे रहा है कि सप्ताह में 48 घंटे काम की जगह 90 घंटे काम करो, क्योंकि राष्ट्र निर्माण का यही रास्ता है। 

हर मुनाफाखोर पूंजीपति अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए राष्ट्र निर्माण की आड़ लेता दिख सकता है। उत्पादकता को बढ़ाने के लिए शोध पर निवेश के नाम पर हमारे देश के कॉर्पोरेट की फूंक सरक जाती है। वो चाहे आईटी कंपनियां चला रहे नारायण मूर्ति हों या इंजीनियरिंग और कंस्ट्रक्शन दिग्गज एलएंडटी हो, इन सभी के लिए पश्चिम की टेक्नोलॉजी पर निर्भरता और भारतीय सस्ते श्रम से मुनाफाखोरी कभी खत्म न होने वाली भूख बरकरार रहने वाली है।

ऐसा भी नहीं है कि नारायण मूर्ति और सुब्रह्मण्यन जैसों को हकीकत का पता नहीं है। वे बखूबी जानते हैं कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में लक्समबर्ग 1,28,280 डॉलर के साथ विश्व में अव्वल स्थान पर है। लेकिन लक्समबर्ग में काम के घंटे प्रति सप्ताह मात्र 33.7 हैं, जो दुनिया में सबसे कम है। 

जिस चीन का उदाहरण एलएंडटी के चेयरमैन बड़ी शान के साथ बता रहे हैं, वहां भी काम के घंटे सप्ताह में 45.7 है, जबकि भारत में या औसत 49.9 घंटे है। यदि काम के ज्यादा घंटे ही उत्पादकता का पैमाना होता तो भारत को चीन और लक्समबर्ग से ज्यादा तेजी से अर्थव्यवस्था में वृद्धि और आम लोगों की खुशहाली का साधन बन जाना चाहिए था।

लेकिन असल हकीकत तो यह है कि देश का क्रोनी कॉर्पोरेट, जिसे सरकारी प्रश्रय के तहत अनैतिक तरीकों से सरकारी ठेके और सार्वजनिक संपत्ति की लूट का भरपूर मौका मिला हुआ है, देश में बढ़ती बेरोजगारी और सस्ते श्रम की उपलब्धता नरपिशाच बनने के लिए उकसा रही है।

विश्व का इतिहास साक्षी है कि मुक्त पूंजीवाद के दौर में तेजी से बढ़ते श्रमिक वर्ग को काम के घंटों को सम्मानजनक पर लाने के लिए यूरोप और अमेरिका में लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। इंग्लैंड और फ़्रांस में 16-16 घंटों तक काम करने वाले श्रमिकों की अकाल मृत्यु और जानवरों से भी बदतर जीवन परिस्थियों को उस समय के साहित्य और क्लासिक फिल्मों के माध्यम से समझा जा सकता है।

ये तो भला हो 1917 में सोवियत क्रांति का, जिसके यूरोप और अमेरिका में महामारी की तरह फ़ैल जाने का खतरा, 1929 की भयानक आर्थिक मंदी ने पश्चिमी मुल्कों को कींस के आर्थिक सिद्धांत वाले सोशल वेलफेयर मार्ग पर चलने के मजबूर कर दिया था। 

लेकिन 90 के दशक में सोवियत रूस के विघटन के साथ ही रीगन और थैचर के द्वारा नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था ने एक बार फिर से पूंजीवाद के उसी कुरूप चेहरे को दोगुने आक्रामक स्वरुप के साथ सामने ला खड़ा कर दिया है।

भारत जैसे विकासशील देशों में आर्थिक विषमता ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के समान या उससे भी बदतर हो चुकी है। इससे भी बड़ी बात, इस ट्रेंड में बदलाव की कोई सूरत भी नजर नहीं आती। हमारी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आयातित तकनीक, उत्पादों की प्रोसेसिंग और निर्यात पर निर्भर हो चुकी है। ऊपर से विनिर्माण और कृषि आधारित उद्योग पर फोकस के बजाय वित्तीय एवं सर्विस इंडस्ट्री से मुनाफा कमाने पर केंद्रित अर्थव्यवस्था शेयर बाजार के हिचकोलों पर निर्भर है। 

उद्योगों की उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर सीइओ की सैलरी में कई गुना का इजाफ़ा, कंपनियों के भीतर हायर और फायर की पालिसी को ही तेजी से बढ़ा रहा है। नतीजा, नयी पीढ़ी में अवसाद, अकेलापन, असुरक्षा की भावना और आत्महत्या की प्रवृति तेजी से बढ़ी है। 

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) भी सप्ताह में अधिकतम 48 घंटे काम करने की अनुशंसा करता है, जिसमें प्रतिदिन आठ घंटे से अधिक काम नहीं करना चाहिए। लेकिन भारत में कई लोग इस सीमा से अधिक काम कर रहे हैं।

इस बारे में मैकिन्से हेल्थ इंस्टीट्यूट ने 2023 में एक सर्वेक्षण किया था, जिसके अनुसार 59% भारतीयों ने बर्नआउट के लक्षणों की रिपोर्ट की थी, जो वैश्विक स्तर पर सबसे ऊंची दर पाई गई थी। इतना ही नहीं, 62% भारतीय श्रमिकों को अपने कार्यस्थल पर थकावट का अनुभव करने की रिपोर्ट भी है, जो सर्वेक्षण में शामिल सभी देशों में सबसे अधिक पाई गई थी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और ILO के मुताबिक, प्रति सप्ताह 55 या उससे ज्यादा घंटे काम करने से स्ट्रोक का जोखिम 35% और इस्केमिक हृदय रोग से मरने का जोखिम 17% बढ़ जाता है, जबकि मानक 35-40 घंटे के कार्य सप्ताह में ऐसा नहीं होता है।

लेकिन इन सभी साक्ष्यों और हकीकत से भारतीय क्रोनी पूंजीपतियों को रत्ती भर का फर्क पड़ेगा, इसमें संदेह है। 94% आबादी पहले ही अनौपचारिक क्षेत्र में हाशिये पर जीवन निर्वाह कर रही है। यह लड़ाई 6% औपचारिक क्षेत्र के उन शिक्षित मध्य वर्ग की है, जिसने अच्छे दिन की आस लगाकर पूरे जतन से इन्हीं कॉर्पोरेट वर्ग को अपना भगवान मान रखा था। आज उन्हीं के सिर पर पैर रखकर बिना किसी वेतन वृद्धि के यदि मालिक मुनाफे को दोगुना करने का ख्वाहिशमंद है तो इस नवउदारवादी मनोदशा में खुद को वाइट कालर स्टाफ समझ प्रतिकार कर पाना हर्गिज संभव नहीं है।    

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author