Friday, April 19, 2024

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना (17 मई 1934) के 86 वें वर्ष पर विशेष: हम में समाजवादी कौन है?

जब कोरोना महामारी के प्रसार को रोकने के लिए सरकार की ओर से बिना विचारे किए गए लॉकडाउन के कारण लाखों मजदूर घनघोर कष्ट सहकर शहरों से गांवों की ओर पलायन कर रहे हों और कई राज्य सरकारें वर्षों के संघर्ष के बाद बनाए गए श्रम कानूनों को मुअत्तल कर रही हों, तब प्रतिक्रांति के इस दौर में यह पूछने का समय आ गया है कि हम में से समाजवादी कौन है ? साम्राज्यवाद के प्रचंड दौर में आज से 86 वर्ष पहले 17 मई 1934 को पटना में अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी तब भी उसमें कई तरह से मतभेद थे और आज भी उस विरासत के दावेदारों में मतभेद हैं। लेकिन तब एक विश्वास था विचारधारा में और संघर्ष करने वालों की क्षमताओं पर। वह मतभेद ऐसे लोगों में थे जो अगर यूरोप में होते तो अकेले ही एक- एक देश का निर्माण करने की क्षमता रखते थे। लेकिन आज जब आंदोलन और विचार का प्रभाव क्षीण हो चुका है और ऐसे लोग हैं जो पूरे देश में प्रसिद्ध होकर भी एक सूबे और जनपद में भी पर्याप्त प्रभाव नहीं रखते, तब बेहद गहरे मतभेदों के कारण यह सवाल लाजिमी है कि हम में से समाजवादी कौन है

देश दुनिया के जाने माने राजनीति शास्त्री और स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव कहते हैं कि समाजवाद गांव का वह पुराना मकान है जिसकी चर्चा हर कोई करता है और उसके खिड़की दरवाजों की पुरानी डिजाइन सबको याद आती है लेकिन उसमें जाकर कोई रहना नहीं चाहता। यह प्रतीकों में कही गई एक गूढ़ बात है जिसे सुनकर समाजवादी एकता की बात करने वाले लोग भड़क जाते हैं। आरंभ में कांग्रेस से तालमेल रखने वाले योगेंद्र यादव आज कहते हैं कि देश के लोकतंत्र के लिए कांग्रेस पार्टी का समाप्त होना जरूरी है। तो क्या हम योगेंद्र यादव को समाजवादी मान सकते हैं ?

समाजवाद की दूसरी व्याख्या करने वाले डॉ. प्रेम सिंह हैं जो गैर- कांग्रेसवाद और गैर- भाजपावाद के सिद्धांत का पालन करते हुए दोनों पार्टियों से पर्याप्त दूरी बनाए रखने की नीति पर चलते हैं। उन्होंने राजिंदर सच्चर, भाई वैद्य और पन्नालाल सुराणा के साथ सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को हैदराबाद में फिर से इसलिए स्थापित किया ताकि उस पुरानी विरासत को कायम किया जा सके जो मिटती जा रही थी और उसमें विचारों की शुद्धता बरकरार हो सके। वे सारी बुराइयों की जड़ नवउदारवाद को मानते हैं और उनकी हर समस्या की व्याख्या और समाधान उसी खाड़ी में जाकर गिरते हैं। लेकिन वे विचारों की शुद्धता के कारण अपने दायरे को एक सीमा से ज्यादा बढ़ाना नहीं चाहते। ऐसे में विजय प्रताप जैसे राजनीतिकों की वह बात सटीक बैठती है कि ऐसे लोग 24 कैरेट की शुद्धता चाहते हैं जो होती नहीं। वे बहुत सारी चीजों को मिलाकर नया आंदोलन खड़ा करने का सुझाव देते हैं। हालांकि कई बार उनकी इस मिलावट में धर्म, परंपरा और दूसरी धाराओं के ऐसे ऐसे मसाले दिख जाते हैं जो समाजवाद के मूल तत्व को ही नष्ट करते लगते हैं।

यहां डॉ. सुनीलम जैसे योद्धा हैं जिन्हें अपनी उम्र से ज्यादा सालों की सजाएं हो चुकी हैं और जो सदैव संघर्ष करते रहने में यकीन करते हैं। चाहे दो ही लोग नामलेवा हों लेकिन वे समाजवाद का नाम छोड़ने वाले नहीं हैं। वहीं राजकुमार जैन जैसे पुराने योद्धा हैं जो ग्वालियर के राजनेता रमाशंकर सिंह के सहयोग से एक शैक्षणिक संस्थान के माध्यम से समाजवाद के विचार के दीये को जलाए रखना चाहते हैं। इस कोशिश में भी कई प्रकार के समझौते होते दिखते हैं। तो रघु ठाकुर जैसे फकीर राजनीतिक हैं जो अपनी अलग ही कुटी बनाकर जीते हैं। डॉ. संदीप पांडे भी इसी गोत्र के सदस्य हैं जो विश्व शांति से लेकर मानवाधिकारों तक के लिए अनवरत व्यवस्था से संघर्ष करने में जुटे रहते हैं। इस श्रृंखला में डॉ. आनंद कुमार जैसे समाजशास्त्री और राजनीतिज्ञ हैं जो अपने ज्ञान और वाक कौशल से मंत्रमुग्ध करने वाली व्याख्या करते हैं लेकिन अपने पीछे न तो कोई जनाधार रखते हैं और न ही कोई संगठन।

वहीं कुरबान अली जैसे लोग हैं जो मानते हैं कि समाजवादियों ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से निकटता बनाकर और संविधान सभा का  बायकाट करके बड़ी गलती की थी और पहले उसके लिए हमें क्षमा मांगनी चाहिए। समाजवादियों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणा के तौर पर हम मेधा पाटकर को देख सकते हैं जिनकी आंदोलनात्मक उपस्थिति से राकेश दीवान, चिन्मय मिश्र और सचिन कुमार जैन जैसे कर्मठ लोग एक परिवेश निर्मित करते हैं। लगता है कि जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के साथ समाजवादी आंदोलन पर्यावरण और मानवाधिकार के लिए संघर्ष करने वाले नए कर्म के रूप में जिंदा है। चंपारण आंदोलन व पंजाब में प्रवासी मजदूरों पर असाधारण काम करने वाले पत्रकार और इतिहासकार अरविंद मोहन की अपनी भूमिका है लेकिन वह सिर्फ बौद्धिक दायरे में सिमट कर रह गई है।

बंगलुरू में रहने वाले जसवीर, लखनऊ के रामकिशोर और डॉ. रमेश दीक्षित और प्रेस काउंसिल के सदस्य जयशंकर गुप्त का योगदान कम महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन वह भी किसी संगठन से नहीं जुड़ पा रहे हैं। इन सबके पुरोधा और चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ने समाजवादी विचार और सिद्धांतों की न सिर्फ गांधीवादी व्याख्या की है बल्कि अपना जीवन भी उसी अनुरूप ढाल लिया है। उनकी अकेली लेकिन विराट बौद्धिक उपस्थिति से यह अहसास तो होता है कि समाजवादी सिद्धांत में कितनी प्रबल संभावना है और दुनिया का कल्याण मात्र उसी दर्शन में है। उन्हीं के समकक्ष भाषाशास्त्री और नृतत्व शास्त्री जी एन देवी का नाम भी उल्लेखनीय है जो राष्ट्रसेवा दल के माध्यम से इस विचार को पूरे देश के स्तर पर बढ़ा रहे हैं।  

यह नैतिक और वैचारिक समाजवादियों की लंबी श्रृंखला है जो सिर्फ दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों तक केंद्रित नहीं है बल्कि पूरे देश में किसी न किसी रूप में फैली हुई है। इस श्रृंखला में जिनके नाम का उल्लेख छूट गया है उनका संघर्ष और काम कहीं से भी कम नहीं है। यह लोग एक दूसरे से कभी सहयोग करते हुए तो कभी खिंचे हुए और विरोध करते हुए समाजवाद और उसके आंदोलन की चर्चा करते हुए उसे बढ़ाते और जिंदा रखते हैं। इनकी चर्चाओं में समय-समय पर अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं की समाजवादी पृष्ठभूमि और उनके आज के कामों का मूल्यांकन किया जाता है। वहीं से यह व्यावहारिक दृष्टि भी निकलती है कि परिवार की विरासत के रूप में पार्टी को चलाने वाले या भाजपा से मिलकर सरकार चलाने वाले भी समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करने के काम में कभी कभी सहायक भूमिका निभा सकते हैं। 

समसामयिक भ्रम के इस वातावरण में उन कार्यक्रमों पर निगाह डालना जरूरी है जो 17 मई 1934 को कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना बैठक में पारित हुआ था। अपनी चर्चित पुस्तक `सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरैक्शन इन इंडिया’—में समाजवादी विचारक मधु लिमए उन कार्यक्रमों का वर्णन इस प्रकार करते हैं:——

1— देश के आर्थिक जीवन का विकास और नियंत्रण सरकार करेगी। 

2-प्रमुख उद्योगों जैसे कि इस्पात, कपास, जूट, रेलवे, जहाज रानी, वृक्षारोपण, खनन, बैंक, बीमा और सार्वजनिक उपयोग जैसे क्षेत्रों का सामाजीकरण। इसका लक्ष्य उत्पादन, वितरण और विनिमय के क्षेत्रों का उत्तरोत्तर सामाजीकरण। 

3– बिना मुआवजा दिए रियासतों, जमींदारों और शोषण करने वाले तमाम वर्गों का उन्मूलन।

4-जमीनों का किसानों में पुनर्वितरण। 

5-सरकार द्वारा सहकारिता और सामूहिक खेती को बढ़ावा देना। 

लेकिन मधु लिमए भी अपनी पुस्तक के अंत में मानते हैं कि 1934 में बने यह सारे कार्यक्रम आज के दौर में अप्रासंगिक हो चुके हैं। सामूहिक खेती के कार्यक्रम को छोड़ने वाले सबसे पहले समाजवादी ही थे। एक रोचक तथ्य यह है कि जिस सम्मेलन में अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी उसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया ने यह प्रस्ताव पेश किया था कि इस पार्टी का उद्देश्य देश की आजादी भी होनी चाहिए। तब एमआर मसानी और संपूर्णानंद जैसे नेताओं ने उसका विरोध किया था। उनका कहना था कि समाजवाद के लक्ष्य में आजादी अपने आप शामिल है। फिर अगर इस समय आजादी का लक्ष्य रखा जाएगा तो अंग्रेज सरकार को पाबंदी लगाने में सुविधा होगी। आखिरकार अध्यक्ष आचार्य नरेंद्र देव के समर्थन के बावजूद तब डॉ. लोहिया का प्रस्ताव गिर गया था। संभव है इस देश में कुछ समय बाद `समाजवाद’ शब्द के प्रयोग पर वैसी ही पाबंदी की आशंका हो।

मधु लिमए ने यह पुस्तक 1991 में उस समय तैयार की थी जब दुनिया में नवउदारवाद की शुरुआत हुई थी और बाद में भाजपा के साथ सरकार बनाने वाले जार्ज फर्नांडिस 60 साल के हुए थे। उन स्थितियों को महसूस करते हुए मधु जी ने लिखा था कि अब वे कार्यक्रम तो संभव नहीं हैं लेकिन समाजवाद को नई सामाजिक व्यवस्था बनाने के लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए। वे दुनिया के पूंजीवादी देशों में पैदा हुई सूचना और बायोटेक्नालाजी की नई प्रौद्योगिकी की भूमिका को खारिज नहीं करते बल्कि उसके उपयोग का सुझाव देते हैं। उनका कहना है कि समाजवादियों को जिस सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है उसमें विकेंद्रीकरण, न्याय, इंसानी रिहाइश की सुरक्षा, व्यक्तिगत संतोष, सद्भावपूर्ण जीवन और भौतिक संपदा के ज्यादा से ज्यादा अपनाए जाने के विरुद्ध एक मर्यादित जीवन स्तर शामिल है। उनका कहना है “ अगर समाजवाद को पुनर्जीवित करना है तो उसे उपभोक्तावादी चाहत के प्रति अपने नजरिए की नई व्याख्या करनी होगी।

अगर हमारा पारिस्थितिकी, पर्यावरण और समता व न्याय के प्रति कोई सरोकार नहीं है, हम आम आदमी के प्रति उदासीन हैं तो हम समाज को विशुद्ध पूंजीवाद की ओर जाने से नहीं रोक सकते। वे यह भी चेतावनी देते हैं कि हमें पूरी तरह से राज्य के नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था की मृगतृष्णा और यूटोपिया छोड़ देनी चाहिए। न ही हमें धर्म के उन्मूलन और जातीय और धार्मिक पहचान को समाप्त करने का स्वप्न देखना चाहिए।’’ वे इन्हीं कार्यक्रमों के आधार पर सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट संगठनों और कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय की संभावना देखते हैं। साथ ही वे सुझाव देते हैं कि जहां समाजवादियों को संसदीय राजनीति करते हुए सामाजिक परिवर्तन के लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए वहीं कम्युनिस्टों को संसदीय राजनीति करने के साथ सर्वहारा की तानाशाही के कल्पित उद्देश्य और हिंसा को साधन के रूप में अपनाने की किसी संभावना को भी त्याग देना चाहिए।

मधु लिमए अपने दूसरे ग्रंथ `बर्थ आफ नान- कांग्रेसिज्म’ (गैर कांग्रेसवाद का जन्म) में गैर कांग्रेसवाद की कहानी कहते हुए यह स्पष्ट करते हैं, “  यह डॉ. लोहिया का एक असैद्धांतिक कर्म था जो उन्होंने कांग्रेस को हराने और देश में विपक्ष खड़ा करने के लिए तैयार किया था। जो लोहिया कांग्रेस पार्टी की इस आधार पर आलोचना करते थे कि वह समझौता और आम राय की सिद्धांतहीन राजनीति करती है उन्होंने ही विपक्षी दलों के बिखरे हुए वोटों को एक करने के लिए वैसी ही गैरकांग्रेसवाद की रणनीति बनाई। लोहिया बौद्धिक गोलमाल और अस्पष्टता के विरोधी थे।

वे वायवीय स्थापनाओं की जगह पर मूर्त अवधारणाओं के हिमायती थे लेकिन गैर कांग्रेसवाद में उन्होंने वही सब किया जिसके वे विरोधी थे।’’ इसीलिए 1963 में राजकोट, फर्रुखाबाद, अमरोहा और जौनपुर लोकसभा क्षेत्र के चार उपचुनावों में जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उनके करीबी लोगों ने उनकी आलोचना की। आलोचना करने वालों में मधु लिमए, जार्ज फर्नांडिस और उनकी जीवनी लेखक इंदुमति केलकर भी शामिल थीं। बाद में मधु लिमए और जार्ज फर्नांडिस दोनों ने पार्टी की विचारधारा को बचाए रखने के लिए ही एसएसपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया। 

लोहिया ने उस समय भी जनसंघ की कड़ी आलोचना की जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) का नाम बदलने के लिए आंदोलन चला और जनसंघ ने उनका साथ नहीं दिया बल्कि इस मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से समझौता कर लिया और शास्त्री जी ने भी पार्टी के भीतर विरोध देखते हुए हाथ पीछे खींच लिया। लोहिया चाहते थे कि उसका नाम काशी विश्वविद्यालय रखा जाए। उन्हें जनसंघ का सांप्रदायिक चरित्र उस समय भी दिखता था लेकिन वे उस संगठन को बड़ा खतरा नहीं मानते थे।  

संपूर्ण क्रांति का आह्वान करने वाले जय प्रकाश नारायण को भी जनसंघ की भूमिका के बारे में शिकायतें मिलती रहती थीं लेकिन वे अपने बिहार आंदोलन में समाजवादियों की टीम से घिरे थे इसलिए निश्चिंत थे कि उनका प्रभाव कायम रहेगा। वे कहते भी थे कि इस आंदोलन में जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सीमित भूमिका निभा रहे हैं। वे आपत्ति करने वाले कम्युनिस्टों से कहते भी थे कि आप आंदोलन में आ जाइए तो संघ अपने आप दरकिनार हो जाएगा। जबकि सीपीएम के लोग कहते थे कि पहले उन्हें बाहर करो तब हम आएंगे। 

आज अपनी स्थापना के 86 वर्ष बाद देश दुनिया के लंबे अनुभव लेकर समाजवादी आंदोलन ऐसी राह पर खड़ा है जहां उसे कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं बाहें फैलाए हुए। उसके सामने कमजोर पड़ते पूंजीवाद का विकल्प प्रस्तुत करने का अवसर है तो 1930 के दशक की तरह इटली और जर्मनी के फासीवाद और नाजीवाद के सामने कुचल दिए जाने का खतरा भी। समाजवादी आंदोलन के पास विचारों और संघर्षों की लंबी विरासत है। उसके पास त्यागी और तपस्वी लोगों की बड़ी फेहरिस्त है। अगर वे और कम्युनिस्ट, समाजवादी आंदोलन के वैश्विक सहोदर हैं तब तो वह विरासत और भी बड़ी हो जाती है। समाजवाद पर विदेशी उत्पत्ति का आरोप भी है जिसके जवाब में आचार्य नरेंद्र देव ने कहा था, “  पूंजीवाद भी तो यूरोप में ही पैदा हुआ है। आप पूंजीवाद को नष्ट कर दो हमें समाजवाद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।’’ 

समाजवाद के लिए महात्मा गांधी से आखिरी दिनों में डॉ. राम मनोहर लोहिया का उसी तरह झगड़ा हुआ था जैसे कोई पुत्र या पोता अपने पिता या दादा से झगड़ता है। डॉ. लोहिया उनसे कह रहे थे कि वे घोषणा कर दें कि नेहरू ही इस देश के सबसे श्रेष्ठ नेता नहीं हैं और गांधी कह रहे थे कि मैंने ऐसा कभी कहा ही नहीं। इस पर लोहिया उन्हें झूठा कह रहे थे। तब गांधी ने उन्हें अकेले में बुलाया और उनके अतिरिक्त काफी पीने और सिगरेट पीने पर सवाल करते हुए उन्हें जीवन शैली बदलने पर समझाने लगे। वह बहुत रोचक संवाद है जिसमें लोहिया के भीतर प्रेम और तर्क के बीच गजब का द्वंद्व चल रहा है। इसी कड़ी में जेपी, लोहिया और दूसरे समाजवादी नेताओं के साथ गांधी जी की अंतिम मुलाकात महत्वपूर्ण है। उसमें वे लोग गांधी जी से समाजवाद पर उनके विचार जानना चाहते थे और गांधी जी ने कहा था कि पहले जाकर गांव में रहो और सादगी से जीओ तब समाजवाद पर बात करो। यह कह कर उन्होंने कहा कि अब बाद में आना मुझे किसी मीटिंग में जाना है। 

आज बदली हुई स्थितियों में समाजवाद नरेंद्र देव की राष्ट्रीयता और समाजवाद की पटरी पर लौट आया है। नरेंद्र देव ने चेतावनी दी थी कि कम्युनिस्ट देशों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन किया है इसलिए वहां समाजवाद का लंबे समय तक भविष्य नहीं है। संयोग से वैसा हुआ भी। इसी तरह देशभक्ति की उपेक्षा करने वाला भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन भी बड़ी विजय नहीं हासिल कर सका। समाजवाद का कोई भी आंदोलन देशभक्ति और राष्ट्रवाद को पुनर्परिभाषित किए बिना नहीं खड़ा होता। उसकी परिभाषा करने की यही दृष्टि उसे फासीवाद से अलग करेगी। आज समाजवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा और समता के साथ देशभक्ति, विश्व शांति व पर्यावरणवाद के मूल्यों के आधार पर खड़ा होगा। जो बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता और राजनेता अपनी सत्ता और करियर के लिए उन मूल्यों से समझौता करने के बजाय उनके लिए संघर्ष करेगा वही सच्चा समाजवादी होगा। 

कोरोना महामारी ने वैश्वीकरण और राष्ट्रवाद के छद्म सरोकारों को उजागर कर दिया है। उसने बता दिया है कि दुनिया में व्यक्ति की गरिमा की कद्र करने वाले और सूचनाओं की पारदर्शिता देने वाले लोकतंत्र की कितना जरूरत है। उससे भी कम जरूरी नहीं है प्रकृति के प्रति एक गहरी समझदारी और संरक्षण भरी दृष्टि। जाहिर सी बात है सच्चा समाजवादी ही मनुष्य और प्रकृति की चिंता करता है और वही आध्यात्मिक है। लेकिन यह सब वैज्ञानिक दृष्टि के बिना संभव नहीं है। क्योंकि विज्ञान हमें सत्य को जानने और समझने में सहायता करता है। 

यह दौर है जब समाजवादी 1934 की तरह एक मंच पर इकट्ठा हों और उन मूल्यों को संजोएं जिन्हें पूंजीवाद और उसकी विकृतियों से उत्पन्न हुई महामारी ने नष्ट करने का प्रयास किया है। यह समय मजदूरों और किसानों के दर्द को समझने और उनके एजेंडे की वापसी का है। समाजवादियों को इस एजेंडे को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। उनके सामने तीन रास्ते हैं। पहला रास्ता यह है कि वे नेहरू को दुश्मन मानते हुए मौजूदा शासक वर्ग के झांसा देने वाले आत्मनिर्भरता के नारे में उलझकर सारी समाजवादी विरासत को गैरकांग्रेसवाद के नाम पर उनकी झोली में डाल दें।

ऐसा कई लोग कर रहे हैं और वे मौजूदा निजाम से काफी सुविधा भी बटोर रहे हैं। दूसरा रास्ता यह है कि वे फिर कांग्रेस में प्रवेश करके कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन करें और यह सोचें कि यही कांग्रेस एक दिन राहुल गांधी के नेतृत्व में सोशलिस्ट बन जाएगी। ऐसा भी कुछ लोग कर रहे हैं लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं निकल रहा है। तीसरा रास्ता है सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट संवाद और एकजुटता का जिससे नए किस्म की ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है। इस रास्ते में कठिनाइयां जरूर हैं लेकिन लोकतंत्र और समता के नए रूप से दर्शन की संभावना भी है। तीसरे रास्ते पर चलना समाजवादियों का फर्ज है। इससे पिछड़े, दलितों और किसानों, मजदूरों का सबलीकरण होगा और वही इस दौर में समाजवादी होने की कसौटी भी होगी।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं। वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय और भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में अध्यापन का भी काम कर चुके हैं।)   

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