Saturday, April 20, 2024

आखिर हाशिये पर क्यों पहुंच गयी किसान राजनीति?

भारतीय राजनीति का दौर पूंजीवाद के आगमन के साथ बदल चुका है। सदियों से चले आ रहे सामाजिक अन्याय व अत्याचार को तो ढोया जा रहा है, मगर पूंजीवाद तले सामाजिक न्याय की लड़ाई भटक चुकी है।

भारत जैसे देश में, जो सदियों से सामाजिक भेदभाव/वर्ण व्यवस्था का वाहक रहा है और बिना सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किए पूंजीवाद के मॉडल को अपना रहा है, क्या यह समझा जाये कि अब सब कुछ पूंजीवादी मॉडल के पैरों तले रौंदा जा चुका है और जो लोग अभी तक सामाजिक न्याय की जंग में लगे थे वो अप्रासंगिक हो चुके हैं? क्या भारत में जाति व्यवस्था खत्म हो गई है और लड़ाई गरीब बनाम अमीर पर आ टिकी है ?

आजादी के बाद भारत में इंसाफ की लड़ाई जातीय गोल बंदी तले ही लड़ी गई। आरक्षण से लेकर किसान आंदोलन तक संघर्षों का दायरा जातियों के इर्दगिर्द ही घूमता रहा है। गांधी गांवों को रामराज्य का सपना दिखा कर आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे और मोदी देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। गांव सामाजिक भेदभाव की पहली कड़ी रहे और वर्तमान सत्ता उस को देशभर में लागू करना चाहती है, बाकी इस देश में रामराज्य की कोई परिकल्पना नहीं है।

किसानों का एक प्रदर्शन। फाइल फोटो।

उत्तर भारत में आजादी के बाद से किसान राजनीति धीरे-धीरे राष्ट्रीय परदे पर आई। चौधरी चरण सिंह ने किसान कौमों को खेत से निकालकर सत्ता के गलियारों तक पहुंचाया था। महाराष्ट्र के मराठा, गुजरात के पटेल, राजस्थान के जाट-गुर्जर-मीणा, यूपी के जाट-यादव-कुर्मी, बिहार के यादव-मुस्लिम, हरियाणा के जाट व पंजाब के सिख चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय परिदृश्य में आये और राज्यों में सरकारें बनाई थीं। लोहिया-जेपी-कर्पूरी ठाकुर-लालू-मुलायम-देवीलाल इस लिए उभरे क्योंकि चौधरी चरण सिंह ने इन को दिशा दिखाई थी।

उत्तरी भारत में जाट किसान कौमों में बहुसंख्यक आबादी है। जाट तमाम बड़े किसान आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे और बाकी किसान कौमें सीख लेकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ती रही हैं। राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस-बीजेपी ने भारत की असलियत को त्याग कर खुद को पूर्णतया पूंजीवादी मॉडल की गोद में बैठा लिया है। भारतीय इतिहास, सामाजिक व्यवस्था, वर्तमान हालातों को लात मारकर ये पार्टियां गरीब-बनाम अमीर अर्थात पूंजीवादी मॉडल में समा चुकी हैं, मगर भारत अभी भी सामाजिक न्याय की जंग में उलझा हुआ है।

 सत्ता पूंजीवादी मॉडल में और जनता समाजवादी मॉडल में संघर्षरत है। क्या कीजियेगा? देश की हकीकत को दरकिनार करके सत्ता जनता से अलग रास्ते पर चली जाए तो कदम-कदम पर संघर्ष होने लगता है। भारत की जनता भारत की सत्ता के खिलाफ लड़ती हुई नजर आती है। मध्यकालीन भारत में जब विदेशी आये थे तब भारत इन्हीं हालातों से गुजर रहा था। जनता देशी राजाओं से परेशान थी और जब विदेशी देशी राजाओं को बजा रहे थे तब जनता चुप हो गई थी।खामियाजा सदियों तक भुगतना पड़ा।

कुल मिलाकर आज़ादी के बाद की राजनीति को देखा जाए तो पहले कांग्रेस किसान राजनीति को निपटा रही थी, उसी को अब बीजेपी आगे बढ़ा रही है। उस समय जाट नेतृत्व ने कांग्रेस के दांव को फेल करके किसान राजनीति को खड़ा किया था और अब जाट नेतृत्व इन दोनों पार्टियों का पिछलग्गू बन गया तो किसान राजनीति हाशिये पर चली गई!

अब देश में गरीब पूंजीवादी मॉडल में फिट हो चुके हैं इसलिए सरकार रोटी बाटी का इंतजाम देख रही है। सोशल जस्टिस सरकारी नीतियों से गायब हो चुका है और जमीन पर यह लड़ाई होनी बाकी है। वर्तमान हालात ऐसे हैं कि दुश्मन से लड़ने से पहले इस देश की जनता व सत्ता के बीच संग्राम होगा।

सब तरह की लड़ाइयां समानांतर चल रही हैं और हर कोई हालात के हिसाब से मोलभाव कर रहा है, मगर इस देश के किसान अलग-थलग हो चुके हैं। उत्तर भारत में किसान राजनीति का जो नेतृत्व जाट कर रहे थे वो नेतृत्वहीन हो चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों द्वारा जाट नेतृत्व निपटाकर पूंजीवादी आढ़तिये तैयार कर लिए गए। राजस्थान में परस राम मदेरणा व शीश राम ओला के बाद किसान राजनीति खत्म कर दी गई। हरियाणा में सोशल जस्टिस की लड़ाई लड़ने के बजाय लड़ाई मुकदमों से बचने तक सीमित हो चुकी है।

आंदोलनरत किसान।

जिनके पुरखे किसान के रूप में इस देश की बुनियाद रख रहे थे, जिनके भाई सीमा पर खड़े होकर देश की अस्मिता को अक्षुण्ण रख रहे थे, जिनके नेता सामाजिक न्याय की लड़ाई को आदर्श मानकर चल रहे थे, जिनके बाप ऊपर वालों को औकात दिखा कर नीचे वालों के साथ इंसाफ करते थे, उस कौम के नेता कांग्रेस-बीजेपी से टिकट लेने तक अपना ईमान समेट चुके हैं और विधायक-सांसद बन गए तो कौम की भलाई से बड़ी भूख मंत्री पद की हो चुकी है।

आज के जाट कौम से ताल्लुक रखने वाले किसान संगठनों के ज्यादातर नेता पूंजीवादी मॉडल के भूमाफिया हैं और कांग्रेस-बीजेपी के टिकटों से जीते लोग कौम के सौदागर। जाट कौम के इन किसान नेताओं व विधायक-एमपी बने लोगों से एक सवाल है,  कि आज समाज के किसी गरीब-लाचार-बेबस आदमी के साथ अन्याय हो तो बता दीजिए कहाँ जाकर इंसाफ मांगें? याद करो पूरे उत्तर भारत में जाट राजनेता इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे थे उसको आपने कहाँ तक पहुंचाया?

इस मसले पर आदर्श जाट महासभा के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष रामनारायण चौधरी का कहना है,” जिस किसान राजनीति को पुरखों ने खड़ा किया था उसको निपटा न सकोगे। आप लोग अपना रोजगार शिफ्ट करके समाज को कोस सकते हो मगर भारतीय समाज अभी भी जाति व धर्म के नाम पर खड़ा है। यह दावा मैं नहीं करता बल्कि भारतीय संविधान व वर्तमान सत्ता बता रही है।

“आज हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि किसी भावी जाट राजनेता को कॉल करें तो बोलते हैं कि तुम तो फलां क्षेत्रीय दल के लोग हो। जाट तो क्षेत्रीय दल के ही समर्थक होते हैं। मुझे गर्व है कि चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रीय पार्टी को लात मार कर क्षेत्रीय दल बनाया था। मुझे गर्व है कि मुलायम सिंह, मान्यवर कांशीराम ने राष्ट्रीय पार्टी को यूपी से भगाया था। मुझे खुशी है कि लालूजी ने बिहार में क्षेत्रीय दल बनाकर किसान राजनीति को खड़ा किया। चौधरी देवीलाल से लेकर कुम्भाराम जी आर्य तक एक सुर में किसान राजनीति की आवाज बने थे। किसान जब राजनीति में अपना स्थान बनाता है और अपना दल खड़ा करता है तो इस देश मे सोशल जस्टिस होने लगता है।”

(मदन कोथुनियां स्वतंत्र पत्रकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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