Friday, March 29, 2024

प्रधानमंत्री की ऐसी और इतनी बेअदबी के लिए आखिर जिम्मेदार कौन?

भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना के बीच जारी तनातनी के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले सप्ताह सोमवार यानी 25 अप्रैल को जब लता दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार ग्रहण करने मुंबई पहुंचे तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे उनकी अगवानी के लिए हवाई अड्डे पर नहीं गए। बाद में वे उस कार्यक्रम में भी शामिल नहीं हुए जिसमें लता मंगेशकर के परिजनों ने प्रधानमंत्री मोदी को सम्मानित किया।

भाजपा का कहना है कि प्रधानमंत्री किसी राजनीतिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए मुंबई नहीं पहुंच थे, इसलिए शिष्टाचार का तकाजा था कि मुख्यमंत्री को उनकी अगवानी करनी चाहिए थी। हालांकि शिव सेना की ओर से इस बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा गया, लेकिन बताया जाता है कि पुरस्कार समारोह के निमंत्रण पत्र में मुख्यमंत्री का नाम नहीं था, जिसे उद्धव ठाकरे ने अपना और राज्य की जनता का अपमान माना और इसीलिए वे उस कार्यक्रम में नहीं गए। यह भी कहा जा रहा है कि लता मंगेशकर के परिजनों ने भाजपा और शिव सेना के तनावपूर्ण रिश्तों के मद्देनजर निमंत्रण पत्र में मुख्यमंत्री का नाम नहीं डाला।

जो भी हो, लेकिन यह पहला मौका नहीं था जब मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने सूबे में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम से इस तरह दूरी बनाई हो। दो महीने पहले 6 मार्च को जब प्रधानमंत्री पुणे में मेट्रो रेल परियोजना का उद्घाटन करने पहुंच थे तो उद्धव ठाकरे उस कार्यक्रम से भी दूर रहे थे।

बहरहाल, उद्धव ठाकरे पहले ऐसे विपक्षी मुख्यमंत्री नहीं हैं, जिन्होंने अपने सूबे में आए प्रधानमंत्री के कार्यक्रम से अपने को अलग रखा हो। इसी साल 5 फरवरी को जब प्रधानमंत्री मोदी संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण करने हैदराबाद पहुंचे थे तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव उनकी अगवानी करने न तो हवाई अड्डे पर पहुंचे थे न ही बाद में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में शामिल हुए।

इस वाकये से ठीक एक महीने पहले पांच जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी पंजाब के बठिंडा पहुंचे थे और वहां उनकी अगवानी के लिए सूबे के तत्कालीन मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मौजूद नहीं थे। प्रधानमंत्री को हुसैनीवाला में शहीद स्मारक पर जाना था और कुछ परियोजनाओं का शिलान्यास करना था। यह अलग बात है कि किसान आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री की वह यात्रा पूरी नहीं हो सकी थी और कथित सुरक्षा चूक के मामले से भारी विवाद पैदा हो गया था।

उससे पहले पिछले साल पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही हुआ था। प्रधानमंत्री 28 मई को चक्रवाती तूफान का जायजा लेने जब बंगाल पहुंचे थे तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनके साथ समीक्षा बैठक में शामिल नहीं हुई थीं। प्रधानमंत्री उनका इंतजार करते रहे लेकिन ममता बनर्जी ने आकर उन्हें नमस्ते किया और कुछ जरूरी कागज उन्हें थमा कर चली गईं।

मोदी और ममता के बीच संबंधों की यह तल्खी इसी साल 23 जनवरी को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के मौके पर कोलकाता में आयोजित कार्यक्रम में भी देखी गई। ममता बनर्जी के भाषण के दौरान प्रधानमंत्री की मौजूदगी में जय श्रीराम के नारे लगे थे, जिससे नाराज होकर वे अपना भाषण पूरा किए बगैर ही कार्यक्रम छोड़ कर चली गई थीं।

इसी तरह पिछले साल प्रधानमंत्री ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को टेलीफोन किया तो उसके बाद मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री सिर्फ अपने मन की बात करते हैं, बेहतर होता कि वे काम की बात करते और काम की बात सुनते। थोड़ा पीछे जाएं तो साल 2015 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो प्रधानमंत्री को कायर और मनोरोगी तक कह दिया था।

ये कुछ प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा और सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। सवाल है कि आखिर पिछले आठ साल में ऐसा क्या हुआ है, जो विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री के प्रति ऐसी उपेक्षा या बेअदबी भरा बर्ताव कर रहे हैं? राजनीति में वैचारिक टकराव पहले भी रहा है और पहले भी केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रही हैं, लेकिन ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।

तो सवाल यह भी उठता है कि अभी जो हो रहा है, क्या उसे भाजपा विरोधी पार्टियों की राजनीतिक असहिष्णुता या दुराग्रह मान कर खारिज किया जा सकता है या इसके कुछ गंभीर कारण हैं, जिनकी पड़ताल और निराकरण जल्द से जल्द होना चाहिए? असल में प्रधानमंत्री के प्रति देश के अलग-अलग राज्यों में उभर रही इस किस्म की प्रवृत्ति को गंभीरता से समझने की जरूरत है। आखिर ऐसा क्या हुआ है कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं के मुख्यमंत्री इस तरह का बरताव कर रहे हैं?

सबसे पहले इस तथ्य को रेखांकित करने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री के प्रति बेअदबी की लगभग सारी घटनाएं पिछले एक साल की हैं। उससे पहले राजनीतिक विरोध के बावजूद सामान्य शिष्टाचार था और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी होता था। हालांकि इसके बीज पड़ने लगे थे, जिसकी तार्किक परिणति ऐसी ही होनी थी। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही इसकी शुरुआत हो गई थी। विरोधी दलों और उनके नेताओं के प्रति प्रधानमंत्री की अपमानजनक बातें शुरू में जरूर अटपटी लगी थीं। चूंकि भाजपा और मोदी ने काफी बड़ी जीत हासिल की थी, इसलिए विपक्षी नेताओं ने यह सोच कर बर्दाश्त किया कि जीत की खुमारी उतर जाने पर प्रधानमंत्री राजनीतिक विमर्श में सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार और भाषायी शालीनता का पालन करने लगेंगे। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ और लगा कि ऐसा करना मोदी की राजनीतिक शैली का स्थायी भाव है, तब विपक्षी नेताओं के सब्र का बांध टूटा और उसमें सारे राजनीतिक शिष्टाचार बहते गए।

देश में शायद ही कोई ऐसा विपक्षी मुख्यमंत्री या नेता होगा, जिसके लिए प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से अपमानजनक बातें या गाली-गलौज नहीं की होगी। मोदी उन्हें भ्रष्ट, परिवारवादी, लुटेरा, नक्सली, आतंकवादियों का समर्थक और देशद्रोही तक करार देने में भी संकोच नहीं करते हैं। इस सिलसिले में वे पूर्व प्रधानमंत्रियों और विपक्ष की महिला नेताओं को भी नहीं बख्शते हैं और उनके लिए बेहद अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करते रहते हैं।

मोदी ने यह सिलसिला सिर्फ चुनावी सभाओं तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि संसद में, संसद के बाहर विभिन्न मंचों पर और यहां तक कि विदेशों में भी वे विपक्षी नेताओं पर निजी हमले और अपमानजनक बातें करने से नहीं चूकते हैं। फिर विपक्ष शासित राज्यों के प्रति उनकी सरकार के भेदभावपूर्ण व्यवहार ने भी केंद्र और राज्यों के बीच खटास पैदा की है। केंद्रीय एजेंसियां विपक्षी नेताओं और उनके परिजनों के यहां छापे मार रही हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ कर कार्रवाई की जा रही है, खास कर चुनावों के वक्त। केंद्र सरकार की मनमानियों और विपक्षी नेताओं के प्रति अपमानजनक बर्ताव का नतीजा है कि आज केंद्र-राज्य संबंध किसी भी समय के मुकाबले सबसे बदतर स्थिति में हैं।

प्रधानमंत्री ने तमाम विपक्षी दलों को अपने, अपनी पार्टी और देश के दुश्मन के तौर पर प्रचारित किया और उन्हें खत्म करने का खुला ऐलान किया है। वे हर जगह डबल इंजन की सरकार का ऐसा प्रचार करते हैं, जैसे विपक्ष की सारी सरकारें जनविरोधी, देश विरोधी और विकास विरोधी हैं। प्रधानमंत्री की इस राजनीति ने विपक्षी पार्टियों को सोचने के लिए मजबूर किया। इसलिए आज अगर प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर आंच आ रही है और उनकी बेअदबी हो रही है तो इसके लिए प्रधानमंत्री का अंदाज-ए-हुकूमत और अंदाज-ए-सियासत ही जिम्मेदार है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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