Thursday, April 25, 2024

ठेके पर दिए जा चुके लाल किले को लेकर बेमतलब का राष्ट्रवादी विलाप

केंद्र सरकार के बनाए तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसान आंदोलन में दिल्ली का ऐतिहासिक लाल किला भी चर्चा में आ गया है। कृषि सुधार के नाम पर बनाए गए तीनों कानूनों को अपने लिए ‘डेथ वारंट’ मान रहे किसानों की ट्रैक्टर रैली में 26 जनवरी को कुछ जगह उपद्रव होने की खबरों के बीच सबसे ज्यादा फोकस इस बात पर रहा कि कुछ लोगों ने लाल किले पर तिरंगे के बजाय दूसरा झंडा फहरा दिया।

इस घटना से मीडिया के उस बड़े हिस्से की बांछें खिल गईं जो इस किसान आंदोलन को शुरू दिन से ही सरकार के सुर में सुर मिलाकर बदनाम करने में जुटा हुआ है। तमाम टेलीविजन चैनलों और कई अखबारों ने अपनी पारंपरिक अज्ञानता के सिलसिले को जारी रखते हुए इस घटना को तिरंगे का अपमान, देशद्रोह और उस झंडे को खालिस्तानी झंडा बताकर प्रचारित किया। इतना ही नहीं, यही बात सरकार ने संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी कहलवा दी।

मीडिया के प्रचार से प्रभावित होकर सरकार और सत्तारूढ़ दल के समर्थकों ने भी सोशल मीडिया पर पता नहीं क्या-क्या लिखा। जो लोग मुगल शासकों के बनाए लाल किले के प्रति हिकारत का भाव रखते आए हैं, उनके लिए भी इस घटना से यह ऐतिहासिक धरोहर अचानक राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गई। कुल मिलाकर इस पूरे प्रचार अभियान का केंद्रीय सुर यही रहा कि आंदोलन कर रहे आंदोलनकारी किसान देशद्रोही हैं और उनके आंदोलन को अब सख्ती से दबा देना चाहिए।

हालांकि यह सही है कि लाल किले पर जो कुछ हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। किसान संगठनों के आधिकारिक कार्यक्रम में भी ऐसा करना शामिल नहीं था। फिर भी उसमें देशद्रोह या तिरंगे के अपमान जैसा कुछ नहीं हुआ। पहली बात तो यह कि लाल किले पर नियमित लहराने वाले तिरंगे झंडे को किसी ने छुआ तक नहीं। उस तिरंगे के आगे जो एक पोल खाली रहता है और जिस पर सिर्फ 15 अगस्त के दिन ही तिरंगा फहराया जाता है, उस पर कुछ लोगों ने निशान साहिब (सिखों का धार्मिक झंडा) और किसान यूनियन का झंडा फहरा दिया था।

यह जाहिर होने में भी ज्यादा समय नहीं लगा कि यह झंडे फहराने वाले कोई और नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से जुडा पंजाबी फिल्म अभिनेता दीप सिद्धू और गैंगस्टर से नेता बना लक्खा सिदाना है। दीप सिद्धू की तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और कई अन्य भाजपा नेताओं के साथ पुरानी तस्वीरें भी सार्वजनिक हो चुकी हैं। इसीलिए अभी तक दोनों की गिरफ्तारी नहीं हुई है और इसीलिए इस पूरे घटनाक्रम को सरकार की साजिश भी माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन को पटरी से उतारने तथा उसे बदनाम करने के लिए सरकार की शह पर ही इन लोगों ने लाल किले पर यह नाटक रचा था।

हो सकता है कि ऐसा नहीं भी हुआ हो, तो भी सवाल है कि जिस लाल किले को सरकार तीन साल पहले ही एक औद्योगिक घराने को लीज पर दे चुकी है तो उसको लेकर ‘राष्ट्रीय गौरव’ जैसी बातों का राग अलापने का क्या मतलब है? यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि ‘देश नहीं बिकने दूंगा, देश नहीं झुकने दूंगा’ का राग आलापते हुए सत्ता में आए नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपनी ‘एडॉप्ट ए हैरिटेज’ योजना के तहत 17वीं सदी में पांचवें मुगल बादशाह शाहजहां के बनाए लाल किले को तीन साल पहले यानी जनवरी 2018 में रख-रखाव के नाम पर ‘डालमिया भारत समूह’ नामक उद्योग घराने को 25 करोड़ रुपए में सौंप दिया है। इसी उद्योग समूह ने लाल किले के साथ ही आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में स्थित गांदीकोटा किले को भी पांच साल के लिए सरकार से लीज पर लिया है।

जाहिर है कि देश के बेशकीमती संसाधनों- जल, जंगल, जमीन के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, सेना, रेलवे, एयरलाइंस, संचार आदि सेवाएं तथा अन्य बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रमों को मुनाफाखोर उद्योग घरानों के हवाले करने के साथ ही सरकार देश के लिए ऐतिहासिक महत्व की विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को उनके रख-रखाव के नाम पर कारपोरेट घरानों के हवाले कर रही है, वह भी उनसे औपचारिक तौर पर कुछ पैसा लिए बगैर ही। सवाल है कि जो ऐतिहासिक धरोहरें सरकार के लिए सफेद हाथी न होकर दुधारू गाय की तरह आमदनी का जरिया बनी हुई हैं, उन्हें सरकार निजी हाथों में सौंप कर अपने नाकारा होने का इकबालिया बयान क्यों पेश कर रही है?

सवाल यह भी है कि आखिर सरकार ऐसा क्यों कर रही है और किसे फायदा पहुंचाने के लिए कर रही है? सरकार वित्तीय रूप से क्या इतनी कमजोर हो गई है कि वह देश की ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजने-संवारने में की स्थिति में नहीं है?

हकीकत तो यह है कि सरकार ने जिन ऐतिहासिक धरोहरों को निजी हाथों में सौंपने की योजना बनाई है, वे लगभग सभी धरोहरें इतनी कमाऊ है कि उनकी आमदनी से न सिर्फ उनके रख-रखाव का खर्च निकल जाता है बल्कि सरकार के खजाने में भी खासी आवक होती है। मिसाल के तौर पर लाल किले से होने वाली आमदनी को ही लें। दो साल पहले तक लाल किले से सरकार को 6.15 करोड़ रुपए की आमदनी हो रही है। इस हिसाब से इसे गोद लेने वाला डालमिया समूह बगैर शुल्क बढ़ाए ही इससे पांच साल में करीब 30.75 करोड रुपए अर्जित करेगा और सरकार के साथ हुए करार के मुताबिक उसे पांच साल में इस खर्च करना है महज 25 करोड़ रुपए।

हालांकि सरकार का दावा है कि लाल किला लीज पर नहीं दिया गया है, बल्कि डालमिया समूह ने कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के तहत इसे रख-रखाव के लिए गोद लिया है। लेकिन फिर भी सवाल उठता है कि जिस इमारत को आप देश की सबसे बड़ी ऐतिहासिक धरोहर, आजादी के संघर्ष का स्मारक, राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक आदि बता रहे हैं, उसका रख-रखाव खुद नहीं कर सकते हैं तो फिर उसके सम्मान की इतनी चिंता करने का क्या मतलब है?

देश के संविधान ने अपने अनुच्छेद 49 में देश के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों के रख-रखाव का जिम्मा सरकार को सौंपा है। संविधान के इस नीति-निर्देशक सिद्धांत का पालन पहले की सभी सरकारें करती आ रही थीं लेकिन मौजूदा सरकार ने इस संवैधानिक निर्देश को नजरअंदाज करते हुए ऐतिहासिक महत्व की लगभग 100 विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को निजी हाथों में यानी कारोबारी समूहों को सौंपने का फैसला किया है। इस सिलसिले में देश के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कई ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा दिल्ली का लाल किला और दुनियाभर के आकर्षण का केंद्र ताज महल, विश्व प्रसिद्ध कोणार्क का सूर्य मंदिर, हिमाचल प्रदेश का कांगड़ा फोर्ट, मुंबई की बौद्ध कान्हेरी गुफाएं आदि ऐतिहासिक धरोहरों को अलग-अलग उद्योग समूहों के हवाले कर दिया गया है।

जब सरकार कहती है कि उसने इन सभी धरोहरों को कॉरपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी के तहत निजी हाथों में सौंपा है तो पूछा जा सकता है कि कॉरपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी सिर्फ इन धरोहरों को लेकर ही क्यों? सरकार देश के कॉरपोरेट घरानों में सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध देश के उन असंख्य सरकारी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति क्यों नहीं पैदा करती जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है? क्यों नहीं देश के तमाम बडे उद्योग समूह इन अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने के लिए आगे आते?

बहरहाल, लाल किले के संदर्भ में सवाल यह भी है कि क्या लाल किले पर तिरंगे के अलावा कोई अन्य झंडा फहराने को किसी कानून के तहत निषेध किया गया है? गौरतलब है कि लाल किला न तो कोई सरकारी और न ही संवैधानिक इमारत है। यह एक ऐतिहासिक धरोहर है, जहां स्वाधीनता दिवस पर तिरंगा फहराया जाता है और प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करते हैं।

मीडिया के भी जो लोग वहां 26 जनवरी को हुई घटना को देशद्रोह जैसा महान अपराध बता रहे हैं, उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि लाल किला अब एक निजी कंपनी के हवाले है, जो पैसा कमाने के लिए वहां तमाम तरह की व्यावसायिक गतिविधियां चला रही है। उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि 1980 में इसी लाल किले के प्रांगण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक विशाल कार्यक्रम हो चुका है। भाजपा ने भी 1988 में एक प्रदर्शन लाल किले के मैदान में उसी जगह पर किया था, जहां 26 जनवरी को किसान प्रदर्शनकारियों का एक समूह पहुंचा था। मदनलाल खुराना की अगुवाई में हुए उस प्रदर्शन में शामिल लोगों पर उस समय की डीसीपी किरण बेदी ने जम कर लाठियां चलवाई थीं। उस समय भी वैसे ही हालात बन गए थे, जैसे इस बार 26 जनवरी को बने।

इसी लाल किले को लेकर भाजपा एक बार नहीं, कई बार चुनावों के दौरान देश भर में नारा लगा चुकी है, ‘लाल किले पर कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान।’ 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान इसी लाल किले की प्रतिकृति वाले मंचों से नरेंद्र मोदी ने कई चुनावी रैलियों को संबोधित किया था। यही नहीं, नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने के लिए 2018 में इसी लाल किले के प्रांगण में ‘राष्ट्र रक्षा यज्ञ’ का आयोजन किया था। उसी लाल किले में हर साल रामलीला का आयोजन होता है। फिर अगर वहां निशान साहिब और किसान यूनियन का झंडा किसी ने लहरा दिया तो उस पर इतनी हायतौबा मचाने का क्या मतलब है?

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजक दिल्ली में रहते हैं।)

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