पुरातत्वविदों का दावा-‘लौह युग सबसे पहले तमिलनाडु में शुरू हुआ था’

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तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टॉलिन ने पूर्व-आधुनिक इतिहास पर नए शोध के आधार पर कहा है कि पुरातत्वविदों के अनुसार लौह युग सबसे पहले तमिलनाडु में शुरू हुआ था। तमिलनाडु में 5,300 साल पहले लोहा गलाया जाता था। अधिक सटीक अध्ययनों के अनुसार 3345 ईसा पूर्व में इस इलाके में सबसे पहले लोहे का इस्तेमाल शुरू हुआ। स्टॉलिन ने कहा कि यह खोज भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की हमारी समझ को एक नया आयाम देती है। उन्होंने गर्व से कहा, “मैं लगातार यह कहता आया हूँ कि भारत का इतिहास तमिलनाडु ने लिखा है”। उनके वक्तव्य से यह साफ है कि पुरातात्विक शोध से ऐतिहासिक आख्यान किस हद तक प्रभावित होते हैं। मगर प्रश्न यह है कि आज हजारों साल बाद इस बात का कितना महत्व होना चाहिए।

कई राष्ट्रवादी व नस्लवादी प्रवृत्तियां इस आधार पर समाज में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहती हैं कि “वे” उस देश में सबसे पहले आए थे। श्रीलंका में सिंहलियों एवं तमिल हिन्दुओं के बीच टकराव में तमिल हिन्दू, सिंहली नस्लवादी राष्ट्रवाद के शिकार बने थे। इस राष्ट्रवाद के पैरोकारों का दावा था कि चूंकि सिंहली वहां पहले आए थे इसलिए श्रीलंका उनका है।

इस मामले में भारत का हिन्दू राष्ट्रवाद भी कोई अलग नहीं है। उसने भी इस्लाम और ईसाई धर्म के “विदेशी” होने का हौवा खड़ा किया है। वह हिन्दुओं और आर्यों को एक मानता है और यह दावा करता आया है कि आर्य भारतीय भूमि के मूल निवासी हैं। यह दावा आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” में किया है। उन्होंने लिखा, “किसी भी विदेशी नस्ल के आक्रमण के आठ या शायद दस हजार साल पहले से हम हिन्दुओं का इस भूमि पर निर्विवाद एवं अबाधित कब्जा रहा है और इसलिए यह भूमि हिन्दुस्तान यानी हिन्दुओं की भूमि कहलाती है।” (गोलवलकर, 1939, पृष्ठ 6)

इसके विपरीत, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का मानना था कि आर्य, आर्कटिक इलाके से यहां आए थे। उन्होंने यह बात अपनी पुस्तक “आर्कटिक होम ऑफ द वेदास” में कही है। गोलवलकर ने तिलक की बात का खंडन किए बगैर आर्यों को भारत का मूलनिवासी बताने के लिए एक गज़ब की बात हमें बताई। उन्होंने बताया कि आर्कटिक क्षेत्र पहले उड़ीसा और बिहार के आसपास हुआ करता था। फिर वह यहां से उत्तर की तरफ खिसक गया। “….फिर वह उत्तर पूर्व की दिशा में खिसका और फिर कभी पश्चिम तो कभी उत्तर की तरफ यात्रा करते हुए वहां पहुंच गया जहां वह अब है।” अगर ऐसा सचमुच हुआ था तो सवाल यह है कि क्या हम आर्कटिक में रहते थे और फिर उसे छोड़कर हिन्दुस्तान आ गए या हम हमेशा से यहीं रहते थे और आर्कटिक हमें छोड़कर अपनी टेढ़ी-मेढ़ी यात्रा पर निकल गया।

यह सारी कलाबाज़ियां इसलिए की गईं ताकि किसी भी तरह से यह साबित किया जा सके कि आर्य इसी भूमि के मूलनिवासी हैं क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया जाएगा तो यह दावा कि मुसलमान विदेशी हैं, क्योंकि वो बाहर से आए हैं, मुंह के बल गिर जाएगा।

इस मामले में कई सिद्धांत एवं विचार प्रचलित हैं। यूरोप के कई अध्ययेताओं, जिनमें भारतविद मैक्स मूलर शामिल हैं, का कहना है कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया था। यह दावा आधारहीन है क्योंकि उस काल का समाज पशुपालकों का समाज था और पशुपालक एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे। मगर इस प्रवास को आक्रमण कहना ठीक नहीं है। आक्रमण तो बाद में तब शुरू हुए जब साम्राज्य और राज्य अस्तित्व में आए। इस संदर्भ में जो सबसे तार्किक सिद्धांत है वह भाषा विज्ञान व भूगर्भशास्त्रीय साक्ष्यों पर आधारित है और उसके अनुसार आर्य कई चरणों या लहरों में भारत आए।

इस भूमि पर आने के बाद आर्यों के सामने जो सबसे बड़ी बाधा या चुनौती थी वह थी सिन्धु घाटी की सभ्यता, जो उनके यहां आने के पहले से यहां मौजूद थी। यह सभ्यता आर्य सभ्यता से एकदम भिन्न थी। वह शहरी सभ्यता थी। कई तरह की कलाबाजियों और धूर्तताओं के जरिए यह साबित करने का प्रयास किया गया कि सिन्धु घाटी क्षेत्र में घोड़े के चित्र वाली सील मिली है। फ्रन्टलाईन में छपे एक लेख के अनुसार, सींग वाले बैल के चित्र को कम्प्यूटर के इस्तेमाल से घोड़े में बदल दिया गया। इसका उद्देश्य था सिन्धु घाटी की सभ्यता में आर्य संस्कृति का प्रतीक घोड़ा जोड़ना।

आज यह कोई नहीं मानता कि कोई नस्ल, किसी दूसरी नस्ल से उच्च या श्रेष्ठ होती है। ये सिद्धांत औपनिवेशिक ताकतों ने गढ़े थे, ताकि वे यह साबित कर सकें कि वे उच्च नस्ल के हैं और इसलिए उन्हें दूसरों पर शासन करने का हक है। उसी तरह ब्राह्मणवादी विचारधारा ने भी यह दावा किया कि ब्राह्मण और अन्य ऊँची जातियों के लोग अन्यों से श्रेष्ठ नस्ल के वंशज हैं। यह दावा कर वे समाज में अपनी उच्च स्थिति और वर्चस्व को औचित्यपूर्ण साबित कर सकते थे।

आर्यों के यहां आने से पूर्व विद्यमान सिन्धू घाटी की सभ्यता शायद किसी प्राकृतिक आपदा के कारण नष्ट हो गई और उसके कई रहवासी दक्षिण की तरफ चले गए। तो आज आर्य व सिन्धु घाटी की सभ्यता से संबंधित विवादों के मामले में हम कहां खड़े हैं? पूर्व के पुरातात्विक व भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों को त्रुटिरहित डीएनए जेनेटिक अध्ययनों ने पुष्ट किया है। पॉपुलेशन जेनेटिक्स (जनसंख्या अनुवांशिकी) किसी भी पूर्व-आधुनिक समाज के बारे में जानने का सबसे विश्वसनीय तरीका है।

कुछ वर्ष पहले एक भारतीय लेखक टॉनी जोसेफ ने अपनी पुस्तक “अर्ली इंडियन्स” में जनसंख्या अनुवांशिकी अध्ययनों एवं भाषा वैज्ञानिक व पुरातात्विक शोधों के नतीजों को जोड़ कर यह बताया था कि हम सभी मिश्रित नस्ल के हैं। भारत में कई चरणों में बाहर से लोग आए। पुस्तक के अनुसार करीब 65 हजार साल पहले दक्षिण अफ्रीका से पहली बार मनुष्य उस भूमि पर आया, जिसे हम आज भारत कहते हैं। डीएनए अध्ययनों के आधार पर टॉनी जोसेफ बताते हैं कि 7000 से लेकर 3000 ईसा पूर्व तक और उसके बाद आज से 2000 से 1000 साल पहले बड़े पैमाने पर अप्रवासी भारत आए। इनमें मध्य एशिया के घास के मैदानों से आए पशु पालक सम्मिलित थे। इस तरह आर्य और द्रविड़, दरअसल भाषाओं के समूहों के नाम हैं न कि अलग-अलग नस्लों के।

भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने देश के 12,000 साल पुराने इतिहास का दस्तावेजीकरण करने के लिए एक समिति बनाई है। जब डीएनए व अनुवांशिकी अध्ययनों से पहले ही यह साफ हो चुका है कि हम सब भारतवासी मिश्रित नस्ल के हैं तब इस समिति की जरूरत ही क्या है। दरअसल यह समिति इसलिए नियुक्त की गई है ताकि यह साबित किया जा सके कि हिन्दू (आर्य) इस देश के मूल निवासी हैं। जनसंख्या अनुवांशिकी अध्ययनों के बाद इस संबंध में नया खोजने के लिए कुछ विशेष बचा नहीं है। मगर यह सारी कवायद इसलिए की जा रही है कि ताकि भारत भूमि पर दावा किया जा सके और यह बताया जा सके कि हिन्दू धर्म के लोगों का इस धरती पर ज्यादा अधिकार है।

हमारा समाज सदियों से बदलता आया है। पहले घुमक्कड़ पशुपालकों के समूह हुआ करते थे जो एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते थे। फिर बादशाहतें कायम हुईं और अब दुनिया कई राष्ट्रों में विभाजित है। रबीन्द्रनाथ टैगोर एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते थे जिसमें राष्ट्रों के बीच की सीमाएं हो हीं न। ऐसी दुनिया कम से कम आज तो एक कल्पना ही लगती है।

हम यहां पहले आए थे, इसलिए यह जगह हमारी है – यह दावा साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की पहचान होता है। इस तरह के दावे भारतीय संविधान के मूल्यों और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा के खिलाफ हैं। हमें इस बात पर जोर देना है कि देश के सभी नागरिक, चाहे वे किसी भी धर्म में आस्था रखते हों या कोई भी भाषा बोलते हों, एक बराबर हैं। अपनी विचारधारा के अनुरूप इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और गड़े मुर्दे उखाड़ने की आज के समय में न तो कोई उपयोगिता है और न ही ज़रूरत। यह काम संबंधित विषयों के विशेषज्ञों और अध्येताओं पर छोड़ देना चाहिए। इस पर राजनीति करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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